बुंदेलखंड का नाम आते ही स्मृतियों में सूखा, गरीबी, संघर्ष और बीहड़ों की भयावहता उभर आती है। लेकिन इस कठोर धरातल के पीछे एक और दुनिया मौजूद है — ऐसी दुनिया जिसमें पाठा क्षेत्र के आदिवासी और वनवासी जनसमुदाय सदियों से प्रकृति और जंगलों के साथ सहजीवन की नीति पर जिये हैं। यह समुदाय जंगल को केवल संसाधन नहीं मानता — जंगल ही उनका जीवन, सम्मान और संस्कृति रहा है। परंतु आज स्थिति पूरी तरह उलट चुकी है। जंगल उनके लिए जीवन का सहारा नहीं, अपमान और भय का पर्याय बन गया है। यही दर्द इस लेख का मूल है।
1️⃣ जंगल उनका जीवन था, अपराध नहीं
पाठा के आदिवासी लकड़ी काटकर नहीं, बल्कि अपशिष्ट वन्य सामग्री — जैसे सूखी लकड़ियाँ, गिरी पत्तियाँ, महुआ, तेंदू, जड़ी-बूटियाँ, बांस और घास — के सहारे अपना जीवन चलाते थे। इन्हीं से घर की छत, चटाई, टोकरी, रस्सी बनाकर वे बाजार में बेचते थे।
🌿 संक्षिप्त व्याख्या: आदिवासी जंगल का दोहन नहीं, बल्कि संरक्षण करते हुए उसका उपयोग करते थे। फिर भी उनके इस नैसर्गिक अधिकार को अपराध की तरह देखा जाने लगा।
2️⃣ हक मिला, लेकिन मिलती नहीं — कागज़ जंगल में नहीं चलता
सरकार ने हक–हूकूक नियम के तहत इन समुदायों को अपशिष्ट वन सामग्री लेने की स्वीकृति दी, लेकिन ज़मीन पर यह अधिकार कागज़ों तक सीमित है। जंगल में कागज़ नहीं, वनकर्मियों की मनमानी चलती है। सूखी लकड़ी के गट्ठर पर भी जुर्माना, डांट, गाली और केस की धमकी — यह सब आम बात हो गई है।
📌 संक्षिप्त व्याख्या: कागज़ पर उनके अधिकार सुरक्षित हैं, लेकिन व्यवहार में उन्हें अधिकारों का लाभ नहीं मिल रहा। यानी कानून है, लेकिन लागू नहीं होता।
3️⃣ वनकर्मियों की दबंगई और उत्पीड़न — शिकायत करने पर सज़ा
पाठा के आदिवासी बताते हैं कि असली जंगल माफिया बड़े ठेकेदारों और रसूखदारों के लोग हैं, लेकिन पकड़कर दंडित किया जाता है सिर्फ गरीबों को। महिलाएँ और बच्चे सूखी लकड़ी या चारा लेकर आते हैं तो मार्ग में चौकी पर रोका जाता है, गाली दी जाती है और “चोरी” का आरोप लगाकर रूपया वसूला जाता है। असल अपराधियों को छोड़कर गरीब आदिवासियों पर फोकस किया जा रहा है। बड़े ट्रकों को रास्ता, छोटे गट्ठरों को सज़ा।
4️⃣ विकास और संरक्षण के नाम पर विस्थापन
वन अभयारण्य, संरक्षित क्षेत्र, परियोजना सीमाएँ — इन नीतियों ने जंगल को कागज़ों पर बांट दिया। लेकिन सबसे अधिक प्रभावित वे लोग हुए जिनके लिए जंगल ही जीवन था। उनके लिए कोई आजीविका विकल्प नहीं दिया गया, कोई पुनर्वास पूरा नहीं हुआ, और वन पर नियंत्रण सख्त होता गया। विकास योजनाओं ने उनके घर और संस्कृति को छीन लिया, जबकि वादों का क्रियान्वयन जमीन पर नहीं हुआ।
5️⃣ पलायन — जब भूख परंपरा से जीत गई
जब न जंगल तक पहुँच बची, न रोजगार मिला और न सरकारी योजनाएँ पहुँचीं — तब भूख ने परंपरा को हरा दिया। आज पाठा क्षेत्र का युवा और महिला वर्ग शहरों में मजदूरी करने को मजबूर है — कोई ईंट-भट्ठों पर, कोई खदानों में, तो कोई घरों में काम करता है। बच्चे पढ़ाई नहीं, सड़क और धूल में पल रहे हैं। जंगल से आजीविका खत्म होने के कारण बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है और समुदाय का सामाजिक ढाँचा टूट रहा है।
6️⃣ आदिवासी महिलाएँ — दोहरी चोट की शिकार
महुआ बीनना, पत्ते जमा करना, लकड़ी लाना, जड़ी-बूटी ढूँढना — पहले महिलाओं की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण थी। अब उन्हें मार्ग में रोक, गाली, धमकी, केस की धमकियाँ झेलनी पड़ रही हैं। इससे आर्थिक नुकसान के साथ सम्मान पर भी चोट पड़ी है। आर्थिक और सांस्कृतिक दोनों स्तर पर महिलाओं का नुकसान सबसे अधिक है।
7️⃣ परंपराएँ भी “अवैध” करार दी गईं
पेड़ों की पूजा, प्रजनन मौसम में शिकार पर रोक, सामुदायिक अनुमोदन के बिना कटाई नहीं — ये सदियों पुरानी संरक्षण परंपराएँ थीं, जिन्हें आधुनिक कानूनों ने अवैध घोषित कर दिया। परिणाम उल्टा निकला — जंगल और भी तेजी से नष्ट होने लगे। आदिवासी परंपराएँ जंगल संरक्षण की सबसे प्रभावी प्रणाली थीं, लेकिन प्रणाली को मिटा दिया गया और नुकसान जंगल को हुआ।
8️⃣ आवाज़ दबा दी गई — कानून किताबों में, अन्याय ज़मीन पर
कई लोग पूछते हैं — आदिवासी आवाज़ क्यों नहीं उठाते? उत्तर सरल है — आवाज़ उठाना उनके लिए अपराध बना दिया गया है। शिकायत करने पर दमन बढ़ जाता है, झूठे केस दर्ज कर दिए जाते हैं, योजनाओं और राशन के लाभ रोक दिए जाते हैं। वे चुप नहीं हैं, बल्कि चुप कराए गए हैं। संघर्ष करने की कीमत जीवन से चुकानी पड़ती है।
राहत नहीं — वास्तविक न्याय चाहिए
- हक–हूकूक अधिकारों को जमीनी स्तर पर लागू किया जाए
- जंगल से आजीविका वापस मिले, वनकर्मियों की अवैध दादागिरी पर रोक और जवाबदेही
- अपशिष्ट वन सामग्री पर पूर्ण स्वतंत्र अधिकार
- परंपरागत जीवन, वन उत्पाद आधारित कुटीर उद्योग
- शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक स्थिरता, रोजगार से पलायन रोकना
- प्रकृति–सरकार–समुदाय मॉडल के तहत तीनों हितों का संतुलन
पाठा के आदिवासियों के जीवन का तुलनात्मक अध्ययन — दो दशक पहले बनाम आज
दो दशक पहले उनका जीवन पूरी तरह जंगल केंद्रित था — अर्थव्यवस्था, परंपराएँ और सामाजिक ढाँचा सामंजस्य पर आधारित। सामूहिक श्रम, प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता, प्रकृति आधारित त्यौहार, और सम्मान आधारित सामाजिक संरचना। शिक्षा सीमित पर जीवन आत्मनिर्भर, पलायन नगण्य।
आज जंगल प्रवेश रोक, निगरानी और विस्थापन के कारण वन आधारित अर्थव्यवस्था खत्म हो गई है। आजीविका के लिए भारी पलायन, श्रम आधारित जीवन, बच्चों में पढ़ाई का अभाव, बुज़ुर्ग और संस्कृति हाशिये पर। आर्थिक स्तर अस्थिर, सामाजिक ढाँचा बिखर गया।
पहले जीवन गरीब लेकिन सुरक्षित था, आज अस्थिर और बिखरा हुआ।
अगर आज पाठा के आदिवासियों को न्याय नहीं मिला तो सिर्फ लोग नहीं, एक संपूर्ण संस्कृति, परंपरा और जंगल से जुड़ा मानव–पर्यावरण मॉडल समाप्त हो जाएगा। जंगल को बचाना है तो जंगल के लोगों को बचाना ही होगा।
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क्या आदिवासी जंगल को नुकसान पहुँचाते हैं?
नहीं। वे जंगल काटकर नहीं जीते, बल्कि उसके संरक्षण के साथ संसाधन लेते हैं। असली दोहन बड़े ठेकेदार और माफिया करते हैं।
क्या सरकार ने उन्हें जंगल उपयोग की अनुमति दी है?
हाँ, हक–हूकूक नियम के तहत अनुमति है, लेकिन जमीनी रूप से वनकर्मियों की मनमानी के कारण यह अधिकार लागू नहीं होता।
सबसे अधिक पीड़ित कौन है?
आदिवासी महिलाएँ — उन्हें आर्थिक, सामाजिक और सम्मान–स्तर पर तीन गुना नुकसान झेलना पड़ा है।
समाधान क्या है?
हक–हूकूक अधिकारों का वास्तविक क्रियान्वयन, वनकर्मियों की जवाबदेही, जंगल से आजीविका की बहाली और प्रकृति–समुदाय आधारित विकास मॉडल।
🌳 जंगल को बचाना है तो पहले जंगल के लोगों को न्याय देना होगा 🌳