संतोष कुमार सोनी के साथ धर्मेन्द्र की रिपोर्ट
बुंदेलखंड का बांदा जिला आज जिस समस्या से सबसे अधिक पीड़ित है, वह गरीबी, बेरोज़गारी या सूखा नहीं — बल्कि अवैध बालू खनन है। नदियों में बहती रेती सुनहरी दिखती है, लेकिन इस चमक के पीछे छिपी सच्चाई इतनी काली है कि इसका सामना करने की हिम्मत प्रशासन, सरकार और व्यवस्था सभी में कम पड़ती दिखाई देती है। सवाल सिर्फ इतना नहीं कि खनन माफिया इतने ताकतवर कैसे हो गए, असली सवाल यह है — कौन उन्हें ताकत देता है, कौन उनकी ढाल बनता है और आखिर जनता कब तक इस भय में जीती रहेगी?
बांदा के खेतों, गांवों और सड़कों पर दौड़ते भारी डंफरों को देखकर पहली नज़र में लगता है कि यह सिर्फ एक व्यवसाय है। लेकिन सच्चाई यह है कि यह व्यवसाय नहीं — संगठित अपराध का उद्योग है, और उसकी जड़ें गांव से लेकर सत्ता के गलियारों तक फैली हुई हैं।
🌑 क्यों बांदा अवैध खनन का सबसे बड़ा केंद्र बना?
बांदा की भौगोलिक संरचना में यमुना, केन और बागेन नदियों के विस्तृत रेतीले तट हैं। इन नदियों की रेती की मांग उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली तक है। निर्माण बाजार में बालू का दाम जितना बढ़ा, उतना ही इसकी तिजारत लाभ का असीमित साधन बन गई।
सरकार ने खनन व्यवस्था को नियमों के तहत संचालित करने की कोशिश की —
नीलामी, पट्टे, सरकारी मूल्य, सीमा, और परिवहन नियंत्रण — सबकुछ बनाया गया। लेकिन लाभ ने पूरे ढांचे को ध्वस्त कर दिया। फायदा इतना बड़ा कि — कानून की सीमाएँ माइनिंग के मुकाबले छोटी पड़ गईं।
प्रशासनिक हस्तक्षेप व्यवसाय का हिस्सा बन गया
राजनीति का संरक्षण सुरक्षा कवच में बदल गया। यही कारण है कि बांदा में अवैध खनन रोकने के प्रयासों से नहीं, संरक्षण से आगे बढ़ा।
ग्रामीणों में किस तरह भय और आतंक का माहौल फैला दिया गया
बांदा के ग्रामीण इलाकों में रात का मतलब शांति नहीं, भय का समय है। जैसे ही अंधेरा फैलता है, मशीनों और डंफरों की गड़गड़ाहट शुरू हो जाती है। यह सिर्फ आवाज़ नहीं — शक्ति प्रदर्शन है।
अवैध खनन माफियाओं के आतंक की तस्वीर इस प्रकार है:
खेतों को काटकर ट्रकों के लिए जबरन रास्ता बनाना। विरोध करने वाले किसानों को धमकाना, गांव के युवाओं को धन देकर गैंग में शामिल कर लेना, आवाज़ उठाने वालों को नीचा दिखाने, पीटने या फंसाने की धमकी, पुलिस में शिकायत करने वालों को “चुप रहने” की सलाह। दर्द तो यह है कि गांव वाले सत्य जानते हैं, लेकिन फिर भी बोलते नहीं। क्योंकि सिस्टम डर से ज्यादा सुरक्षा नहीं देता।
गांव-गांव में सबसे अधिक सुना जाने वाला वाक्य यही है —
“यह काम मत छुओ… ये लोग जान लेने से भी पीछे नहीं हटते।”
🩸 डंफरों के नीचे मौतें — पर न्याय नहीं मिलता
डर की सबसे निर्दयी तस्वीर सड़क पर दिखती है। खनन इलाकों में बच्चों, बुजुर्गों, महिलाओं और राहगीरों का डंफरों से कुचलकर मारे जाना आम बात बन चुका है। लेकिन इसके बाद क्या होता है?
चालक फरार, ट्रक किसी “अज्ञात” मालिक का, FIR नहीं या कमजोर धाराएँ, परिजनों को मुआवज़ा तक नहीं, एक मां जिसने अपने बेटे को स्कूल जाते समय डंफर के नीचे जाते देखा, उसके शब्द आज भी गांव में सुनाए जाते हैं —
“रेत लूटने वाले मेरे बेटे को लूट ले गए, पर कोई न्याय देने वाला नहीं आया।”
यह घटना अकेली नहीं। मौतें होती हैं, खबरें छपती हैं, शोर होता है — और फिर जीवन चुप हो जाता है, और खनन फिर शुरू हो जाता है।
🚧 सड़कें, खेत और फसलें — खनन की बलि
खनन के कारण ग्रामीण जीवन तीन मोर्चों पर टूट चुका है:
- सड़कें तबाह
डंफरों के अत्यधिक भार से सड़कें मिनटों में गड्ढों में बदल जाती हैं। गांव के अंदर 60 टन तक भार ले जाने वाले डंपर चलते हैं — यह सरकारी अनुमति से कई गुना ज्यादा है। - फसलें बर्बाद
मशीनों और डंफरों से खेतों के मेड़ टूट जाते हैं। सिंचाई के रास्ते नष्ट हो जाते हैं, फसलें कुचल जाती हैं। किसान की पूरी मेहनत, लागत और उम्मीद — सब रेत में मिल जाती है। - जमीन की उर्वरता नष्ट
नदियों की दिशा बदलने और रेती के अत्यधिक दोहन से भूमि बंजर होने लगी है। खुले गड्ढे लंबे समय तक खतरनाक बने रहते हैं।
एक किसान की बात इस दर्द को परिभाषित करती है —
“फसल भी जाएगी, खेत भी टूटेगा और बोलेंगे तो जान भी जाएगी। क्या बचा मेरे पास विरोध करने के लिए?”
📌 क्या माफियाओं के खिलाफ केस दर्ज हुए हैं? — हकीकत कड़वी है
सरकारी अभिलेखों में कार्रवाई है लेकिन वास्तविकता में न्याय नहीं। कई बार छापेमारी होती है, डंफर जब्त होते हैं, ड्राइवर गिरफ्तार होते हैं, लेकिन इस कहानी का अंत हमेशा एक जैसा होता है — मुख्य माफिया नहीं पकड़े जाते। पट्टा धारक और मास्टरमाइंड सूची में नहीं आते।
केस ऐसे लिखे जाते हैं कि आरोपी आराम से जमानत पर छूट जाएं। मामला अदालत के बजाय चालान प्रक्रिया में बदल दिया जाता है ताकि आंकड़ों में कार्रवाई दिखती रहे।
सरकारी रिकॉर्ड और जमीन की सच्चाई के बीच का अंतर यही बताता है —कार्रवाई अवैध खनन पर नहीं, कार्रवाई की खबर पर होती है।
⚙ अवैध खनन का संचालन तंत्र — यह कैसे चलता है?
बांदा का अवैध खनन एक बहुस्तरीय, पेशेवर, संगठित नेटवर्क है: वित्तीय मॉडल अवैध खनन के माध्यम से सामान्य आय की तुलना में कई गुना अधिक मुनाफा, जो इस पूरे नेटवर्क की ईंधन है।
राजनीतिक संरक्षण — माफियाओं की सबसे बड़ी ताकत पुलिस नहीं, संरक्षण है। चुनावी धन की आपूर्ति खनन माफियाओं को “अस्पृश्य” बना देती है।
ऑपरेशन तंत्र — रात में तय टाइमिंग, सैकड़ों डंफरों की लाइन, नदी से गांव तक तय ट्रांसपोर्ट रूट, चेकपोस्ट से पहले सूचनाएँ, अवैध ओवरलोडिंग, यह सब इतनी सटीकता से चलता है कि रेड होते हुए भी “मशीनें बंद” करने का ऐलान पहले ही पहुंच चुका होता है।
सामाजिक नियंत्रण —
गांव में डर फैलाने के लिए गुर्गों का इस्तेमाल किया जाता है। युवाओं को लालच देकर गैंग का हिस्सा बनाया जाता है। पत्रकार, RTI कार्यकर्ता और जागरूक किसान हमेशा खतरे में रहते हैं।
यह नेटवर्क मुनाफा + संरक्षण + भय पर आधारित है। इसमें एक हिस्से की कमी भी अवैध खनन को खत्म कर सकती है — लेकिन सबसे मजबूत हिस्सा “सुरक्षा कवच” है और वही इस पूरी व्यवस्था को जिंदा रखता है।
🔥 कौन सुरक्षित और कौन संकट में? — बड़ा विरोधाभास
बांदा में अवैध खनन की सबसे दुखद विडंबना यही है कि, जो कानून तोड़ते हैं → सुरक्षित, जो कानून का पालन करते हैं → असुरक्षित, ग्रामीण विरोध करें → खेत नष्ट, पत्रकार रिपोर्ट लिखें → धमकी या मुकदमा, RTI दायर करें → पूछताछ और उत्पीड़न, पुलिस ईमानदार अधिकारी → ट्रांसफर, यानी न्याय की रक्षा करने वालों को भय और अवैधता को बढ़ाने वालों को सुरक्षा प्राप्त है।
इसी को लोग खामोश शब्दों में कहते हैं —
“यहां सत्ता के खिलाफ बोलना खनन के खिलाफ बोलने जैसा होता है, और खनन के खिलाफ बोलना मौत को न्योता देने जैसा।”
🌅 आखिरी प्रश्न — क्या समाधान संभव है?
समाधान कठिन है, असंभव नहीं। लेकिन पहले राजनीतिक लाभ खत्म हो, तब अपराध खत्म होगा।
संभावित समाधान, हर वाहन पर GPS अनिवार्य, रात में खनन और परिवहन पर पूर्ण प्रतिबंध अवैध खनन में शामिल अधिकारी और राजनेता पर मुकदमा, ग्रामीण क्षेत्रों में सीमित भार वाले रूट, मौत होने पर अनिवार्य मुआवज़ा और फास्ट-ट्रैक कोर्ट लेकिन सबसे महत्वपूर्ण —
राजनीतिक संरचना और माफिया गठजोड़ का अंत, अवैध खनन तब तक जारी रहेगा जब तक मुनाफा कानून से बड़ा बना रहेगा।
बांदा की रेती केवल नदी में नहीं, अधिकारों, न्याय, सुरक्षा और व्यवस्था को भी बहाकर ले जा रही है।
जब नागरिक डर में और सत्ता लाभ में होती है तो लोकतंत्र का सबसे बड़ा मज़ाक होता है। आज बांदा के गांव चीखकर नहीं, चुप रहकर रो रहे हैं और यह सबसे खतरनाक अवस्था है क्योंकि जब जनता बोलना बंद कर दे, तो सत्ता और अपराध दोनों सबसे मजबूत हो जाते हैं।
और इसलिए बांदा की मिट्टी आज कह रही है
“यह लड़ाई रेत की नहीं, जीवन की है।
अगर न्याय लौट आया, तो रेत भी नदी में बहेगी — लेकिन अगर न्याय नहीं लौटा, तो इंसान मिट्टी में मिल जाएगा।”
क्लिकेबल सवाल-जवाब
प्रश्न 1: बांदा में अवैध बालू खनन को इतनी गंभीर समस्या क्यों माना जा रहा है?
क्योंकि यहां अवैध बालू खनन केवल आर्थिक अनियमितता नहीं बल्कि संगठित अपराध का उद्योग बन चुका है, जिसकी जड़ें ग्रामीण समाज से लेकर सत्ता के गलियारों तक फैली हैं। इसका सीधा असर ग्रामीणों की सुरक्षा, किसानों की जमीन, पर्यावरण, सड़कों और न्याय व्यवस्था पर पड़ रहा है।
प्रश्न 2: ग्रामीण सबसे ज्यादा किस तरह प्रभावित हो रहे हैं?
ग्रामीणों के खेतों को काटकर डंफरों के लिए रास्ते बनाए जा रहे हैं, फसलें कुचल रही हैं, मेड़ और सिंचाई व्यवस्था नष्ट हो रही है। विरोध करने पर उन्हें धमकियां मिलती हैं, झूठे मुकदमों या हमलों का डर बना रहता है, जिसके कारण वे सच जानते हुए भी खुलकर बोल नहीं पाते।
प्रश्न 3: डंफरों से होने वाली मौतों के बाद भी न्याय क्यों नहीं मिल पाता?
अक्सर हादसे के बाद चालक फरार हो जाता है, ट्रक के मालिक का नाम “अज्ञात” दिखाया जाता है, कमजोर धाराओं में FIR दर्ज होती है या कई बार मुकदमा ही नहीं हो पाता। परिजनों को मुआवज़ा भी नहीं मिलता और मुख्य माफिया कानून के दायरे से बाहर ही रहते हैं।
प्रश्न 4: अवैध खनन का संचालन तंत्र किन स्तंभों पर टिका है?
यह पूरे नेटवर्क मुनाफा, राजनीतिक संरक्षण और भय पर आधारित है। अत्यधिक मुनाफा इसकी ईंधन है, राजनीतिक संरक्षण इसे सुरक्षा कवच देता है और ग्रामीणों, पत्रकारों व RTI कार्यकर्ताओं में फैलाई गई दहशत इस तंत्र को चुनौतीहीन बनाए रखती है।
प्रश्न 5: रिपोर्ट में बताए गए संभावित समाधानों में मुख्य बातें क्या हैं?
हर वाहन पर GPS, रात में खनन व परिवहन पर प्रतिबंध, अवैध खनन में शामिल अधिकारियों व नेताओं पर मुकदमा, सीमित भार वाले रूट, हादसे पर फास्ट-ट्रैक कोर्ट के माध्यम से न्याय और सबसे महत्वपूर्ण, राजनीतिक संरचना और माफिया गठजोड़ का अंत — यही स्थायी समाधान की दिशा में जरूरी कदम बताए गए हैं।
रिपोर्ट ©समाचार दर्पण संपादकीय टीम द्वारा संपादित किया गया है।