जहाँ राम ने तिलक लगाया था, आज वही चित्रकूट क्यों कर रहा है चीख–पुकार? इतिहास, आस्था और आज की सच्चाई

चित्रकूट के पवित्र घाट और प्रदूषणग्रस्त तट का तुलनात्मक दृश्य, जहाँ आध्यात्मिक धरोहर और वर्तमान अव्यवस्था एक साथ दिखाई देती हैं, साथ ही लेखक संजय सिंह राणा की फोटो।

संजय सिंह राणा की खास रिपोर्ट, ©समाचार दर्पण।

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तुलसी का धाम, राम का वनवास, भरत का चरण-तिलक और मंदाकिनी के तट पर गूंजती भक्ति—चित्रकूट का नाम आते ही भारतीय स्मृति में यही दृश्य एक साथ उभर आते हैं। यह वही धाम है जिसे तुलसीदास ने अपने दोहे में अमर कर दिया—“चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़…”, वही घाट जहाँ राम-भरत मिलन मानवता के सबसे संवेदनशील और आदर्श प्रसंग के रूप में याद किया जाता है। लेकिन आज की हकीकत यह है कि इसी पवित्र चित्रकूट की जमीन, हवा और पानी कराह रहे हैं। आस्था से भरी यह भूमि अब अव्यवस्था, प्रदूषण, बेरोज़गारी, अवैध खनन और राजनीतिक उपेक्षा की मार झेलते हुए चीखती-सी दिखाई देती है।

सवाल साफ है—जहाँ कभी राम ने चरण रखकर इस भूमि को तपोभूमि बनाया, जहाँ भरत ने उन्हीं चरणों के चिन्हों को तिलक की तरह माथे पर सजाया, आज वही चित्रकूट अपने ही लोगों और व्यवस्था से न्याय की गुहार क्यों लगा रहा है?

तुलसी का धाम और राम-भरत की भूमि: एक गौरवशाली स्मृति

चित्रकूट सिर्फ एक तीर्थ नहीं, भारतीय सभ्यता का ऐसा जीवित प्रतीक है जहाँ धर्म, प्रकृति और साहित्य एक साथ सांस लेते रहे हैं। तुलसीदास के लिए यह भूमि साधारण नहीं थी, यही वह धाम था जहाँ उन्हें राम की निकटता का वास्तविक अनुभव होता है। लोकस्मृति में चित्रकूट को “तुलसी का धाम” कहा जाना यूं ही नहीं है; यह वह धरती है जहाँ भक्ति ने अपना सबसे गहरा और प्रखर रूप धारण किया।

रामायण के प्रसंगों में चित्रकूट की भूमिका केवल एक भौगोलिक अध्याय नहीं, बल्कि भावनात्मक और नैतिक आदर्श का शिखर है। राम, सीता और लक्ष्मण ने अपने वनवास के प्रारंभिक वर्ष इसी क्षेत्र में बिताए। यहीं भरत का आगमन होता है, और यहीं वह ऐतिहासिक क्षण जन्म लेता है जब भरत, राज-सिंहासन ठुकराकर राम के चरणों की मिट्टी को ही अपना तिलक बना लेते हैं। यह दृश्य केवल धार्मिक भावुकता नहीं, बल्कि सत्ता के त्याग, मर्यादा और आदर्श राजनीति का सबसे ऊँचा उदाहरण है।

आज जब राजनीति लाभ, पद और प्रोपेगैंडा तक सीमित हो चुकी है, तब चित्रकूट की यह स्मृति और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती है। लेकिन विडंबना यह है कि जिस भूमि ने हमें आदर्श राजनीति का पाठ पढ़ाया, वही भूमि आज स्वार्थ, लालच और प्रशासनिक उदासीनता की चपेट में आकर अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है।

प्रकृति का स्वर्ग, जो धीरे-धीरे नरक में बदलता परिदृश्य

कभी चित्रकूट के बारे में कहा जाता था कि यहाँ की मिट्टी में भी अध्यात्म है, यहाँ की हवा में भी भक्ति है और यहाँ की नदियों में भी शांति बहती है। घने वन, पहाड़, झरने, पक्षियों की चहचहाहट और मंदाकिनी का निर्मल जल—ये सब मिलकर इसे सचमुच एक प्राकृतिक स्वर्ग बनाते थे। लेकिन समय के साथ यह स्वरूप तेजी से बदलता गया।

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सबसे बड़ी चोट पड़ी है नदियों और जंगलों पर। मंदाकिनी, जो कभी संतों और साधकों के स्नान, ध्यान और साधना की साक्षी थी, आज गंदगी, प्लास्टिक, सीवर और अतिक्रमण के बोझ से कराह रही है। नदी के आसपास की घाटियाँ और किनारे अव्यवस्थित निर्माणों, अवैध दुकानों और लापरवाह पर्यटन की वजह से अपनी मूल गरिमा खो रहे हैं।

दूसरी ओर, जंगलों का क्षरण भी कम चिंताजनक नहीं है। अवैध कटान, खनन माफियाओं की सक्रियता और स्थानीय-प्रशासनिक गठजोड़ ने पहाड़ियों और वनों को लगातार घायल किया है। जहां कभी तपस्वियों की गुफाएँ, साधकों की कुटियां और वन्यजीवन की सहज उपस्थिति दिखाई देती थी, वहां अब मशीनों की आवाज, डंपर की रफ्तार और धूल का गुबार देखने को अधिक मिलता है।

धार्मिक पर्यटन या धंधा? धाम के बाज़ारीकरण ने बदली तस्वीर

चित्रकूट में हर साल लाखों श्रद्धालु आते हैं। धार्मिक पर्यटन क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था के लिए अवसर भी लाता है, लेकिन जब यह पर्यटन बिना योजना, बिना नियंत्रण और बिना संवेदनशीलता के बढ़ता है, तो वही आस्था बोझ बन जाती है। यही आज चित्रकूट में हो रहा है।

घाटों पर प्लास्टिक के गिलास, प्रसाद के रैपर, पॉलीथिन की थैलियां और गंदगी के ढेर आम दृश्य बन चुके हैं। लाउडस्पीकरों का शोर, भीड़ के दबाव और अव्यवस्थित दुकानों की कतारें धार्मिक वातावरण को मेला-ग्राउंड की तरह परिवर्तित कर रही हैं। घाट तक जाने वाली संकरी सड़कों पर जाम, अवैध पार्किंग और वाहनों की अनियंत्रित आवाजाही श्रद्धालुओं के लिए परेशानी तो पैदा करती ही है, साथ ही धाम की छवि पर भी बुरा असर डालती है।

धार्मिक आयोजनों के नाम पर अस्थायी स्टॉल, अनियमित टेंट, प्रचार बैनर और बड़े-बड़े होर्डिंग्स घाटों और मार्गों को घेर लेते हैं। यह पूरा परिदृश्य एक कड़वी सच्चाई की ओर इशारा करता है—आस्था की आड़ में बाज़ार ने धीरे-धीरे चित्रकूट के स्वरूप पर कब्जा जमा लिया है। विकास की बात तो बहुत होती है, लेकिन यह विकास धाम की आत्मा को बचाने की बजाय, उसके खोल को चमकाने तक सीमित दिखाई देता है।

अपराध, अवैध खनन और राजनीति की पैठ: चित्रकूट की नई त्रासदी

चित्रकूट की एक बड़ी चुनौती इसका भूगोल भी है। यह क्षेत्र उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमाओं पर स्थित है। सीमावर्ती इलाकों में अक्सर कानून-व्यवस्था की जटिलताएँ अधिक होती हैं, और चित्रकूट भी इससे अछूता नहीं रहा। बीते वर्षों में कई बार चित्रकूट का नाम अवैध खनन, खनन माफिया, पुलिस-माफिया गठजोड़, राजनीतिक संरक्षण और आपराधिक घटनाओं के संदर्भ में उभरता रहा है।

पर्वतों और नदियों के किनारे होने वाले अवैध खनन ने न केवल पर्यावरण, बल्कि स्थानीय समाज को भी भीतर तक प्रभावित किया है। जब रेत और पत्थर सिर्फ ‘संसाधन’ बन जाते हैं और उनकी कीमत केवल पैसों के तराजू पर तौली जाती है, तब प्रकृति और समाज दोनों की आत्मा घायल होती है। स्थानीय लोग बताते हैं कि कई बार विरोध की आवाजें उठीं, शिकायतें हुईं, लेकिन खनन माफियाओं की पहुंच इतनी गहरी है कि आवाजें अक्सर फाइलों में दबकर रह जाती हैं।

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राजनीति की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। चुनावों के दौरान चित्रकूट के विकास, आध्यात्मिक पर्यटन, रोजगार, सड़क, स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण के बड़े-बड़े वादे गूँजते हैं। लेकिन चुनाव ख़त्म होते ही ये वादे भी मंदाकिनी के बहाव की तरह दूर कहीं खो जाते हैं। जनता की वास्तविक समस्याएं—बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, पलायन, किसानों की दिक्कतें—इन पर गंभीर कार्यवाही के बजाय केवल औपचारिक कार्यक्रम ज्यादा दिखते हैं।

आज का चित्रकूट: रोता-बिलखता धाम, थकी हुई जनता

आज जब कोई संवेदनशील व्यक्ति चित्रकूट पहुँचता है, तो उसके सामने दो विरोधाभासी दृश्य खड़े हो जाते हैं। एक तरफ मंदिरों की घंटियाँ, भजन की धुन, मंत्रोच्चार और श्रद्धालुओं की भीड़—जिनसे लगता है कि आस्था आज भी जीवित है। दूसरी तरफ गंदे घाट, बदहाल सड़कें, अव्यवस्थित बाजार, बेरोज़गार युवा, पलायन करती पीढ़ी, और प्रकृति की टूटी हुई कमर—जो इस आस्था की पीड़ा बयान करती है।

मंदाकिनी के किनारे अगर आप सुबह या शाम की सैर करें, तो कई जगहों पर सीवर का पानी, नहाने–धोने का गंदा बहाव और कचरे के ढेर साफ दिखाई देते हैं। धार्मिक स्नान के बाद श्रद्धालु प्रसाद और पूजन सामग्री को नदी में ही प्रवाहित कर देते हैं। प्रकृति और आस्था की यह टकराहट बताती है कि हमने भक्ति को कर्म से, और कर्म को जिम्मेदारी से अलग कर दिया है।

चित्रकूट के कई गाँवों में आज भी रोज़गार के पर्याप्त साधन नहीं हैं। युवा बाहरी शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। धार्मिक पर्यटन से होने वाली कमाई का लाभ सीमित वर्ग तक ही सिमटा हुआ है, आम ग्रामीण या तो मजदूरी पर निर्भर है या छोटी-मोटी दुकानों पर। संतोषजनक स्वास्थ्य सेवाएं, बेहतर शिक्षा संस्थान और कौशल विकास की सुविधाएँ अभी भी अपेक्षा के अनुरूप विकसित नहीं हो पाईं हैं।

सबसे दुखद यह है कि धार्मिक संस्थाओं और कई आधुनिक आश्रमों में भी प्रबंधन की चुनौतियाँ साफ दिखाई देती हैं। सेवा और त्याग की परंपरा की जगह कहीं-कहीं दिखावा, प्रतिस्पर्धा और धंधे का रंग स्पष्ट झलकने लगा है। यह बदलाव केवल संस्थाओं का नहीं, हमारे सामूहिक मानस का भी आईना है।

इतिहास की सीख, जिसे हमने लगभग भूल ही दिया

चित्रकूट का इतिहास हमें कुछ बुनियादी मूल्य सिखाता है—धर्म और प्रकृति के बीच गहरा रिश्ता, सत्ता और नेतृत्व में त्याग का महत्व, और भक्ति के साथ-साथ व्यवहारिक जिम्मेदारी की जरूरत। राम-भरत मिलन केवल दो भाइयों की कथा नहीं, बल्कि यह संदेश भी है कि सत्ता का असली भार वहन वही कर सकता है जो अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठ सके।

आज जब हम चित्रकूट की वर्तमान हालत देखते हैं, तो साफ समझ आता है कि हमने इन मूल्यों से दूरी बना ली है। विकास की अवधारणा हमारे लिए सिर्फ सड़क, पुल, गेस्ट हाउस, होटल और योजनाओं की घोषणा तक सिमटकर रह गई है। विकास का अर्थ यह भी होना चाहिए कि हम इस धाम की आत्मा—उसकी प्रकृति, उसकी नदियाँ, उसके जंगल, उसकी सांस्कृतिक स्मृतियाँ—सबको बचाकर रखें। लेकिन यह संतुलन आज लगभग गायब है।

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क्या अभी भी समय है? समाधान की दिशा में कुछ ठोस सवाल

सबसे अहम प्रश्न यही है कि क्या अभी भी समय बचा है? जवाब है—हाँ, लेकिन यह ‘हाँ’ बहुत लंबा नहीं है। अगर सच में चित्रकूट को बचाना है, तो कुछ बुनियादी कदमों पर ईमानदारी से काम करना होगा:

  • मंदाकिनी और अन्य नदियों के संरक्षण के लिए कठोर और व्यावहारिक नीति, जिसमें सीवर, कचरा प्रबंधन, अतिक्रमण हटाने और औद्योगिक/व्यावसायिक डिस्चार्ज पर सख्त नियंत्रण शामिल हो।
  • अवैध खनन और जंगलों की कटान पर ज़ीरो टॉलरेंस नीति, जिसमें प्रशासनिक ईमानदारी और राजनीतिक इच्छाशक्ति दोनों अनिवार्य हों।
  • धार्मिक पर्यटन को नियंत्रित, सुव्यवस्थित और पर्यावरण-संवेदी बनाना—प्लास्टिक पर पूर्ण प्रतिबंध, घाटों की नियमित सफाई, शोर और वाहन नियंत्रण जैसी बुनियादी व्यवस्थाएँ।
  • स्थानीय युवाओं के लिए कौशल विकास, रोजगार और उद्यमिता के अवसर, ताकि धार्मिक पर्यटन की कमाई सिर्फ कुछ हाथों तक सीमित न रहे, बल्कि पूरे क्षेत्र के विकास में योगदान दे।
  • धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं की सक्रिय भूमिका, जो केवल पूजा–पाठ तक सीमित न रहकर पर्यावरण संरक्षण, शिक्षा और जनजागरूकता में भी योगदान दें।

इन कदमों के बिना ‘तप–त्याग की तपोभूमि’ का नारा सिर्फ पोस्टर और भाषणों में ही अच्छा लगेगा, जमीन पर नहीं।

निष्कर्ष: राम की भूमि को बचाना, हमारी ही अग्नि-परीक्षा है

चित्रकूट की पीड़ा केवल एक भूगोल की पीड़ा नहीं है, यह हमारे समय की नैतिक और सामूहिक असफलता का प्रतीक है। जिस भूमि ने हमें आदर्श राजनीति, त्याग, भक्ति और प्रकृति के सम्मान का संदेश दिया, आज वही भूमि अपने ही लोगों से न्याय मांग रही है। सवाल यह है कि क्या हम इस पुकार को सुनेंगे?

जहाँ राम ने तिलक लगाया था, वहाँ आज धूल, धुआँ और धंधा क्यों दिख रहा है? जहाँ भरत ने चरणों की मिट्टी को जीवन का स्वाभिमान बनाया था, उसी भूमि पर आज सत्ता और सिस्टम की मिलीभगत से खनन का व्यापार क्यों फल-फूल रहा है? जहाँ तुलसी ने भक्ति की गंगा बहाई थी, वहीं आज नदियाँ गंदगी से क्यों भरी हैं?

यदि हम सचमुच चित्रकूट से प्रेम करते हैं, यदि राम–भरत की कथा हमारे लिए मात्र कहानी नहीं, मूल्य है; यदि तुलसी की वाणी हमारे लिए सिर्फ काव्य नहीं, चेतावनी है—तो हमें इस धाम को बचाने के लिए आवाज़ उठानी होगी, दबाव बनाना होगा, और अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी।

क्योंकि अगर आज हमने चित्रकूट की चीख–पुकार नहीं सुनी, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें यह कहकर कठघरे में खड़ा करेंगी कि हमने सिर्फ राम की जय-जयकार की, लेकिन राम की भूमि को बचाने के लिए कोई वास्तविक प्रयास नहीं किया।

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