संजय सिंह राणा की रिपोर्ट
22 जुलाई 2007… बुंदेलखंड के झलमल जंगल में गड़गड़ाती गोलियों की आवाजें कई किलोमीटर तक गूंज रही थीं। आसमान बारूद से भरा हुआ था, मिट्टी हिल रही थी और चट्टानों से टकराती गोलियों की गूंज पूरे इलाके को दहशत से भर दे रही थी। चारों तरफ बुलेटप्रूफ जैकेट पहने STF कमांडो, ड्रोन, वायरलेस सेट और जंगल को घेरे रॉबिनहूड जैसी जटिल योजना — और बीच में घिरा हुआ था वो आदमी, जिसके नाम से बड़े-बड़े ठेकेदार रातों को नींद में चीख उठते थे, पुलिस थाने के अफसर तबादले मांगते थे, लेकिन वही आदमी बुंदेलखंड के गरीबों के लिए भगवान, मसीहा और न्याय का प्रतीक माना जाता था।
उस आदमी का नाम था — ददुआ। पूरा नाम — शिव कुमार पटेल उर्फ ददुआ।
सरकार जिसकी तलाश में करीब 100 करोड़ रुपए से भी अधिक खर्च कर चुकी थी, देश की सबसे खतरनाक वांटेड लिस्ट में जिसका नाम दर्ज था, और जिसके नाम 200 से ज्यादा हत्याओं का आरोप था। वह एक डकैत तो था ही, लेकिन उसके किस्से इतने रहस्यमय और विरोधाभासी थे कि उसे समझ पाना शासन और समाज दोनों के लिए सबसे बड़ी पहेली रहा।
1955 — एक बच्चे का जन्म और एक सामान्य परिवार
बुंदेलखंड की धूल भरी पगडंडियों, कंटीले जंगलों और जलती दोपहरों के बीच बसने वाला छोटा-सा गांव दवेदली। वहीं 1955 में जन्म हुआ शिव कुमार का।
पिता गरीब किसान थे, परिवार सामान्य था, बचपन में किसी बड़े अपराध का या मानसिक विकृति का कोई संकेत नहीं — यानी तस्वीर सामान्य थी।
लेकिन झगड़ों और रंजिशों को संभालने की ताकत समाज में नहीं थी, और सामंती व्यवस्था का ज़हर ऊपरी सतह पर शांत दिखते हुए भी भीतर-ही-भीतर boiling point पर था।
1972 — वह दिन जिसने सब बदल दिया
कहा जाता है कि शिव कुमार की जीवनरेखा उस दिन पलट गई जब उसके पिता की हत्या हुई। दावा है — एक जमींदार जगन्नाथ ने जमीन विवाद में क्रूरता की सारी सीमाएं पार कर दीं। पिता को नंगा करके पूरे गांव में घुमाया गया और फिर कुल्हाड़ी से काटकर मार दिया गया। तब शिव कुमार गांव में नहीं था।
लेकिन जब यह सच्चाई उसके कानों तक पहुंची तो उसके अंदर का सामान्य बच्चा, सामान्य इंसान, सब मर चुका था। वह बुझा नहीं — विस्फोटित हो गया। वह कुल्हाड़ी लेकर रायपुर गया और जमींदार जगन्नाथ समेत आठ अन्य लोगों को काटकर मौत के घाट उतार दिया। एक ही दिन में नौ हत्याएं।
जिस रात शिव कुमार बीहड़ों की तरफ भागा — उसी रात डरावने दंतकथाओं जैसे डकैत ‘ददुआ’ का जन्म हो गया।
बीहड़ — पुलिस की सबसे बड़ी शिकस्त, अपराध की सबसे बड़ी शरणस्थली
बुंदेलखंड के बीहड़ सिर्फ जंगल नहीं, बल्कि किले हैं — कांटों, चट्टानों और पथरीली सुरंगों का जाल। यहां से जिसे जंगल ने स्वीकार कर लिया, उसे पुलिस पकड़ नहीं सकती — यह सोच लंबे समय तक सही भी साबित होती रही। ददुआ भी इन्हीं बीहड़ों का हिस्सा बन गया।
लेकिन पहली हत्या के बाद कहानी यहीं खत्म नहीं हुई — बल्कि असली आग यहीं से शुरू हुई। उसने बंदूक उठाई, अपनी गैंग बनाई और जमीन, जाति, प्रतिशोध और अस्तित्व की राजनीति में प्रवेश कर गया।
डर का साम्राज्य — गरीबों के रक्षक, अमीरों के शत्रु
ददुआ का शासन असाधारण था जिससे लगान वसूला जाता था, उससे सुरक्षा भी दी जाती थी। जिससे पैसा लिया जाता था, उसके वोट बैंक को भी नियंत्रित किया जाता था। जिससे दुश्मनी की जाती थी, उसकी औकात नहीं रहती थी।
लेकिन दूसरी ओर सोचिए उस जंगल में रहने वाले गरीब परिवार को, जिसके खेत पर गुंडे कब्जा कर लेते थे, थाना रिश्वत मांग लेता था और अफसर कहता था “कोर्ट जाओ”। उनके लिए ददुआ गुंडा नहीं, न्याय था।
इसीलिए जहां बड़े ठेकेदार, व्यवसायी और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी उससे थर्राते थे, वहीं उसी बुंदेलखंड के कई गांवों में आज भी बच्चे कसम खाकर कहते हैं “ददुआ गरीबों के लिए भगवान था” और यह विरोधाभास ही उसकी कहानी को भयावह बनाता है।
सत्ता और अपराध — दोनों का खेल
ददुआ पर आरोप है कि वह सत्ता के साथ भी रहा — लेकिन हमेशा अधीन होकर नहीं। उसके दौर में चुनाव में जीत का बड़ा फॉर्मूला यही था कौन ददुआ के साथ है और कौन उसके खिलाफ।
पुलिस और खुफिया एजेंसियां उसे सिर्फ अपराधी कहती रहीं, लेकिन राजनेता उसे “भूमि/समाज व्यवस्था का परिणाम” बताकर इस्तेमाल करते रहे। लोग कहते हैं वह सत्ता का औजार भी था, और सत्ता का दुश्मन भी।
100 करोड़ की तलाश — सरकार की सबसे महंगी मैनहंट
ददुआ के लिए
- ✔ हेलीकॉप्टर तक मोर्चे पर लगाए गए
- ✔ जंगलों में महीनों तक प्रहार अभियान चला
- ✔ पुलिस के हजारों जवान उतारे गए
- ✔ इनामी रकम का कुल हिसाब करोड़ों में गया
पुलिस के दस्तावेज़ बताते हैं — ददुआ को खत्म करने के लिए सरकार ने लगभग 100 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च किए।
इतनी intense खोज किसी आतंकवादी, किसी गैंगस्टर या किसी विदेशी संगठन के लिए भी शायद ही कभी हुई हो।
ददुआ की दुनिया — रिश्ते, फैसले और मौत
कहते हैं कि ददुआ के फैसले किसी पंचायत की तरह होते थे। विवाद लेकर लोग आते थे। फैसला वहीं सुनाया जाता था। कई बार न्याय की तरह, कई बार फांसी की तरह। वह पढ़ा-लिखा नहीं था, लेकिन मनुष्य को पढ़ने में अद्भुत समझ रखता था — कौन वफादार है, कौन मुखबिर बनेगा, कौन कब धोखा देगा। यही वजह थी कि दसियों मुखबिर पकड़े गए और मार दिए गए।
और फिर वो दिन… 22 जुलाई 2007
झलमल पहाड़ियों का जंगल, सुबह के करीब 4 बजे STF ने घेरा कसा। ऑपरेशन घंटों तक चला। ददुआ ने खामोश surrender नहीं किया — उसने अंत तक लड़ाई की। गोलियों की बरसात और घना धुआं… और एक दंतकथा गिर गई।
पोस्टमोर्टम की तस्वीरें आज भी बुंदेलखंड की स्मृतियों में जमी हैं — कई लोग खुश हुए, कई गरीब गांवों में मातम छा गया।
ददुआ मारा गया लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। मौत के बाद — सत्ता में प्रवेश। विरोधाभास देखिए — जीवन में अपराधी कहा गया, मौत के बाद उसका परिवार विधानसभा और संसद में पहुंचा।
उसके भाई, बेटे, भतीजे राजनीति में सक्रिय हुए और सफल भी हुए। यानी — ददुआ को खत्म किया गया लेकिन ददुआवाद — सत्ता, जाति, जमीन और प्रतिशोध की राजनीति — खत्म नहीं हुई।
ददुआ — सवाल सिर्फ अपराध का नहीं, व्यवस्था का भी है
ददुआ अपराधी था — यह विवाद का विषय नहीं। लेकिन सवाल यह भी है क्या ददुआ पैदा हुआ था? या समाज, सत्ता, उत्पीड़न और असमान न्याय व्यवस्था ने उसे पैदा किया?
एक न्यायप्रिय व्यवस्था वाला समाज शायद शिव कुमार को किसान बनाकर रखता। ऊपर से थोपे गए अपमान, उत्पीड़न, और प्रतिशोध ने उसे अपराध के सबसे बड़े प्रतीक में बदल दिया। इसलिए उसकी कहानी सिर्फ अपराध की कहानी नहीं वह विफल न्याय व्यवस्था की भयावह मिसाल भी है।
ददुआ — एक निष्कर्ष
अगर न्याय समय पर मिलता, अगर व्यवस्था कमजोर की आवाज़ सुनती, अगर सत्ता गरीबों का इस्तेमाल न करती, तो शायद ददुआ कभी पैदा ही नहीं होता।
लेकिन वह पैदा हुआ और इतना बड़ा हो गया कि सरकार को 100 करोड़ रुपये और एक दशक से अधिक का समय उसे खत्म करने में खर्च करना पड़ा।
उसका अंत हुआ —लेकिन वह चर्चा, शोध और विवाद का विषय बना रहेगा। क्योंकि ददुआ सिर्फ एक आदमी नहीं था — एक प्रणाली की प्रतिक्रिया था।