
परवेज़ अंसारी की रिपोर्ट
हर आठ मिनट में एक बच्चा गुम हो रहा है, 2023 में बच्चों की गुमशुदगी के मामलों में 9.5% की बढ़ोतरी और इनमें 71.4% गुमशुदा बच्चे लड़कियाँ हैं—यह रिपोर्ट इन्हीं कठोर सचाइयों पर आधारित एक गंभीर सामाजिक विश्लेषण है।
भारत के किसी भी थाने की डेली डायरी पर नजर डालें तो बच्चों की गुमशुदगी आज सबसे अधिक दर्ज होने वाली शिकायतों में शामिल हो चुकी है।
यह वास्तविकता उतनी ही भयावह है जितनी असहज—देश में हर आठ मिनट में एक बच्चा गायब हो रहा है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट बताती है कि 2023 में बच्चों की गुमशुदगी के मामलों में 2022 की तुलना में 9.5% की बढ़ोतरी हुई है।
और इन मामलों में सबसे संवेदनशील और चिंताजनक तथ्य यह है कि 71.4% गुमशुदा बच्चे लड़कियाँ हैं।
ये आंकड़े सिर्फ अपराध की तस्वीर नहीं दिखाते, बल्कि समाज, परिवार, कानून व्यवस्था और डिजिटल दुनिया में फैली कमजोरियों को भी उजागर करते हैं।
हर गुमशुदा बच्चा सिर्फ एक केस नंबर नहीं, बल्कि उस विश्वास का टूटना है जो एक परिवार अपने समाज और सिस्टम पर करता है।
आंकड़ों की खामोश दहशत
हर आठ मिनट में एक बच्चे का गायब हो जाना किसी दुर्घटना या संयोग का परिणाम नहीं, बल्कि हमारी सामाजिक व्यवस्था की गहरी विफलता है।
दिन भर में लगभग 180 बच्चे और एक वर्ष में लाखों बच्चे गुम हो जाना एक ऐसा संकट है, जिसकी गंभीरता को शायद हमने आज तक महसूस ही नहीं किया।
यह सिर्फ किसी एक राज्य या क्षेत्र की समस्या नहीं, बल्कि लगभग पूरे देश में फैला हुआ एक मौन आपातकाल है।
भारत की बढ़ती जनसंख्या, सामाजिक असमानता, तेज़ होता शहरीकरण और अपराध नेटवर्क की संरचना इन मामलों को और भयावह बनाती जा रही है।
जब विकास की रफ्तार, महत्त्वाकांक्षाएँ और बाज़ार की चमक बढ़ती है, तब सबसे पहले बच्चों की सुरक्षा ही हाशिये पर चली जाती है।
गुमशुदगी के ये बढ़ते आंकड़े बताते हैं कि हमारी प्राथमिकताओं की सूची में बच्चों की सुरक्षा अभी भी ऊपर नहीं, बल्कि कहीं पीछे छूट गई है।
क्यों गायब हो रहे हैं बच्चे? — कारणों की परतें
कोई भी बच्चा अचानक यूँ ही गायब नहीं हो जाता। उसके गुम हो जाने से पहले समाज, परिवार, डिजिटल दुनिया और अपराध जगत की कई परतें उसके जीवन को धीरे-धीरे घेरने लगती हैं।
बच्चों की गुमशुदगी के पीछे अक्सर मानव तस्करी, ऑनलाइन शोषण, गरीबी, पारिवारिक तनाव और मानसिक दबाव जैसे कई कारक एक साथ काम करते हैं।
इन कारणों को समझे बिना समस्या की जड़ तक पहुँचना संभव नहीं।
मानव तस्करी — सबसे बड़ा संगठित खतरा
बच्चों की गुमशुदगी के पीछे सबसे बड़ा और संगठित कारण मानव तस्करी है।
तस्कर अक्सर गरीब, असुरक्षित या विवादों से घिरे परिवारों के बच्चों को निशाना बनाते हैं।
गुम होने के कुछ ही घंटों के भीतर कई बच्चों को दूसरे शहरों, राज्यों या सीमावर्ती इलाकों में पहुँचा दिया जाता है, जहां से उन्हें ढूंढ पाना बेहद कठिन हो जाता है।
इन बच्चों को बंधुआ मजदूरी, देह व्यापार, भिखारी गिरोह, घरेलू कामकाज, अवैध फैक्टरियों या यहाँ तक कि अवैध अंग व्यापार तक में इस्तेमाल किया जाता है।
लड़कियों के मामले में स्थिति और भयावह हो जाती है, क्योंकि उन्हें यौन शोषण के लिए सबसे ज्यादा निशाना बनाया जाता है।
यह संगठित अपराध सिर्फ कानून के लिए नहीं, बल्कि मानवता के लिए भी सबसे बड़ी चुनौती है।
ऑनलाइन जाल और सोशल मीडिया का बढ़ता खतरा
डिजिटल युग ने बच्चों की दुनिया को जितना रंगीन बनाया है, उतना ही जोखिमभरा भी।
फर्जी प्रोफाइल, नकली दोस्ती, मॉडलिंग और एक्टिंग के झूठे ऑफर, ऑनलाइन गेमिंग चैलेंज, चैट के नाम पर ब्लैकमेल जैसी घटनाएँ रोज सामने आ रही हैं।
कई बच्चे भावनात्मक कमजोरी या जिज्ञासा के कारण ऐसे अनजान व्यक्तियों पर भरोसा कर लेते हैं, जिन्हें वे वास्तव में जानते ही नहीं।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बने इन रिश्तों के सहारे तस्कर या अपराधी बच्चों से मिलने, उन्हें घर से निकलने के लिए उकसाने या सीधे उठा ले जाने तक की योजना बनाते हैं।
कई बार बच्चे खुद ही घर छोड़कर किसी झूठे ‘सपने’ के पीछे निकल पड़ते हैं और फिर कभी वापस नहीं लौटते।
यह आधुनिक समय का वह जाल है, जो दिखने में दोस्ती जैसा और असल में शिकार जैसी प्रक्रिया पर टिका है।
पारिवारिक कलह और घरेलू तनाव
हर गुमशुदा बच्चा तस्कर या गैंग का सीधा निशाना ही हो, यह जरूरी नहीं।
बहुत से बच्चे घर के भीतर होने वाले तनाव और हिंसा से बचने के लिए भी भाग जाते हैं।
शराब की लत, लगातार झगड़े, शारीरिक मारपीट, अपमानजनक व्यवहार, बच्चों पर अत्यधिक पढ़ाई का दबाव, रिश्तेदारों द्वारा शोषण—ये सभी कारण कई बार बच्चों को यह महसूस कराते हैं कि घर उनके लिए सुरक्षित स्थान नहीं रहा।
जब घर सुरक्षा के बजाय भय का पर्याय बन जाता है, तब बच्चा बाहर की दुनिया में ‘आजादी’ खोजने निकल पड़ता है।
लेकिन यह बाहर की दुनिया अक्सर उससे कहीं ज्यादा खतरनाक होती है, जितना उसने सोचा होता है।
ऐसे बच्चे बिना किसी सुरक्षा कवच के अपराधियों के लिए आसान शिकार बन जाते हैं।
गरीबी, पलायन और आर्थिक मजबूरी
गरीबी बच्चों के जीवन से बचपन ही छीन लेती है।
गांवों और कस्बों से बड़े शहरों की ओर पलायन करने वाले परिवारों के बच्चे अक्सर स्कूल की बजाय सड़क, स्टेशन, ढाबे, फैक्ट्रियाँ या भीख मांगने जैसी स्थितियों में दिखते हैं।
ऐसे बच्चे न तो किसी रजिस्टर में दर्ज होते हैं, न ही उनके लिए कोई औपचारिक सुरक्षा ढांचा होता है।
आर्थिक मजबूरी से जूझते परिवार कई बार खुद ही बच्चों को काम पर भेज देते हैं, और कई बार ये बच्चे बिना किसी निगरानी के ऐसे लोगों के संपर्क में आ जाते हैं जो उन्हें आगे बेच देते हैं।
रोटी की तलाश में भटकते ये छोटे कदम कब गुमनामी और गुमशुदगी के अंधेरे में खो जाते हैं, किसी को पता ही नहीं चलता।
24 घंटे की जंग — थानों में देरी का खामियाजा
किसी बच्चे के गुम होने के बाद पहले 24 घंटे को सबसे निर्णायक माना जाता है।
इसी अवधि में यह तय होता है कि बच्चा जल्दी मिल पाएगा या सालों तक केवल फाइलों और पोस्टरों में उसकी तलाश चलती रहेगी।
कानूनी रूप से यह स्पष्ट है कि गुमशुदा बच्चे को अपहरण मानकर तुरंत FIR दर्ज की जानी चाहिए, लेकिन जमीनी हकीकत इससे अलग है।
कई मामलों में परिवार जब थाने पहुँचते हैं तो उन्हें यह कहकर लौटा दिया जाता है कि “थोड़ी देर में आ जाएगा…”, “दोस्तों के घर होगा…”, या “लड़ाई हुई होगी, वापस आएगा।”
यह देरी तस्करों और अपराधियों को वह ‘गोल्डन टाइम’ दे देती है जिसमें वे बच्चे को दूर ले जाकर उसके सभी सुराग मिटा देते हैं।
अगर पुलिस उसी समय सक्रिय हो जाए, CCTV, मोबाइल लोकेशन, सोशल मीडिया, बस-रेलवे रिकॉर्ड सब तुरंत चेक हों, तो कई बच्चों को बचाया जा सकता है।
लड़कियाँ अधिक क्यों गायब होती हैं? — समाज का कड़वा सच
यह तथ्य कि सभी गुमशुदा बच्चों में से 71.4% लड़कियाँ हैं, हमारे सामाजिक ढांचे की गहरी असमानता को उजागर करता है।
लड़कियाँ एक साथ कई स्तरों पर असुरक्षित रहती हैं—शारीरिक, आर्थिक, भावनात्मक और सामाजिक।
घर से स्कूल, स्कूल से ट्यूशन, रास्तों से लेकर रिश्तों तक, हर जगह खतरे के साए उनके साथ चलते हैं।
देह व्यापार के लिए लड़कियों की मांग, बाल विवाह का दबाव, घरेलू उत्पीड़न, प्रेम संबंधों में फंसाकर भगाने या बेचने की घटनाएँ, ऑनलाइन बदनामी का डर—इन सबके बीच लड़की का जीवन लगातार डर और असुरक्षा से घिरा रहता है।
कई बार वह खुद घर छोड़ देती है, कई बार उसे बहला-फुसलाकर ले जाया जाता है, और कई बार सीधे अपहरण कर लिया जाता है।
यह सिर्फ अपराध नहीं, बल्कि हमारी सोच, हमारी परंपराओं और हमारे दोहरे मापदंडों का परिणाम भी है।
बरामद होने के बाद भी खत्म नहीं होती लड़ाई
जो बच्चे किसी तरह वापस मिल जाते हैं, उनकी कहानी वहीं खत्म नहीं होती।
उनके भीतर कई तरह के घाव होते हैं—कुछ दिखते हैं, कुछ नहीं दिखते।
शारीरिक पीड़ा के साथ-साथ मानसिक आघात, अपमान, भय, अविश्वास और असुरक्षा उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाते हैं।
कई बच्चे रातों को अचानक चीखकर उठ जाते हैं, कई किसी पर भरोसा नहीं कर पाते, कई सामाजिक संबंधों से खुद को अलग कर लेते हैं।
कई बार परिवार भी समझ नहीं पाता कि जो बच्चा लौटा है, वह वही पुराना बच्चा नहीं रहा; उसके भीतर एक ऐसा अँधेरा बस गया है जिसे हटाने के लिए समय, संवेदना और पेशेवर मदद की जरूरत होती है।
मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग, सामाजिक समर्थन और संवेदनशील व्यवहार के बिना यह घाव अक्सर जीवन भर बने रहते हैं।
कानून मौजूद, लेकिन क्रियान्वयन कमजोर
भारत में बच्चों की सुरक्षा के लिए अनेक कानून और व्यवस्थाएँ हैं—जैसे जेजे एक्ट, POSCO, मानव तस्करी विरोधी कानून, मिसिंग चाइल्ड पोर्टल और राज्यों के बीच समन्वय के लिए बनाए गए नेटवर्क।
कागज़ों पर यह ढांचा काफी मजबूत दिखाई देता है, लेकिन वास्तविकता में कई जगह इनका प्रभाव अधूरा दिखता है।
कई थानों में अभी भी तकनीकी संसाधनों की कमी है, पुलिसकर्मियों को बच्चों के अधिकारों और संवेदनशील पूछताछ के बारे में पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं मिलता,
राज्यों के बीच जानकारी साझा करने की प्रक्रिया धीमी रहती है और केस फॉलो-अप में ढिलाई दिखाई देती है।
नतीजा यह होता है कि कानून किताबों में तो सख्त हैं, लेकिन अपराधियों के लिए ज़मीन पर अब भी पर्याप्त डर पैदा नहीं कर पा रहे।
समाधान — सिर्फ सरकार नहीं, समाज की भी जिम्मेदारी
बच्चों की सुरक्षा का ढांचा सिर्फ सरकारी नीतियों या पुलिस व्यवस्था पर नहीं टिका हो सकता।
यह एक सामूहिक जिम्मेदारी है, जिसमें परिवार, समुदाय, स्कूल, मीडिया और प्रशासन—सभी की भूमिका महत्वपूर्ण है।
मोहल्लों और बस्तियों में सामुदायिक जागरूकता जरूरी है, ताकि किसी भी बच्चे की संदिग्ध गतिविधि या अनजान लोगों के संपर्क पर लोग चुप न रहें।
बच्चों को डिजिटल साक्षरता देना, उन्हें ऑनलाइन जाल से बचने की समझ देना, परिवार में संवाद की संस्कृति विकसित करना,
स्कूलों में काउंसलर और हेल्पडेस्क की व्यवस्था करना, गुमशुदगी के हर केस पर तत्काल और गंभीर पुलिस कार्रवाई सुनिश्चित करना—ये सभी कदम मिलकर बच्चों के लिए एक सुरक्षित वातावरण बना सकते हैं।
मीडिया की जिम्मेदारी भी कम नहीं है।
सिर्फ सनसनीखेज हेडलाइन बनाने की बजाय गुमशुदा बच्चों की खोज और तस्करी नेटवर्क के पर्दाफाश के लिए लगातार निगरानी, फॉलो-अप और खोजी रिपोर्टिंग की जरूरत है।
निष्कर्ष — क्या हम बच्चों को सच में सुरक्षित रख पा रहे हैं?
हर गुमशुदा बच्चा सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि हमारे समय की सबसे बड़ी नैतिक परीक्षा है।
हर आठ मिनट में एक बच्चा गायब होना सिर्फ आंकड़ा नहीं, एक चेतावनी है—और शायद यह चेतावनी अब चीख में बदल चुकी है।
यह बढ़ते हुए मामले बताते हैं कि हम बच्चों को वह सुरक्षा नहीं दे पा रहे, जिसका वादा हम उनसे और खुद से करते हैं।
2023 में गुमशुदा बच्चों के मामलों में 9.5% की बढ़ोतरी और उनमें 71.4% लड़कियों का होना इस बात का प्रमाण है कि हमारी नीतियाँ, हमारा समाज और हमारी संवेदनाएँ—तीनों कहीं न कहीं चूक रहे हैं।
अगर हमने अभी भी इस समस्या को सिर्फ एक ‘सांख्यिकीय तथ्य’ मानकर टाल दिया, तो आने वाले वर्षों में यह संकट और गहरा होगा।
समय की माँग है कि बच्चों की सुरक्षा को कागज़ी योजना नहीं, ज़मीनी प्राथमिकता बनाया जाए।
क्योंकि जब एक बच्चा गुम होता है, तो सिर्फ एक परिवार नहीं, पूरा समाज कहीं न कहीं अपना भविष्य खो देता है—और अपनी संवेदनाओं का एक हिस्सा भी।