प्रकाश झा
गंगा किनारे बसे गांव सिमरिया जिला बेगूसराय के लाल राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। हर कोई उनके विद्धता का कायल है, इसलिए कुछ ऐसी बातों के बारे में बताते हैं जो बहुत कम लोगों को पता है। रामधारी सिंह दिनकर स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे लेकिन जब बात देश के हित-अहित की आती थी तो वो बेबाक टिप्पणी से कतराते नहीं थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने रामधारी सिंह दिनकर को राज्यसभा के लिए नामित किया लेकिन बिना लाग लपेट के उन्होंने देशहित में नेहरू के खिलाफ आवाज बुलंद करने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई।
आज रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की 123वीं जयंती हैं दिनकर राष्ट्र के, अध्यात्म के, जन के, पुराण के कवि हैं। भले ही वे अभी हमारे बीच नहीं हैं, पर उनकी कवितायें आज भी जीवंत और प्रासंगिक हैं। उनकी बेबाकी का आलम यह था कि संसद में पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसे कद्दावर नेता की आलोचना सदन को आज भी याद हैं खास बात यह कि दिनकर आज भी युवाओं के पसंदीदा कवि हैं, और उनकी कवितायें अकसर युवाओं के मुख से सुनने को मिल जाती है।
भारतीय साहित्य को सूर्य सदृश अपनी मेधा से रौशन करने वाले कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म 23 सितम्बर, 1908 में बेगूसराय के सिमरिया गांव में हुआ था। आजादी के पूर्व उन्हें विद्रोही कवि के रूप में जाना जाता था। आजाद भारत में वह राष्ट्रकवि के रूप में लोकप्रिय हुए।
खास बात यह कि जिस पटना विश्वविद्यालय के छात्र दिनकर रहे, वहां भी उनकी रचनाओं को पढ़ाया जा रहा है। शांति नहीं तब तक जब तक, सुख- भाग न नर का सम हो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की रचना कुरुक्षेत्र की इन पंक्तियों को पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय के कालेजों में हिंदी विषय से स्नातक करने वाले छात्र एक बार पढ़ने के बाद कई बार जरूर दोहराते हैं। पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय में रामधारी सिंह दिनकर की उर्वशी व कुरुक्षेत्र तथा पटना विश्वविद्यालय में उर्वशी एवं रेणुका की पढ़ाई कराई जाती है।
पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. तरुण कुमार ने बताया कि सभी को गर्व होता है कि राष्ट्रकवि पटना विश्वविद्यालय के छात्र थे। वर्ष 1928 में वे पटना कालेज से हिंदी में स्नातक करने आए थे। तब हिंदी में स्नातक की पढ़ाई नहीं होती थी। उनके लिए विभाग स्तर पर भी वार्ता हुई थी। लेकिन, दाखिला नहीं हुआ था। इसके बाद उन्होंने इतिहास से स्नातक किया। हालांकि उनके जाने तक पटना कालेज में हिंदी स्नातक की पढ़ाई आरंभ हो गई थी। बताया कि पीजी तृतीय सेमेस्टर में उर्वशी एवं स्नातक प्रथम वर्ष में रेणुका की पढ़ाई होती है। उन्होंने बताया कि दिनकर रचनावली के नौ गद्य खंड के संपादन का उन्हें सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
‘केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए, उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए’, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की ये पंक्तियां राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के लिए बिल्कुल सटीक बैठती है। दिनकर ने कविता को मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि लोगों को जागृत करने का ज़रिया बनाया। राष्ट्रकवि दिनकर का साहित्य में क्या कद है अगर यह जानना हो तो बस दो कालजयी कृति ‘संस्कृति के चार अध्याय’ और ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ पढ़ लीजिए। इससे भी अगर मन न भरे तो रश्मिरथी के पन्ने पलटिए। आप एक ऐसे लेखनी से परिचित होंगे जो सत्ता के साथ रहते हुए भी सत्ता के खिलाफ रही। एक ऐसी लेखनी जिसमें ऐतिहासिक शौर्य का वर्णन बड़े ही ओजस्वी ढंग से की गई है। उनकी तठस्तता ही थी कि उनको सत्ता का विरोध करने के बावजूद साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, पद्मविभूषण आदि तमाम बड़े पुरस्कारों से नवाजा गया।
दिनकर सारी उम्र सियासत से लोहा लेते रहे। उन्होंने कभी किसी राजनेता की जय-जयकार नहीं की। उनके लिए किसी भी नेता से ज्यादा महत्वपूर्ण देश और देश की संस्कृति रही। उनके अंदर देश प्रेम की भावना नदी में बहने वाले पावन जल की तरह था। उन्होंने देश के लिए अपना सबकुछ लुटा देने वाले सैनिकों के लिए लिखा।
जला अस्थियां बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल
रामधारी सिंह दिनकर ने आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक पर अपनी कलम चलाई। एक वाकिया ऐसा ही है जब सीढ़ियों से उतरते हुए नेहरू लड़खड़ा गए तभी दिनकर ने उनको सहारा दिया। इसपर नेहरू ने कहा- शुक्रिया.., दिनकर तुरंत बोले-”जब-जब राजनीति लड़खड़ाएगी, तब-तब साहित्य उसे सहारा देगा।”
दिनकर ने यही तेवर ताउम्र बरकरार रखा। जब देश में आपातकाल लगा और सभी अपनी-अपनी कलम सत्ता के आगे झुका रहे थे, ऐसे वक्त में भी दिनकर ने क्रांतिकारी कविता लिखी
टूट नहीं सकता ज्वाला से, जलतों का अनुराग सखे!
पिला-पिला कर ख़ून हृदय का पाल रहा हूं आग सखे!
इजाजत लेकर लिखने से बेहतर मैं लिखना छोड़ दूं
आजकल बोलने की स्वतंत्रता पर देश में काफी बहस चलती रहती है। ऐसे में दिनकर को याद करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि उन्होंने सत्ता के खिलाफ लिखने और निर्भिक होकर बोलने की वकालत की है। उन्होंने आज़ादी के बाद देश की सत्ता से लोहा तो लिया ही लेकिन उससे पहले उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत से भी दो-दो हाथ किया था। ऐसा ही एक वाकया उस वक्त का है जब वह अंग्रेजी सरकार की नौकरी कर रहे थे। उस दौरान भी वह ब्रितानियां सरकार के खिलाफ कविता लिखते थे. उनके विरोध के कारण महज चार साल की नौकरी में दिनकर का 22 बार तबादला हुआ। एक बार जब उनको ‘हुंकार’ काव्य संग्रह के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने बुलाया और पूछा कि इसको लिखने से पहले उन्होंने इजाजत क्यों नहीं ली तो दिनकर ने कहा, ”मेरा भविष्य इस नौकरी में नहीं साहित्य में है और इजाजत लेकर लिखने से बेहतर मैं यह समझूंगा कि मैं लिखना छोड़ दूं.।’
राष्ट्रकवि भी थे और जनकवि भी
सत्ता के खिलाफ जो कवि होता है वह समाज के साथ होता। दिनकर भी ऐसे ही थे। वह राष्ट्रकवि भी थे और जनकवि भी थे। उन्होंने ऐसे वक्त में जब देश की जनता परेशान थी और सत्ता की तरफ से सताई गई थी, ऐसे वक्त में जो सुविधाभोगी बने रहे उनको दिनकर ने कविता में फटकार लगाई। उन्होंने लिखा-
कहता हूं, ओ मखमल-भोगियो श्रवण खोलो
रूक सुनो, विकल यह नाद कहां से आता है
है आग लगी या कहीं लुटेरे लूट रहे?
वह कौन दूर पर गांवों में चिल्लाता है?