बुंदेलखंड के पर्वतीय एवं पठारी प्रायद्वीप में बसा पाठा क्षेत्र — जिसे अक्सर मध्य एवं उत्तर भारत के पिछड़े हुए इलाकों में गिना जाता है — विकास के तमाम वायदे सुन चुका है। लेकिन हकीकत यह है कि “विकास” नाम के तमाम मंचों और योजनाओं के बावजूद, पाठा का आम आदमी अब भी भूख, प्यास, गरीबी और पलायन की त्रासदी से जूझ रहा है। आइए — आँकड़ों, धूप-छाँव और प्रचार-वास्तविकता के बीच इस क्षेत्र की वास्तविक स्थिति और उसकी ज़रूरतों पर गौर करें।
भूगोल, संसाधन और “विकास-क्षमता” की कहानियाँ
बुंदेलखंड लगभग 70,000 वर्ग किलोमीटर में फैला एक बड़ा क्षेत्र है — उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के मिलाकर 13 जिलों (उत्तर प्रदेश: झांसी, चित्रकूट, ललितपुर, बांदा आदि; मध्य प्रदेश: दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर, दमोह, सागर, पन्ना आदि) को यह क्षेत्र समाहित करता है।
भू-सम्पदा के मामले में पाठा/बुंदेलखंड किसी से कम नहीं है — यहाँ ग्रेनाइट, सिलिका, बालू, डोलोमाइट, बॉक्साइट जैसे खनिजों के भंडार हैं। रेत-बालू, चिकनी मिट्टी, चूने-पत्थर आदि निर्माण सामग्री के स्रोत भी पर्याप्त हैं।
जंगली फल-फूल, जंगलों की लकड़ी, महुआ, बेल, गोखरु आदि आयवर्गीय-वनस्पतियाँ — पारंपरिक जीवन-निर्भरता के साधन — भी उपलब्ध हैं। इन तमाम प्राकृतिक तथा खनिज संसाधनों के आधार पर, पाठा क्षेत्र के लिए “स्वावलंबी, समृद्ध और बहुआयामी विकास” की एक मजबूत नींव बुनना संभव है।
असली तस्वीर — गरीबी, सूखा, भूख और पलायन
लेकिन आंकड़े बताते हैं कि आज भी बुंदेलखंड — और विशेषकर पाठा — भारत के सबसे पिछड़े हुए इलाकों में से है। इस क्षेत्र में कृषि-उत्पादकता बहुत कम है, जल-सिंचाई सुविधाएं अधूरी, औद्योगिक विकास नगण्य और कुटीर उद्योग मृतप्राय हैं; नतीजतन रोजगार व आय के अवसर बेहद सीमित हैं।
खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति चिंताजनक है: बच्चों में कुपोषण (underweight) का प्रतिशत 45.4% और “वेस्टेड” बच्चों का 29.5% है।
मानसूनी अस्थिरता और बढ़ती सूखा-आवृत्ति: 2004–08 में लगातार सूखे; 2009–2015 के बीच बार-बार खराब बरसात — ये घटनाक्रम इस क्षेत्र के लिए आम हो गए हैं। जल-संकट, खेतों की बंजरता और कृषि असफलता यहाँ रोजमर्रा की समस्या है।
जीवनयापन की बुनियादी सुविधाएं (स्वच्छ पेयजल, नियमित सिंचाई, सुरक्षित आवास, स्वास्थ्य-सेवाएं) बड़ी संख्या में गांवों में अभी भी नहीं पहुंच पाई हैं। इस वजह से, गांवों से पलायन (seasonal/distress migration) आज भी आम है — खासकर कृषि असफलता के बाद लोग मजदूरी, पीने के पानी और रोज़गार की तलाश में अन्य राज्यों या शहरों की ओर मजबूर होते हैं।
इस प्रकार, जहाँ एक ओर संसाधन और संभावनाएँ पड़ी हुई हैं, वहीँ दूसरी ओर “विकास” उनकी तक़दीर बदलने में नाकाम रहा है।
अब तक हुए प्रयास — योजनाएँ, मंच, घोषणाएँ लेकिन…
पाठा-बुंदेलखंड के लिए कई विकास-पैकेज, सरकारी योजनाएँ और सामाजिक संगठनों की पहल होती रही हैं। Bundelkhand Industrial Development Authority (BIDA) — 2023 में गठित — का लक्ष्य औद्योगिक विकास और निवेश आकर्षित करना है, जिससे रोजगार और जीवन स्तर में सुधार हो सके।
सरकारों ने विभिन्न “पाठा/बुंदेलखंड पैकेज” घोषित किए, जल-सिंचाई परियोजनाओं, सड़क, बुनियादी ढाँचे (भूमि, विद्युत, आवास), कृषि-विकास और सामाजिक कल्याण योजनाओं की बात की गयी। कुछ गैर-सरकारी व सामाजिक मंचों / CSOs की पहलें भी हुई, जिनका उद्देश्य क्षेत्रीय विकास, नागरिक जुड़ाव और अधिकार आधारित सुधार था।
फिर भी असली सुधार क्यों नहीं?
अधिकांश योजनाएँ और पैकेज घोषणाओं तक सीमित रह गए — जमीन अधिग्रहण, औद्योगिक निवेश, बांध/सिंचाई योजना, बुनियादी ढाँचा: इन सबकी गति धीमी रही या अधूरी रही। उदाहरण के लिए, कई बांधों में सिल्ट जमा हो गया, जलभंडारण कम हुआ, जिससे पहले की अपेक्षित सिंचाई क्षमता घट गई।
“सरकारी या सामाजिक बैनर” तले काम करने वाले सुधार मंच अक्सर स्थानीय असंतुष्टि, भू-स्वार्थ, लापरवाही या प्रशासनिक सुस्तता की वजह से असरदार नहीं पाए गए। सामाजिक असमानता, जमीनी शक्ति संरचना (जमींदार, दलाल, गांव व गांव के प्रभावशाली लोग) के कारण लाभ अक्सर वंचितों तक नहीं पहुंच पाया।
जल संकट, भू-जल का गिरता स्तर, पर्यावरणीय अस्थिरता — इन प्राकृतिक चुनौतियों का समाधान भी योजनाबद्ध तरीके से नहीं हुआ। बारिश-निर्भर खेती, अस्थिर जल स्रोत और बंजर भूमि — इन सबने कृषि-निरभरता की नींव को कमजोर कर दिया।
खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य, पोषण व शिक्षा जैसे मूलभूत मानव विकास संकेतकों में उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ — जिसके कारण सामाजिक विकास भी पिछड़ता रहा। कहने का मतलब — केवल योजनाओं की घोषणा करना पर्याप्त नहीं; ज़मीनी हकीकत में उनकी प्रभावशीलता, पारदर्शिता और निगरानी गारंटी जरूरी है।
आज की जरूरतें — पाठा क्षेत्र को सचमुच “विकास” के दायरे में लाने के लिए
पाठा क्षेत्र — जो प्राकृतिक संसाधनों, खनिज संपदा और जैव-विविधता में समृद्ध है — अगर सही दिशा में प्रयासों से जोड़ा जाए, तो यह न सिर्फ उत्तर भारत बल्कि पूरे देश के लिए विकास का मॉडल बन सकता है। इसके लिए कुछ बुनियादी प्राथमिकताएँ तय करनी होंगी।
1. जल व जल-प्रबंधन को सबसे ऊपर रखें
- वर्षा-निर्भर खेती से हटकर, जल संचयन (rain water harvesting), भू-जल पुनर्भरण, नलकूप, छोटे बाँध/तालाब, वाटर-क्यूबिंग आदि पर जोर।
- सिंचाई, पेयजल, खेत व जीवन, तीनों के लिए स्थायी जल-व्यवस्था की योजना और क्रियान्वयन।
2. खनिज व प्राकृतिक संसाधनों का सतत और पारदर्शी उपयोग
- खनिज और बालू-बालूपत्थर जैसे संसाधनों का संवेदनशील, पर्यावरण-अनुकूल और स्थानीय समुदायों के हित में उपयोग।
- स्थानीय युवाओं को खनन, संसाधन प्रबंधन व संबद्ध उद्योगों में रोजगार के अवसर सुनिश्चित करना।
3. कृषि के साथ सह-निर्भर जीविका विकल्प बनाएँ
- कृषि के मौसमी संकट से उबरने के लिए पशुपालन, वानिकी उत्पाद, फूड-प्रोसेसिंग (जैसे फल-बेर, जंगल उत्पादों), हस्तशिल्प, कुटीर उद्योग आदि को प्रोत्साहित करें।
- संस्थागत ऋण, प्रशिक्षण, बाजार और आधारभूत संरचना तक पहुंच संभव बनाएं।
4. औद्योगिक और व्यवसायिक इंफ्रास्ट्रक्चर — लेकिन जमीनी धरातल पर
- औद्योगिक विकास बोर्ड (जैसे BIDA) को वास्तव में जमीन, बिजली, सड़क-कनेक्टिविटी, लॉजिस्टिक, रोजगार-प्रशिक्षण आदि पर काम करना होगा — सिर्फ जमीन अधिग्रहण से कुछ नहीं होगा।
- पर्यावरण के प्रति संवेदनशील, छोटे व मध्यम उद्योगों को बढ़ावा, ताकि बड़े निवेश या बड़े कारख़ानों पर निर्भरता कम हो।
5. मानव विकास — शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, सामाजिक सुरक्षा
- पौष्टिक भोजन, स्वच्छ पानी, स्वास्थ्य सेवाएं, कुपोषण तथा शिक्षा में सुधार — ताकि अगली पीढ़ी को मजबूरी में पलायन न करना पड़े।
- विशेष ध्यान महिलाओं, दलितों, आदिवासी व कमजोर वर्गों पर — ताकि सामाजिक असमानता न बने विकास में बाधा।
6. पारदर्शिता, जनता की भागीदारी और जवाबदेही
- हर योजना/प्रोजेक्ट की जमीनी स्तर पर निगरानी, स्थानीय लोगों की भागीदारी और स्थायी जन-मानस निर्माण।
- केवल बैनर-नाटक या प्रचार-भाषा नहीं, बल्कि ऐसा तंत्र जिसमें “विकास” का मतलब सिर्फ फाइलों में न रह जाए।
प्रचार नहीं, पराधीनता नहीं — असली विकास चाहिए
पाठा क्षेत्र — अपनी भूगर्भीय संपदा, प्राकृतिक संसाधन और सांस्कृतिक-भौगोलिक पहचान के साथ — विकास की अपार संभावना लिए हुए है। लेकिन वर्तमान हालात यह दिखाते हैं कि “विकास” नितांत अधूरा, असंतुलित और अस्थिर रहा है।
विकास के नाम पर बनाये गए मंच, योजनाएँ, घोषणाएँ — यदि सिर्फ बजट और भूमि अधिग्रहण तक सीमित रह जाएँ, तो असली बदलाव नहीं आएगा। असली सुधार तभी संभव है, जब जल, संसाधन, रोजगार, मानव विकास और सामाजिक समानता — इन सभी को एक साथ देखा जाए।
आज ज़रूरत है — ऐसे आत्म-निर्भर, न्याय संगत और स्थायी विकास के मॉडल की, जिसमें पाठा का हर गांव, हर परिवार और हर व्यक्ति — सिर्फ वादा नहीं, बल्कि महसूस करे कि वे “भारत के विकास की धड़कन” हैं।