वंदे मातरम् को लेकर सरकार और विपक्ष के बीच विवाद: संसद में बहस से फिर क्यों गर्म हो गया मुद्दा?

अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट

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वंदे मातरम् विवाद एक बार फिर राजनीति के केंद्र में है। लोकसभा में वंदे मातरम् के
150 वर्ष पूरे होने के मौके पर हुई विशेष चर्चा में
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विपक्ष, खासकर कांग्रेस, आमने-सामने दिखाई दिए।
सरकार इसे राष्ट्रीय गौरव और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का विषय मान रही है, जबकि विपक्ष का आरोप है कि यह बहस
महंगाई, बेरोजगारी और आर्थिक संकट जैसे असली मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश है।

वंदे मातरम् का इतिहास: गीत से राष्ट्रीय प्रतीक तक की यात्रा

वंदे मातरम् की रचना 19वीं सदी में प्रसिद्ध साहित्यकार
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने की थी। यह गीत सबसे पहले उनके उपन्यास
आनंदमठ में प्रकाशित हुआ और देखते ही देखते देश की स्वतंत्रता की चेतना से जुड़ गया।
1905 के स्वदेशी आंदोलन के दौर में यह गीत औपनिवेशिक शासन के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज़ बन गया।

कांग्रेस के अधिवेशनों, आज़ादी के आंदोलनों, जुलूसों और क्रांतिकारी गतिविधियों में
वंदे मातरम् एक नारे की तरह इस्तेमाल होता रहा। यह केवल साहित्यिक रचना नहीं रहा,
बल्कि राजनीतिक चेतना और भावनात्मक एकता का शक्तिशाली प्रतीक बन गया।
अंग्रेज़ सरकार इस गीत से इतनी असहज हो गई कि कई जगह इसे सार्वजनिक रूप से गाने पर रोक भी लगाई गई।

आज़ाद भारत में 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा ने वंदे मातरम् को
आधिकारिक राष्ट्रीय गीत (National Song) का दर्जा दिया। इसके साथ ही
जन गण मन को राष्ट्रगान स्वीकार किया गया। इस निर्णय ने वंदे मातरम् को
भारत की आधिकारिक राष्ट्रीय पहचान और सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा बना दिया,
हालांकि व्यावहारिक प्रोटोकॉल में राष्ट्रगान अधिक प्रमुख रहा।

1937 से शुरू हुआ विवाद: किन पदों पर क्यों उठी आपत्ति?

वंदे मातरम् को लेकर विवाद की ऐतिहासिक शुरुआत वर्ष 1937 में मानी जाती है।
उस समय कांग्रेस ने यह तय किया कि गीत के केवल पहले दो पदों को ही
औपचारिक रूप से अपनाया जाएगा। शेष पदों में देवी-देवताओं और धार्मिक प्रतीकों का उल्लेख था,
जिन्हें कुछ नेताओं ने बहु-धार्मिक भारतीय समाज के लिए संवेदनशील और विवादास्पद माना।

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कांग्रेस का तर्क था कि एक राष्ट्रीय गीत ऐसा होना चाहिए जिसे
हर समुदाय और हर धर्म बिना किसी संकोच के स्वीकार कर सके। लिहाजा,
सर्वसम्मति पाने की कोशिश में केवल वे हिस्से अपनाए गए जिन्हें अपेक्षाकृत
सार्वभौमिक और सर्वग्राह्य माना गया। लेकिन यहीं से यह आरोप भी जन्मा कि
तुष्टिकरण की राजनीति के दबाव में वंदे मातरम् को “काट-छांट” कर स्वीकार किया गया।

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सरकार का पक्ष: “ऐतिहासिक गलती और सांस्कृतिक अन्याय”

वंदे मातरम् के 150 वर्ष पूरे होने पर लोकसभा में शुरू हुई विशेष चर्चा का आगाज़
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में
1937 के फैसले को “ऐतिहासिक भूल” बताया और कहा कि
कांग्रेस ने वंदे मातरम् के साथ अन्याय किया। उनका आरोप था कि उस समय
मुस्लिम लीग और सांप्रदायिक दबाव के सामने घुटने टेककर वंदे मातरम् के कुछ हिस्सों को
त्यागा गया, जिससे भारत की सांस्कृतिक एकता को चोट पहुँची।

सत्ता पक्ष का तर्क है कि वंदे मातरम् विवाद केवल एक गीत का विवाद नहीं,
बल्कि भारत की सांस्कृतिक पहचान बनाम तुष्टिकरण की राजनीति का प्रतीक है।
भाजपा नेताओं का मानना है कि वंदे मातरम् ने स्वतंत्रता आंदोलन में जो भूमिका निभाई,
उसे आधा-अधूरा स्वीकार करना राष्ट्रवादी भावनाओं और इतिहास दोनों के साथ अन्याय है।

सरकार इस बहस को एक तरह का नेशनल रिवाइवल बताती है—अर्थात,
राष्ट्र की आत्मा से जुड़े प्रतीकों को फिर से केंद्र में लाकर
राष्ट्रीय एकता, गौरव और सांस्कृतिक आत्मविश्वास को मजबूत करना।

विपक्ष का पक्ष: “मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश”

दूसरी ओर, कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल इस बहस को
समय की मांग के बजाय राजनीतिक रणनीति करार दे रहे हैं।
विपक्ष का कहना है कि जब देश महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की समस्याओं,
आर्थिक असमानता और सामाजिक तनाव
जैसी गंभीर चुनौतियों से जूझ रहा है,
तब वंदे मातरम् की बहस को प्राथमिकता देना यह संकेत देता है कि सरकार
भावनात्मक मुद्दों के सहारे राजनीतिक लाभ लेना चाहती है।

कांग्रेस का यह भी दावा है कि उसने इतिहास में कभी वंदे मातरम् का अपमान नहीं किया,
बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस के मंचों ने ही इस गीत को राष्ट्रीय स्तर दिया।
1937 का निर्णय भी उनकी नज़र में समावेशिता और सहमति के लिए था,
न कि किसी विशेष समुदाय को खुश करने के लिए। विपक्ष आरोप लगाता है कि
इतिहास की चयनात्मक व्याख्या करके भाजपा कांग्रेस को विलेन और स्वयं को
अकेला राष्ट्रभक्त बताने की कहानी गढ़ रही है।

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असल टकराव: राष्ट्रवाद की परिभाषा बनाम बहुलतावाद की चिंता

वंदे मातरम् विवाद की जड़ में दरअसल दो अलग दृष्टिकोणों का टकराव है।
पहला दृष्टिकोण यह मानता है कि भारत की राष्ट्रीय पहचान और सांस्कृतिक चेतना
का स्वाभाविक रूप धार्मिक प्रतीकों और देवी-देवताओं से जुड़ा हुआ है, इसलिए वंदे मातरम्
का धार्मिक संदर्भों वाला स्वरूप भी स्वाभाविक और सम्माननीय है।

दूसरा दृष्टिकोण यह सोचता है कि एक आधुनिक, संवैधानिक लोकतंत्र में
राष्ट्रीय प्रतीक उन शब्दों और रूपकों से बने हों जो सभी नागरिकों को समान रूप से
शामिल महसूस कराएँ—चाहे वे किसी भी धर्म, भाषा या पृष्ठभूमि से हों।
ऐसे में वंदे मातरम् के धार्मिक पदों को आधिकारिक रूप से अपनाने पर
अल्पसंख्यकों की संवेदनशीलता का प्रश्न उठता है।

इसी द्वंद्व के बीच वंदे मातरम् आज
इतिहास, भावनाओं और राजनीति — तीनों के संगम पर खड़ा है।
यही वजह है कि संसद में हुई चर्चा केवल अतीत की समीक्षा नहीं,
बल्कि आज के भारत में राष्ट्रवाद की नई व्याख्या खोजने की कोशिश भी है।

आगे का रास्ता: क्या हो सकता है संतुलित समाधान?

समाधान की दिशा में कुछ संभावित रास्ते दिखाई देते हैं।
पहला, वही रास्ता जो 1937 और 1950 में चुना गया—औपचारिक रूप से
केवल दो पदों को राष्ट्रगीत के रूप में बनाए रखते हुए
पूरे गीत को सांस्कृतिक-साहित्यिक धरोहर के रूप में स्वीकार करना।
यह रास्ता बहुलतावाद और सहमति को प्राथमिकता देता है।

दूसरा रास्ता यह हो सकता है कि व्यापक संवाद,
सर्वदलीय सहमति और सामाजिक विमर्श के बाद
वंदे मातरम् के शेष पदों की स्थिति पर नया निर्णय लिया जाए।
लेकिन यह बेहद संवेदनशील प्रक्रिया होगी और यदि इसे
चुनावी राजनीति से जोड़ा गया, तो विवाद और गहरा सकता है।

तीसरा और अपेक्षाकृत व्यावहारिक रास्ता यह हो सकता है कि
संवैधानिक-औपचारिक उपयोग के लिए दो पदों की वर्तमान व्यवस्था बरकरार रखी जाए,
जबकि सांस्कृतिक कार्यक्रमों, साहित्यिक मंचों और जन आंदोलनों में लोग
पूरे गीत का स्वतंत्र रूप से सम्मानपूर्वक प्रयोग करें।
इससे एक ओर संवैधानिक समावेशिता बनी रहेगी, दूसरी ओर सांस्कृतिक अभिव्यक्ति पर रोक भी नहीं लगेगी।

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अंततः, यह बात स्वीकार करनी होगी कि
वंदे मातरम् न तो केवल अतीत की स्मृति है, न ही केवल वर्तमान की राजनीति
यह भारत की संवेदनशील, जटिल और बहुरंगी राष्ट्रीय पहचान का हिस्सा है।
इसे लेकर होने वाली हर बहस में सम्मान, संयम और संवेदनशीलता
तीनों का संतुलन ज़रूरी है।

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अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQ) – वंदे मातरम् विवाद

वंदे मातरम् को राष्ट्रीय गीत का दर्जा कब और कैसे मिला?

वंदे मातरम् को स्वतंत्र भारत की संविधान सभा ने
24 जनवरी 1950 को आधिकारिक रूप से राष्ट्रीय गीत (National Song) का दर्जा दिया।
उसी समय जन गण मन को राष्ट्रगान घोषित किया गया।
इसके साथ वंदे मातरम् भारत की आधिकारिक राष्ट्रीय पहचान और सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा बन गया।

1937 में वंदे मातरम् को लेकर कौन-सा विवादित फैसला लिया गया था?

1937 में कांग्रेस के अंदर यह निर्णय हुआ कि
वंदे मातरम् के केवल पहले दो पदों को ही राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार किया जाएगा।
शेष पदों में देवी-देवताओं और धार्मिक प्रतीकों का उल्लेख होने के कारण
उन्हें बहु-धार्मिक भारतीय समाज की संवेदनशीलता देखते हुए आधिकारिक उपयोग से बाहर रखा गया।
यहीं से तुष्टिकरण बनाम समावेशिता की बहस शुरू हुई।

आज संसद में वंदे मातरम् को लेकर सरकार और विपक्ष में विवाद क्यों तेज हुआ?

वंदे मातरम् के 150 वर्ष पूरे होने पर लोकसभा में विशेष चर्चा के दौरान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1937 के फैसले को ऐतिहासिक गलती और तुष्टिकरण बताया।
सरकार ने इसे राष्ट्रीय गौरव और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का मुद्दा कहा,
जबकि विपक्ष—खासकर कांग्रेस—का आरोप है कि यह बहस
महंगाई, बेरोजगारी और अन्य असल समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए छेड़ी गई है।

क्या वंदे मातरम् पर चल रहा विवाद आगे भी जारी रहेगा?

वंदे मातरम् केवल एक गीत नहीं, बल्कि इतिहास, भावना और राजनीति
तीनों का संगम है। जब तक भारत में राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावाद
की व्याख्याओं पर मतभेद रहेंगे, तब तक वंदे मातरम् जैसे प्रतीकों को लेकर
बहस और विवाद भी समय-समय पर सामने आते रहेंगे। समाधान तभी संभव है जब
संवाद, संवेदनशीलता और सहमति तीनों को बराबर महत्व दिया जाए।

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