
संजय सिंह राणा की खास रिपोर्ट
बुंदेलखंड, जिसे अक्सर सूखे, पलायन और पिछड़ेपन की त्रयी के रूप में देखा जाता है, दरअसल उससे कहीं अधिक जटिल सामाजिक-आर्थिक परतों का प्रदेश है। इसी प्रदेश के भीतर स्थित पाठा क्षेत्र—जो चित्रकूट, बांदा, ललितपुर, महोबा, पन्ना इत्यादि जिलों के कठिन भूभागों में फैला है—अभी भी शिक्षा जैसी बुनियादी सेवा से पूर्ण रूप से जुड़ नहीं पाया है। आदिवासी समुदाय शिक्षा को लेकर उत्सुक है, परंतु यह उत्साह सरकारी अव्यवस्था, भूगोल और आर्थिक अस्थिरता के बोझ तले दब जाता है।
शिक्षा तक पहुंच: भूगोल और दूरी सबसे बड़ी बाधा
पाठा क्षेत्र की सबसे बड़ी संरचनात्मक चुनौती इसकी भौगोलिक कठोरता है। छिटके हुए गाँव, पहाड़ी ढलानें, कच्चे रास्ते और स्कूलों की लंबी दूरी बच्चों के लिए शिक्षा को एक दुष्कर यात्रा बना देती है। प्राथमिक विद्यालय अपेक्षाकृत पास होते हैं, लेकिन माध्यमिक विद्यालयों तक पहुँचने के लिए 4–8 किलोमीटर प्रतिदिन पैदल चलना आम बात है।
लड़कियों की शिक्षा में यह दूरी और भी बड़ा अवरोध बन जाती है क्योंकि सुरक्षा, सामाजिक मानदंड और घरेलू ज़िम्मेदारियाँ उनके लिए स्कूल जाने को कठिन बना देती हैं।
- बरसात में रास्ते टूट जाते हैं और उपस्थिति गिर जाती है।
- माध्यमिक स्तर पर पहुँचने से पहले ही अधिकांश बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं।
- दूरी के कारण लड़कियों का ड्रॉपआउट दोगुना होता है।
स्कूल-सुविधाएँ, शिक्षक और अधोसंरचना की असलियत
UDISE+ और जिला रिपोर्टें बताती हैं कि पाठा क्षेत्र के कई विद्यालयों में बुनियादी सुविधाएँ नहीं हैं—न स्वच्छ पेयजल, न नियमित बिजली, न अलग शौचालय। सबसे गंभीर संकट “एकल-शिक्षक विद्यालयों” का बढ़ना है, जहाँ एक शिक्षक सभी कक्षाओं को संभालता है।
- शिक्षक तैनाती अनियमित—दूरस्थ स्कूलों में शिक्षक नहीं जाना चाहते।
- महिला शिक्षकों की कमी, जिससे किशोरियों की उपस्थिति कम।
- विद्यालय समय पर नहीं खुलते, निरीक्षण लगभग शून्य।
इन सबका सीधा असर सीखने के परिणामों पर पड़ता है—बच्चे पढ़ने से पहले ही रुचि खो देते हैं।
भाषा, संस्कृति और पाठ्यक्रम का असंतुलन
आदिवासी समुदायों की अपनी बोलियाँ, सांस्कृतिक अभिव्यक्तियाँ और ज्ञान-परंपराएँ होती हैं। इसके बावजूद शिक्षा केवल हिंदी या राजकीय भाषा में दी जाती है। प्रारंभिक शिक्षा में मातृभाषा की अनुपस्थिति बच्चे के आत्मविश्वास और सीखने की क्षमता को कमजोर कर देती है।
शिक्षा-अध्ययन बताते हैं कि यदि प्रारंभिक 3 वर्षों में मातृभाषा आधारित शिक्षा दी जाए तो ड्रॉपआउट 40–60% तक घट सकता है।
आर्थिक दबाव, मौसमी पलायन और बाल-श्रम
बुंदेलखंड की वर्षा-आधारित खेती और सीमित रोजगार अवसरों के कारण गरीब परिवार अक्सर मजदूरी के लिए पलायन करते हैं। इस पलायन के दौरान बच्चों की शिक्षा निरंतरता टूट जाती है।
- बच्चे खेत-मजदूरी, पशुपालन या घरेलू काम में लग जाते हैं।
- कई परिवार 3–6 महीने बाहर रहते हैं—स्कूल छूट जाता है।
- स्कूल-आधारित पहचान व्यवस्था पलायनशील बच्चों पर लागू नहीं हो पाती।
क्षेत्रवार विश्लेषण: चित्रकूट — बांदा — ललितपुर
चित्रकूट
सबसे कठिन भूगोल—पहाड़ियाँ, जंगल और दुर्गम रास्ते। कई गाँवों में स्कूल 3–7 किमी दूर। महिला साक्षरता 51–53% के आसपास। शिक्षक ग्रामीण भाषा नहीं समझते, जिससे सीखने में दूरी पैदा होती है।
बांदा
शहरी-ग्रामीण असमानता सबसे स्पष्ट। ग्रामीण क्षेत्रों में एकल-शिक्षक विद्यालय, महिला शौचालय का अभाव, परिवहन नदारद। निजी ट्यूशन जैसे विकल्प उपलब्ध नहीं।
ललितपुर
आदिवासी जनसंख्या का केंद्र। भूमि अधिकार अस्थिर, पलायन तीव्र, आजीविका सीमित—महिला साक्षरता 50% से भी कम। विद्यालय में उपस्थिति सर्वाधिक कम।
क्या सरकारी योजनाएँ असरदार हैं?
छात्रवृत्ति, आवासीय विद्यालय, साइकिल वितरण, mid-day meal—ये सब योजनाएँ कागज़ पर बहुत प्रभावी दिखती हैं, पर जमीनी स्तर पर लाभ सीमित है।
- लाभार्थियों की पहचान में त्रुटि
- भुगतान में देरी
- निधि का गलत उपयोग
- निरीक्षण तंत्र लगभग निष्क्रिय
विशेषकर आदिवासी गाँवों में योजनाएँ सिर्फ फाइलों में चलती दिखाई देती हैं, वास्तविकता में नहीं।
आगे का रास्ता: समाधान क्या?
- मातृभाषा आधारित शिक्षा — शुरुआती तीन वर्षों में स्थानीय भाषा अनिवार्य।
- स्थानीय समुदाय की भूमिका — सक्रिय ग्राम शिक्षा समिति।
- कम्युनिटी टीचर्स — स्थानीय युवाओं को प्रशिक्षित कर शिक्षक बनाना।
- सुरक्षित सामुदायिक परिवहन — आदिवासी बस्तियों से साझा वाहन।
- माइग्रेशन-संवेदी शिक्षा नीति — प्रवासी परिवारों के बच्चों के लिए ट्रैकिंग व वैकल्पिक कक्षाएँ।
- कौशल + शिक्षा मॉडल — कृषि, हस्तशिल्प, डिजिटल कौशल का समावेश।
- UDISE+ आधारित मासिक निगरानी — मोबाइल निरीक्षण दल।
निष्कर्ष
पाठा क्षेत्र में शिक्षा केवल विद्यालय खोल देने से नहीं सुधरेगी। भूगोल, गरीबी, भाषा, संस्कृति और प्रशासन—इन सभी की संयुक्त समझ से ही समाधान बनेगा। बच्चे पढ़ना चाहते हैं, माता-पिता उन्हें भेजना चाहते हैं—अब राज्य और प्रणाली को बाधाएँ हटानी होंगी।
रिपोर्ट: संजय सिंह राणा






