वो बातें तुम्हारी बहुत याद आती…
धर्मेन्द्र से साहनेवाल, पंजाब में हुई वह अनुपम, आत्मा को छू लेने वाली मुलाक़ात
अनिल अनूप

कुछ स्मृतियाँ ऐसी होती हैं जिन्हें समय के बीतने से पुराना होना चाहिए, परंतु वे उल्टा और भी चमकने लगती हैं—जैसे किसी दीवार पर टंगे पुराने फ्रेम की तस्वीर, जिसकी किनारियाँ भले धुंधली पड़ जाएँ, पर तस्वीर भीतर से और साफ होती चली जाती है।

मेरी स्मृतियों में धर्मेन्द्र से साहनेवाल में हुई वह मुलाक़ात भी ऐसी ही है—हर गुजरते वर्ष के साथ और गहरी, और सुगंधित, और अधिक अर्थपूर्ण। आज जब मैं उस शाम को याद करता हूँ, तो मन में सबसे पहले एक धीमी-सी सिसकार भरती पंक्ति उतरती है—“वो बातें तुम्हारी बहुत याद आती…” और सच लिखूँ तो, यह केवल पंक्ति नहीं—मेरे भीतर से उठने वाली एक लंबी, सांस की तरह खिंचती हुई याद है।

साहनेवाल—धर्मेन्द्र की जड़ों की वह मिट्टी जिसे वे कभी छोड़ नहीं पाए

साहनेवाल… पंजाब के मानचित्र पर तो यह एक साधारण-सा कस्बा है, पर धर्मेन्द्र के जीवन में यह वही केंद्र है जहाँ से उनकी पूरी यात्रा शुरू हुई। गाँव की गलियाँ, खेतों की पगडंडियाँ, मिट्टी की वह महक जो बारिश के पहले ही उठने लगती थी—यह सब उनके बेतहाशा बड़े सपनों का पहला आधार था।

मैंने अक्सर सुना था कि धर्मेन्द्र जब भी साहनेवाल आते हैं, तो वह किसी ‘स्टार’ की तरह नहीं, बल्कि किसी ‘घर लौटे बेटे’ की तरह आते हैं। लोगों के चेहरे पर एक अलग-सी खुशी होती है—मानो किसी पुराने रिश्तेदार के लौटने पर घर में हल्की-सी गुनगुनाहट फैल जाती है। वह दिन भी ऐसा ही था।

मेरा आशंकाओं से भरा मन—क्या वाकई उनसे बात हो सकेगी?

मुझे सूचना मिली कि धर्मेन्द्र एक निजी कार्यक्रम में आ रहे हैं और यदि समय मिला तो कुछ पत्रकारों से मिलेंगे भी। मैं उन दिनों पेशे में नया था—दिल में उत्साह बहुत था, पर आत्मविश्वास अक्सर भीड़ में खो जाता था। सोचता—कितने लोग होंगे! क्या मुझे भी उनसे मिलने का अवसर मिल पाएगा? और यदि मिला भी तो क्या वह मेरे सवालों का जवाब देंगे? क्या मैं एक सहज मुलाक़ात की उम्मीद रख सकता हूँ या बस एक औपचारिक, दो मिनट की मुलाक़ात होगी?

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इन सभी आशंकाओं के साथ मैं साहनेवाल पहुँचा। कस्बा उस दिन थोड़ा-सा सजा हुआ लग रहा था—जैसे कोई त्योहार हो। दूर-दूर तक लोग घरों की छतों पर खड़े थे, खेतों की ओर जाती सड़कों पर साइकिलें तेज़ी से भाग रही थीं, और हवा में एक कोमल-सी उत्तेजना घुली हुई थी।

पहली झलक—जब समय एक पल को ठहर गया

जब उनकी गाड़ी रुकी और वे उतरे—मैं अवाक रह गया। कई लोग कहते हैं कि कुछ व्यक्तित्व अपनी उपस्थिति से ही वातावरण बदल देते हैं। यह वाक्य पहले कभी केवल पढ़ा था, पर उस दिन पहली बार उसे सच होते देखा।

धर्मेन्द्र साधारण सफेद कुर्ते-पायजामे में थे। कोई भारी-भरकम सुरक्षा घेरा नहीं, न ही फिल्मों जैसा कोई तामझाम। उनके कदमों में एक शांत लय थी—जैसे कोई गहरी नदी धीमे-धीमे बहती है। लोग “धर्मेन्द्र पाजी…!” कहकर पुकारते और वह हर आवाज़ पर मुस्कुराते हुए सिर झुका देते। उनके चेहरे पर जो गर्माहट थी, वह किसी भीड़ को भी अपना घर बना सकती थी।

मैंने उन्हें पहली बार इतने करीब से देखा था। उनकी आँखों में वही जादू था, वही विनम्रता, वही अपनापन—जिसकी वजह से वह सिर्फ एक्टिंग के नहीं, बल्कि दिलों के महानायक बने थे।

मुझ तक आते-आते मुस्कान का एक पूरा मौसम गुजर गया

थोड़ी देर बाद मुझे उनके पास बुलाया गया। मैं घबराया हुआ, थोड़ी-सी झिझक के साथ आगे बढ़ा। उन्होंने मेरी ओर देखा—उनकी आँखों में कोई औपचारिकता नहीं थी।

“आओ पुत्तर… बैठो।”

ये शब्द जैसे मेरे भीतर उतर गए। पहली मुलाक़ात में कोई इतने अपनत्व से बोले—यह आम बात नहीं होती।

मैं बैठा, और उन्होंने यह पूछकर शुरुआत की—“किठों आएं ओ? की करदे ओ?” (कहाँ से हो? क्या करते हो?)
उनके प्रश्न इतने साधारण, लेकिन इतने मानवीय थे कि वह पहली झिझक पलभर में ही पिघल गई।

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बातों-बातों में हम किस दुनिया से किस दुनिया में पहुँच गए

मैंने संशय—संकोच सब छोड़कर बात करना शुरू किया। उन्होंने न सिर्फ सुना, बल्कि बीच-बीच में अपने अनुभव जोड़कर बातों को और भी गाढ़ा बना देते। वे बोलते तो ऐसा लगता जैसे शब्द नहीं, वर्षों का सारा अनुभव बह रहा हो।

उन्होंने अपने बचपन की बातें बताते—कैसे साहनेवाल के खेतों में धूप का रंग अलग होता था, कैसे माँ उन्हें डाँटते हुए भी अपने हाथों से रोटी खिलाती थीं, कैसे पिता की सादगी और कठोर परिश्रम ने उन्हें जीवनभर संतुलित रखा।

उन्होंने फिल्मों के शुरुआती संघर्ष साझा किए— कैसे कई रातें स्टेशन के आसपास गुजर गईं, कैसे कई बार लोग कहते थे “हीरो बनना आसान नहीं,” और कैसे उन्होंने हर ‘न’ को प्रेरणा बनाकर आगे बढ़ते गए।

सुनते-सुनते लगा कि मैं सिर्फ पत्रकार नहीं रह गया—मैं एक शिष्य बन गया हूँ, उन अनुभवों का जो दिल में बसते हैं, शब्दों में नहीं।

“चलो, खाना खाते हैं”—और जीवन का सबसे सरल, सबसे सुंदर निमंत्रण

लंबी बातचीत के बीच उन्होंने अचानक कहा—“चलो, खाना खा लईए… पंजाब आया ऐं तां पंजाबी स्वाद तां ज़रूरी ऐ।”

हम पास के कमरे में गए। सादा-सा भोजन था, पर उसकी सुगंध में पूरा पंजाब था—सरसों का साग, मक्की की रोटी, तंदूरी चिकन, दाल मक्खनी, सलाद, देसी घी की महक।

धर्मेन्द्र खाना उसी सहजता से खा रहे थे जैसे किसी देसी ढाबे पर बैठे हों। उन्होंने मेरे लिए खुद रोटी तोड़ी और कहा—“खा पुत्तर… काम दी थकावट मिट जांदी ऐ ऐस स्वाद नाल।”

उनकी आँखों में उसी क्षण एक चमक थी—और थोड़ी-सी नमी भी।

भोजन के बाद—एक लिटिल पैग… और आत्मा से उतरती बातचीत

भोजन के बाद उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा—“एक लिटिल पैग हो जाए?”
मैंने सिर हिलाया। दो छोटे पैग बने। पहला घूँट लेते ही वह बोले—

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“ज़िंदगी विच बहुत शोर-परेशानी ए… एहो जिहे पलों नाल रूह नू सुकून मिलदा ऐ।”

फिर जो बातें हुईं, वे बिलकुल साफ, सच्ची और गहरी थीं—अकेलेपन की, संघर्षों की, अपने दिल में छुपी थकान की। वह कुछ देर चुप रहे, खिड़की से बाहर देखते रहे। उस मौन में भी एक पूरा संवाद छिपा था।

साहनेवाल की हवा—दो व्यक्तियों का मौन संवाद

बाहर खेतों में पम्पिंग सेट की आवाज़, हवा में मिट्टी की महक… वह सब मिलकर उस पल को अनमोल बना रहे थे। मुझे लगा कि वह सिर्फ अभिनेता नहीं, बल्कि वर्षों की थकान ढोते एक सरल मनुष्य थे जिन्हें कुछ पलों की सच्ची संगत मिल गई हो।

विदा—जिसने दिल के भीतर हमेशा के लिए जगह बना ली

मैं उठने लगा तो उन्होंने मेरा हाथ दबाया और धीमे से कहा—“रब तैनूं चंगा रखे… सच लिखिये, सच्चाई वाला लिखणा दिलां तक पहुँचदा ऐ।”

मैं उस आवाज़, उस स्पर्श को अपने भीतर बसाकर बाहर निकला। रात शांत थी, पर मेरे भीतर एक अजीब-सी हलचल थी—मानो कोई अनमोल अनुभव अभी भी भीतर गूँज रहा हो।

सालों बाद—जब भी स्मृति खुलती है, वही शाम फिर जीवित हो उठती है

समय बीत गया—पर साहनेवाल की वह शाम, वह मुलाक़ात, वह अपनापन… आज भी वैसा ही है। कभी खिड़की से रात को बाहर देखते हुए वह दृश्य फिर उभर आता है—वह सफेद कुर्ता, वह मुस्कान, सरसों के साग की खुशबू, लिटिल पैग की गर्माहट, और वह वाक्य—
“अपणे बंदे आं…”

इन स्मृतियों के बीच वही पंक्ति फिर धीमे से भीतर गूंजती है—
“वो बातें तुम्हारी बहुत याद आती…”

यह मुलाकात तीन दशक पूर्व अनिल अनूप की धर्मेन्द्र से उनके पंजाब प्रवास के दौरान हुई मुलाकात का संपादित अंश है।

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