
भारत की विशाल संस्कृति केवल भौगोलिक विस्तार से नहीं, बल्कि भाषा और परंपराओं की विविधता से पहचानी जाती है।
इसी विविधता के मध्य एक ऐसी सभ्यता मौजूद है, जो अपने भीतर वीरता, संवेदना, प्रेम, शालीनता और सामुदायिक अपनत्व
को एक साथ समेटे हुए है — डोगरी। यह केवल शब्दों का क्रम नहीं, बल्कि डोगरा पहचान की आत्मा है।
जम्मू का डोगरा परिक्षेत्र सदियों से अपने विशिष्ट सांस्कृतिक स्वरूप के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ भाषा के भीतर इतिहास
की गूँज है, लोकगीतों में प्रेम की धुन है और दैनिक जीवन में संबंधों की गर्माहट है।
डोगरी को समझना केवल व्याकरण सीख लेना नहीं, बल्कि डुग्गर देश की आत्मा को समझना है।
चिनाब की घाटियों से लेकर तिरछी पहाड़ियों तक फैले इस भूभाग में प्रकृति ने भाषा में वही दृढ़ता, वही कोमलता
और वही लयात्मकता भर दी है, जो जीवन और इतिहास दोनों में दिखाई पड़ती है। डोगरी लोकविश्व में परिवार एक संस्था
नहीं बल्कि भावनात्मक सुरक्षा की छतरी है, और समाज एक समुदाय नहीं बल्कि रिश्तों का विस्तृत परिवार।
डोगरी भाषा के क्षेत्रीय आयाम — जहाँ भूगोल के साथ भाषा बदलती है
डोगरी भाषा पूरे जम्मू क्षेत्र में बोली जाती है, लेकिन इसका स्वर और शब्द विन्यास अलग-अलग जिलों में अलग रूप ले लेता है।
यह विविधता डोगरी की कमजोरी नहीं बल्कि उसकी जीवंतता और लोकसंपृक्ति का प्रमाण है।
जम्मू शहर और आसपास का मैदान क्षेत्र
यहाँ बोली जाने वाली डोगरी सबसे मानकीकृत और मधुर रूप में मिलती है। उच्चारण में सहजता और वाक्यों में सरलता इसकी
विशेषता है। उदाहरण – “तुस्सीं किन्नी सोनियाँ लगदियाँ ओ आज!” जो प्यार,
सम्मान और कोमलता का एक साथ अहसास कराता है।
कटरा–उधमपुर–रेयासी का पर्वतीय भाग
यहाँ की डोगरी में पर्वतीय दृढ़ता सुनाई देती है। व्यंजन स्पष्ट और स्वर थोड़े भारी होते हैं, जो जीवन की कठोर मेहनत
और सीधेपन को दर्शाते हैं। उदाहरण – “ध्यान रखो घर दा काज!” भाषा में आदेश
नहीं, बल्कि जिम्मेदारी और अपनत्व होता है।
सांबा–कठुआ क्षेत्र
यह क्षेत्र डोगरी का लोकसंगीतमय रूप प्रस्तुत करता है। इसमें पंजाबी और राजस्थानी प्रभाव भी मिलता है। लोकगीत इसमें
आत्मा की तरह बसे हुए हैं — “साड्डा दिल ले गया वो डोगरा मुंडा…” प्रेम और
उत्सव का स्वर इसमें सहज रूप से दिखाई देता है।
भद्रवाह–डोडा–किश्तवाड़ घाटी
यहाँ की डोगरी ध्वनि की गूंज और पहाड़ी प्रतिध्वनि से संपन्न है। शब्द छोटे होते हैं, लेकिन ध्वनि लंबी। उदाहरण –
“परबताँ दी ठंडी हवा बड़े चंगे लगदी।” भाषा में प्रकृति का संगीत जीवित
महसूस होता है।
डोगरी लोककला — जहाँ भाषा सांस लेती है
डोगरी संस्कृति की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसकी भाषा बोली ही नहीं जाती, गाई और नाची भी जाती है। लोकनृत्य
‘कुड्ड’ में तालबद्ध थिरकन, ‘फुमणिया’ गीतों में प्रेम की कोमलता और
‘घोड़ा नाच’ में वीरता — सब कुछ भाषा के माध्यम से ही जीवित है।

विवाह में गाया जाने वाला लोकप्रिय गीत — “सुआणिएं, मेहँदी रंग ला दे नी…”
प्रतीक्षा, प्रेम, बनावट और आशा को अद्भुत सामंजस्य में व्यक्त करता है। उधर युद्ध और पराक्रम के स्थल पर वही भाषा
उद्घोष बन जाती है — “डोगरा जांबा ज़िंदाबाद!” यह केवल नारा नहीं,
बल्कि आत्मगौरव और सांस्कृतिक पहचान का संकल्प है।
डोगरी साहित्य — भावनाओं की धरोहर
डोगरी साहित्य लंबे समय तक मौखिक परंपरा के सहारे जीवित रहा। परंतु समय के साथ कवियों और लेखकों ने इसे लिपि में
सहेजा और विश्व साहित्य में सम्मान दिलाया। डोगरी साहित्य को ऊँचाई देने वाले प्रमुख नाम हैं —
पद्मश्री शिवनाथ, शिक्षासार पंडित घंटू शर्मा, कर्ण सिंह, मोहन सिंह और अनेक अन्य साहित्यकार।
कवि दीनू चौधरी की पंक्ति — “डुग्गर दा हर रत्ता कण, मेरे दिल च बस्सया रैंदा।”
भाषा और मिट्टी के अनंत प्रेम की सबसे सुन्दर व्याख्या है।
डोगरी भाषा की संरचना — भाव और व्याकरण का संतुलन
भाषाई अध्ययन के अनुसार डोगरी में ध्वनि गूंजदार और स्पष्ट, शब्द संरचना संक्षिप्त लेकिन प्रभावी, वाक्य रचना
प्रवाहपूर्ण और भाव अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष होती है। गीतात्मकता लगभग हर संवाद में दिखाई देती है। डोगरी के शब्द
न केवल अर्थ व्यक्त करते हैं बल्कि संबंध भी रचते हैं — जैसे जिगरें (प्यारे),
पुतर (बच्चे), मे्राह (मेरा), भइया (भाई),
बंदा (सज्जन)।
टेबल कंटेंट और सामाजिक बिंदुओं की गहन व्याख्या
पहले जिस सारणी में भाषाई तत्व दर्शाए गए थे — ध्वनि, शब्द संरचना, वाक्य रचना, भाव अभिव्यक्ति और गीतात्मकता —
उन्हें जब विश्लेषित रूप में देखा जाए तो स्पष्ट होता है कि डोगरी की ध्वनियों में प्राकृतिक गूंज है, जो पहाड़ी
भूगोल और प्रतिध्वनि की वजह से विकसित हुई। शब्द आकार में छोटे पर अर्थ में बल वाले हैं, जिससे अभिव्यक्ति सहज और
प्रभावी हो जाती है। वाक्य रचना सरल है, जो डोगरा समाज की सादगी और स्पष्टता के मूल स्वभाव को दिखाती है।
भाव अभिव्यक्ति में सम्मान और अपनत्व का संतुलन गहरा दिखाई देता है, जो किसी भी रिश्ते को केवल औपचारिकता तक सीमित
नहीं रहने देता। अंततः गीतात्मकता वह तत्व है जो डोगरी को सामान्य बोलचाल की जगह जीवन की धुन बना देती है —
इसलिए यह भाषा संवाद में भी संगीत की तरह बहती है।
इसी प्रकार सामाजिक पक्ष को देखें तो डोगरी समाज में सम्मान केवल शब्दों से नहीं बल्कि आवाज़ के स्वर और देखभाल के
भाव से पहचाना जाता है। सम्बोधन में “तुस्सी, जीजी, पुतर, भइया” जैसे
शब्द रिश्तों को भाषा नहीं, अनुभूति में बदल देते हैं। पड़ोसियों को परिवार जैसा मानना और सामुदायिक पर्वों में
सामूहिक सहभागिता डोगरा संस्कृति की असाधारण विशेषता है। दुख और सुख दोनों को साझा करने की परंपरा समाज को मजबूत
और विघटन से दूर रखती है।
हास्य और संवाद के माध्यम से तनाव कम करने की प्रवृत्ति जीवन को हल्का और आत्मीय बनाती है। बुजुर्गों और युवाओं के
बीच संवादात्मक सेतु सामाजिक स्थिरता को कायम रखता है। इसी कारण डोगरी समाज में संबंध टूटते नहीं, मजबूत होते हैं।
डोगरी का वर्तमान और भविष्य
ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में जहाँ कई क्षेत्रीय भाषाएँ पहचान के संकट से गुजर रही हैं, वहीं डोगरी भी ऐसी चुनौती
महसूस कर रही है। कई युवा इसे समझते हैं पर बोलने में संकोच करते हैं। फिर भी हाल के वर्षों में पुनर्जागरण की
स्पष्ट लहर दिखाई देती है — स्कूलों में डोगरी शिक्षा, विश्वविद्यालयों में शोध, लोकगीतों और नृत्यों की राष्ट्रीय
पहचान, युवाओं का साहित्य और संगीत में जुड़ाव — यह आश्वस्त करता है कि यह सभ्यता भविष्य में और मज़बूती से उभरेगी।
भाषा के अस्तित्व का सार यही है कि वह बोली जाए, महसूस की जाए और आगे बढ़ाई जाए। जहाँ अपनत्व और आत्मीयता हो,
वहाँ भाषा कभी नहीं मरती।
निष्कर्ष — डोगरी: बोली नहीं, जीवन का अनुभव
डोगरी को केवल भाषा कहना उसके विस्तार को छोटा करना है। यह सभ्यता है, संस्कृति है, इतिहास है, पहचान है और
भावनाओं का तीर्थ है। इसमें युद्ध की गर्जना भी है, माँ की लोरी भी है, प्रेम का लय भी है, और पर्वों की खुशियाँ भी।
यही कारण है कि डोगरी को परिभाषित करने के लिए एक ही वाक्य पर्याप्त है —
डोगरी — बोली नहीं, जीवन का अनुभव है; शब्द नहीं, अपनत्व की स्मृति है।
विभिन्न श्रोतों से जानकारी लेकर अपने शब्दों में लिखा गया है। ©समाचार दर्पण
कुल मिलाकर लेख बढ़िया है, मगर इसे जब कोई खालिस डोगरा व्यक्ति यानि डुग्गर प्रदेश जम्मू का वासी पढ़ेगा तो यह समझने में देर नहीं लगाएगा कि लेखक डोगरा यानि डुग्गर प्रदेश से संबंध नहीं रखता। फिर भी प्रयास की सराहना करनी पड़ती है।