
सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले लोग जानते हैं कि किसी भी विभाग में विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) का अर्थ केवल दस्तावेज़ों की जांच भर नहीं होता। यह वह चरण है जब टाइमटेबल, नींद, घर-परिवार, सामाजिक जीवन और यहां तक कि भावनाएं भी दफ्तर की निर्देश पुस्तिका के नीचे दब जाती हैं। SIR दरअसल वह समय होता है जब फाइलें केवल फाइलें नहीं रहतीं; वे अधिकारी के करियर, भविष्य और आत्म-सम्मान का ताला बनी पड़ी होती हैं।
दफ्तर का बदलता माहौल — SIR शुरू होते ही जीवन की रफ्तार क्यों बदल जाती है
हर सुबह दफ्तर पहुंचते ही सबसे पहले दिखाई पड़ती है वह बेचैनी—कौन सी फाइल पहले पूरी हो, कौन सा आंकड़ा पहले सुधरे, कौन-सा बयान निरीक्षण टीम को भेजा जाए, और कौन-सी कमी अगले ही पल नोटिस में बदल सकती है। कर्मचारियों की आंखें कंप्यूटर स्क्रीन पर होती हैं, लेकिन दिमाग लगातार इस आशंका से भरा होता है कि कहीं एक भूल सबकुछ न उलट दे। SIR का काम हमेशा समय से लड़ते हुए होता है, और समय इस अवधि में कभी साथ नहीं देता—हमेशा पीछा करता है, पुकारता है, दबाव डालता है।
घर देर से पहुँचती थकान — और घर पहुंचकर भी आराम नहीं मिलता
एक सामान्य सरकारी कर्मचारी इस दौरान सुबह दस बजे ड्यूटी शुरू करता है, लेकिन रात कब घर पहुंचता है, यह उसे खुद नहीं पता होता। घर के लोग धीरे-धीरे उसके वापस आने की समय–सीमा पूछना छोड़ देते हैं, और वही कर्मचारी घर जाते हुए मन ही मन यही सोचता रहता है कि कल कौन सी रिपोर्ट पहले तैयार करनी है। थकान केवल शरीर में नहीं होती; वह दिमाग पर चढ़ी रहती है, जैसे कोई अदृश्य भार जिसे उतारना संभव ही नहीं।
निरीक्षण टीम की पूछताछ — त्रुटि नहीं, जैसे अपराध ढूंढ़ा जा रहा हो
दफ्तर में स्थिति और अधिक असहज तब होती है जब निरीक्षण टीम की पूछताछ शुरू होती है। एक ही डेटा बार-बार मांगा जाता है, अलग-अलग प्रारूपों में, अलग-अलग व्याख्याओं के साथ। टेबल के इस पार बैठा कर्मचारी पूरी सावधानी से जवाब दर्ज करता है, और टेबल के उस पार बैठे अधिकारी कभी-कभी छोटी सी कमी को अपराध मानकर देखते हैं। जितनी गंभीरता से कर्मचारी काम करता है, उतनी ही गहरी उसके भीतर यह बेचैनी उभरती रहती है कि गलती न हो जाए। डर बढ़ता है कि समझ में गलती हो गई तो विभागीय कार्रवाई या प्रतिकूल टिप्पणी बस अगली सांस की दूरी पर खड़ी है।
वो चुप्पी जो दफ्तरों में हमेशा बनी रहती है — जब किसी की जान चली जाती है
इस तनाव का सबसे दर्दनाक पहलू यह है कि जब कर्मचारी टूटता है, तब उसका टूटना किसी रिपोर्ट में जगह नहीं पाता। कई मामलों में कर्मचारी अचानक बेहोश हो जाते हैं, सीने में दर्द उठता है, स्ट्रोक आता है—और जब जांच होती है, रिपोर्ट यह बताती है: “मृत्यु हृदयाघात / हार्ट अटैक / हाई ब्लड प्रेशर से हुई।” लेकिन इन रिपोर्टों के बाहर वह अनकही सच्चाई होती है जिसे सब जानते हैं—वजह बीमारी थी, लेकिन बीमारी की असली वजह SIR का दबाव था।
इलाहाबाद का क्लर्क — कागज़ों के बोझ के नीचे दबती सांस
इलाहाबाद के एक कर कार्यालय में SIR चल रहा था। एक वरिष्ठ क्लर्क—जो लगभग छप्पन वर्ष का था—हफ्तों से प्रतिदिन देर रात तक काम कर रहा था। कई दिन तो ऐसा हुआ कि वह घर पहुंचते-पहुंचते आधी रात पार कर देता। एक सुबह वह अचानक मेज पर ही गिर पड़ा। तहकीकात हुई, विभागीय रिपोर्ट में मौत का कारण लिखा गया: “सीने में तकलीफ और हृदय गति रुकने से आकस्मिक मृत्यु।” लेकिन सहकर्मियों की जुबान पर एक ही बात थी—“मौत बीमारी से नहीं, इस थकावट से हुई है… यह SIR उसे ले डूबा।”
भोपाल के लेखा अधिकारी की मौत — बीमारी का नाम, दबाव की गुमनाम कहानी
भोपाल में एक लेखा कार्यालय में SIR के दौरान लगातार चार हफ्तों से कर्मचारियों की छुट्टियाँ रद्द थीं। एक लेखा अधिकारी, जो हमेशा शांत और जिम्मेदार माने जाते थे, कई दिनों से लगातार ओवरटाइम कर रहे थे। एक शाम रिपोर्ट पूर्ण करने के बाद वे अचानक फर्श पर गिर पड़े। अस्पताल ने मौत का कारण हाई बीपी और स्ट्रोक बताया। अख़बारों में यह खबर एक लाइन में छपी—“अकस्मात बीमारी के कारण अधिकारी का निधन।” लेकिन दफ्तर में लोग फुसफुसाते रहे—वह काम के दबाव से टूट गया था, पर फाइलों में कारण बीमारी ही लिखा जाएगा।
राजस्थान के अभियंता का स्ट्रोक — मौत धीरे-धीरे चढ़ती रही
राजस्थान के एक सार्वजनिक निर्माण विभाग में SIR के दौरान दो महीनों तक प्रतिदिन चौदह घंटे काम की स्थिति रही। एक अभियंता—जिनकी उम्र केवल बयालीस वर्ष थी—घर लौटते समय कार में ही बेहोश हो गए। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में दर्ज हुआ—“ब्रेन स्ट्रोक।” सहकर्मियों ने खामोश स्वर में कहा—“स्ट्रोक तो आज लिखा गया, लेकिन मौत धीरे-धीरे उस पर महीनों से चढ़ रही थी। SIR के दबाव ने उसकी सारी ऊर्जा निचोड़ ली थी।”
मानसिक तनाव के बाद शरीर की टूटन — जब स्वास्थ्य पीछे छूट जाता है
तनाव मानसिक तक सीमित नहीं रहता; शरीर भी इसकी कीमत चुकाता है। रात के दो बजे तक लैपटॉप पर टाइप करते-करते कंधे जकड़ जाते हैं, कमर अपनी जगह छोड़कर जैसे विरोध में खड़ी हो जाती है। ऑफिस कैंटीन में चाय और नमकीन ही भोजन बन जाते हैं और दिन भर पानी पीना भी भूल जाने की आदत सी पड़ जाती है। नींद खत्म नहीं होती, बल्कि रुक-रुककर आती है—इतनी उथली कि सुबह उठते ही आदमी फिर थका हुआ महसूस करे। धीरे-धीरे सिरदर्द, माइग्रेन, ब्लड प्रेशर और शुगर जैसी समस्याओं का एहसास होने लगता है, लेकिन उस दौर में किसी के पास डॉक्टर दिखाने का समय नहीं होता; बीमारी कमजोर नहीं लेटती, बस इंतजार करती है कि SIR खत्म हो जाए तो दर्द खुलकर सामने आए।
भावनात्मक असर — जब नौकरी और संबंधों के बीच खाई बनने लगती है
सबसे जटिल और पीड़ादायक असर भावनाओं पर पड़ता है। परिवार के छोटे-छोटे पल भी अपराधबोध में बदल जाते हैं। बच्चों के सो जाने के बाद घर लौटने वाले पिता की मुस्कान भीतर से खाली होती है। ऑफिस के समय पर घर की कोई बात सोचना गलत लगता है, और घर में रहकर भी दिमाग में ऑफिस की रिपोर्ट का ढेर नहीं हटता। रिश्तों का अपनापन धीरे-धीरे “समझौते” में बदल जाता है—“इस समय परेशान मत करो, SIR चल रहा है।”
महिला कर्मचारियों के लिए यह दबाव कई गुना अधिक
महिला कर्मचारियों के लिए यह दौर और भारी हो जाता है। ऑफिस की डेडलाइन और घर की ज़िम्मेदारियाँ एक साथ सामने खड़ी रहती हैं। सुरक्षा का डर, बच्चों की परीक्षा, घर के बुजुर्ग—सबकुछ मानसिक बोझ में शामिल हो जाता है और फिर भी उनसे यह अपेक्षा रहती है कि वे मुस्कुराकर काम करें। कई महिलाएँ भीतर ही भीतर यह महसूस करने लगती हैं कि वे न नौकरी को ठीक से दे पा रही हैं, न परिवार को; जबकि सच्चाई यह होती है कि व्यवस्था ने ही उन्हें असंभव संतुलन की स्थिति में धकेल दिया है।
नौजवान कर्मचारियों के लिए SIR — सपनों से संघर्ष की पहली टक्कर
युवा कर्मचारियों पर स्थिति और भी तीखी चोट करती है। जिन परिश्रम और सपनों के साथ वे नौकरी में आते हैं, SIR की कठोरता पहली बार में ही उन्हें यह एहसास करा देती है कि यह नौकरी केवल वेतन पाने का माध्यम नहीं, बल्कि लगातार साबित करते रहने की लड़ाई है। कई नौजवानों के भीतर नौकरी बदलने या विभाग से हटने का विचार पनपने लगता है, जो बताता है कि यह दबाव व्यक्तिगत नहीं, बल्कि पूरी व्यवस्था से जुड़ा हुआ है।
जब उद्देश्यों से भटक जाती है प्रणाली — ‘सुधार’ एक दीवार जैसा लगने लगता है
ध्यान देने की बात यह है कि SIR का उद्देश्य कभी यातना नहीं था। इसे बनाया गया था ताकि व्यवस्था में पारदर्शिता आए, गलतियाँ सुधरें और काम की गुणवत्ता बेहतर हो। लेकिन कई जगहों पर SIR एक सुधार प्रक्रिया न रहकर “डर की व्यवस्था” बन गई है। जहां डर हावी हो जाए, वहां गुणवत्ता टिक नहीं सकती—दिखावा ज़रूर टिक सकता है। यही कारण है कि SIR खत्म होते ही कर्मचारी राहत तो महसूस करते हैं, पर मानसिक रूप से एक टूटन उनके भीतर रह जाती है।
एक मानवीय SIR — सुधार भी, सम्मान भी
यदि सुधार सच में चाहिए, तो SIR का स्वरूप बदलना होगा। निरीक्षण व्यवस्था कठोर जरूर हो, लेकिन अपमानजनक नहीं। अनुशासन जरूरी हो, लेकिन अमानवीय नहीं। काम की समीक्षा हो, लेकिन कर्मचारियों की गरिमा के साथ हो। गलतियाँ सज़ा नहीं, सुधार की आवश्यकता का संकेत बनें। कर्मचारियों के परिश्रम को स्वीकारना भी SIR का हिस्सा होना चाहिए। थकान कम करने के प्रयास, यथोचित समय सीमा, सहयोगात्मक संवाद और कार्यभार साझा करने की व्यवस्था अगर साथ हो जाए तो यही प्रक्रिया तनाव नहीं, प्रगति बन सकती है।
अंतिम निष्कर्ष — व्यवस्था की ताकत उसके कर्मचारियों में होती है
अंततः यही कथन सबसे प्रासंगिक है—“किसी भी संस्था की मजबूती कानूनों, निरीक्षणों और रिपोर्टों में नहीं, बल्कि उन कर्मचारियों में होती है जो अपनी क्षमताओं और मानसिकता के बल पर पूरी व्यवस्था को जीवित रखते हैं।” SIR तभी सफल कहे जाएंगे जब वे व्यवस्था को पारदर्शी बनाते हुए कर्मचारियों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा भी सुनिश्चित करें। क्योंकि मनुष्य को थकाकर बनाई गई व्यवस्था स्थायी नहीं होती, लेकिन मनुष्य को साथ लेकर बनाई गई व्यवस्था समय के साथ और मजबूत होती जाती है।






