गोबर कहाँ गया❓ गाय गोबर दे नहीं रही या गाय के गोबर को कोई खा जाता है❓ कौन है वो ❓

गोबर कहाँ गया? करोड़ों का गायब खजाना — सरकारी गौशालाओं में अपशिष्ट या ग्रामीण अर्थव्यवस्था का अपहरण? 

✍️ अनिल अनूप

गाँवों की सुबह की एक आम तस्वीर — आँगन में बंधी गाय, पास ही रखा ताज़ा गोबर, जिसे कभी इंधन भी कहा गया, खेत की खाद भी, और घर की लिपाई भी। वही गोबर आज सरकारी अनुदानों, गौ-संरक्षण नीतियों और योजनाओं के बीच सबसे बड़ा अनकहा प्रश्न बन चुका है — सरकार-संपोषित गौशालाओं में यह गोबर आखिर जाता कहाँ है?

दूध का हिसाब मिलता है, दान का लेखा मिलता है, अनुदान का बजट मिलता है — पर गोबर का डेटा अब भी अदृश्य है।

🟤 क्या गोबर को ‘उत्पाद’ माना ही नहीं जाता?

गौशालाओं की नीतियों और प्रबंधन में आज भी गोबर को “अपशिष्ट” की तरह देखा जाता है, कच्चे माल (Raw Material) या उत्पाद की तरह नहीं। यही वजह है कि:

  • गोबर कितनी मात्रा में निकल रहा है❓
  • कितना खाद बनाया गया❓
  • कितना बायोगैस/सीएनजी उत्पादन हुआ❓
  • बेचकर कितनी आय हुई❓

इन सबका आधिकारिक या केंद्रीकृत रिकॉर्ड मौजूद ही नहीं है। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती — गोबर के गायब होने की कहानी, चारा के आँकड़ों से भी जुड़ती है।

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🍃 महत्वपूर्ण — चारा (Feed/Fodder) के आँकड़ों से गोबर का अनुमान कैसे बनता है

गौशालाओं में चारा की दैनिक आपूर्ति ही यह बताने का सबसे वैज्ञानिक साधन है कि गोबर का वास्तविक उत्पादन कितना होना चाहिए। और यहीं पर एक बड़ा विरोधाभास दिखाई देता है।

एक स्वस्थ वयस्क गाय के लिए, 15–20 किलो हरा चारा प्रतिदिन, 4–5 किलो सूखा चारा / भूसा / कन्सन्ट्रेट प्रतिदिन मानक माना जाता है। यदि दूध उत्पादन अधिक है या नस्ल भारी है, तो यह चारा 40 किलो या उससे अधिक प्रतिदिन तक पहुँच सकता है।

पशुपोषण वैज्ञानिकों के अनुसार, एक दुधारू गाय प्रतिदिन लगभग 8–12 किलो गोबर छोड़ती है, जबकि बेहतर फीड वाले पशुओं में यह मात्रा 14–15 किलो प्रतिदिन तक भी दर्ज की गई है।

अब अनुमान लगाइए — 100 गायों वाली एक सरकारी गौशाला में:

🔹 दैनिक चारा उपयोग → 3,500–4,000 किलो
🔹 गोबर उत्पादन → 800–1,200 किलो प्रतिदिन
➡ यानी 24–36 टन प्रति माह

परंतु हैरत की बात यह है कि — ऐसे “गोबर उत्पादन” का कोई सरकारी रिकॉर्ड नहीं है। अनुदान, दान और चारा की उपलब्धता तो दर्ज होती है — लेकिन गोबर का हिसाब शून्य।

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👉 केंद्रीय प्रश्न यही है — चारा का हिसाब मौजूद है तो गोबर का आँकड़ा कहाँ गायब हो जाता है?

🔥 जहाँ सरकार और व्यवस्था चूक गई — वहीं कुछ राज्य मॉडल बन गए

देश में अधिकांश गौशालाएँ गोबर को सिर्फ सफ़ाई-संबंधी बोझ के रूप में रखती हैं, लेकिन कुछ राज्यों ने इसे रोज़गार और आय में बदलकर दिखाया है।

    • ✔ छत्तीसगढ़ — “गोधन न्याय योजना”
      गोबर ₹2/किलो में खरीदकर खाद, वर्मी कम्पोस्ट, गौ-उत्पाद — अब तक ₹300 करोड़ से अधिक सीधे ग्रामीणों को।

 

    • ✔ उत्तर प्रदेश
      पंचगव्य, ऑर्गेनिक खाद, बायोगैस, गौ-उत्पाद — विशेषकर महिला स्वयं सहायता समूहों को बड़े रोजगार मिले।

 

    • ✔ राजस्थान
      जालोर और जयपुर में CBG प्लांट — कचरे को ऊर्जा और रोजगार में परिवर्तित किया।

 

  • ✔ कर्नाटक
    कई गौशालाओं की 47% आय दूध से नहीं बल्कि गोबर और गौ-उत्पादों से आती है।

यानी समाधान मौजूद है — कमी व्यवस्था की दृष्टि और राजनीतिक इच्छा शक्ति की है।

🧾 तो “गोबर कहाँ गया” का जवाब यही निकलता है

  1. सरकारी गौशालाओं में गोबर को उत्पाद नहीं माना जाता।
  2. गोबर उत्पादन के लिए कोई डेटा सिस्टम मौजूद नहीं है।
  3. चारा की आपूर्ति और अनुदान का रिकॉर्ड मिलता है — लेकिन गोबर का नहीं।
  4. जहाँ गोबर का आर्थिक उपयोग शुरू हुआ वहाँ:
    • गौशालाएँ आत्मनिर्भर हुईं
    • रोजगार पैदा हुआ
    • स्वच्छ ऊर्जा व ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा मिला
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प्रतीक और उत्पादन के बीच छिपे सामाजिक भेद का प्रश्न

यानी गोबर गायब होने की कहानी सिर्फ डेटा की त्रुटि नहीं — ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अपहरण जैसा प्रश्न है।

गोबर को यदि कचरा माना गया — तो वह कचरे की तरह बर्बाद होगा। लेकिन यदि उसे कच्चा माल (Raw Material) माना गया तो वही गोबर बन सकता है:

  • 🔹 बायोगैस
  • 🔹 CBG
  • 🔹 ऑर्गेनिक खाद
  • 🔹 पंचगव्य उत्पाद
  • 🔹 ग्रामीण उद्योग
  • 🔹 महिला व युवाओं के लिए बड़े पैमाने पर रोजगार

अगली बार जब कोई योजना “गौ-संरक्षण” की घोषणा करे — असली प्रश्न यह हो:

💥 गाय बच रही है या नहीं?
💥 और गोबर का हिसाब रखा जा रहा है या नहीं?

क्योंकि जिस दिन गोबर को आर्थिक संपत्ति के रूप में मान्यता मिल गई, उसी दिन गौशालाएँ अनुदानों पर निर्भर नहीं रहेंगी और ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था एक नए युग में प्रवेश कर जाएगी।

लेख में वर्णित आंकड़े और सूचनाओं को लेखक द्वारा विभिन्न स्रोतों से एकत्रित कर शब्दबद्ध किया गया है।

— समाप्त —

1 thought on “<h2 style="font-weight:700; font-size:28px; line-height:1.4; text-align:center;"> <span style="color:#C30000;">गोबर कहाँ गया❓</span> <span style="color:#006E3C;"> गाय गोबर दे नहीं रही या गाय के गोबर को कोई खा जाता है❓ कौन है वो ❓</span> </h2>”

  1. केवल कृष्ण पनगोत्रा

    अनूप जी, आपका लेख यह सोचने पर मज़बूर करता है कि गोबर किसी भी उत्पाद के कच्चे माल की भांति खरीद कर कई उत्पाद तैयार किए जा सकते हैं।
    जो गाएं दूध नहीं देती उन्हें सड़कों पर आवारा छोड़ देने का सिलसिला सालों से हमारे यहां देखा जा रहा है। कर्नाटक में अगर ४७ प्रतिशत आय गोबर से आती है तो आवारा गाएं और बछड़ों को, जिन्हें दुर्घटनाओं में सड़कों पर मरने के लिए छोड़ा जाता है, आय के मुफ्त साधन के रूप में उपयोग किया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि दूध न देने वाली आवारा गाएं और बछड़ों पर भी निवेश किया जा सकता है।
    बहुत बढ़िया लेख, गोबर पर उपयोगी जानकारी हेतु बधाई और शुभकामनाएं।

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