मनवीर ओझा की रिपोर्ट

जयपुर की रोशनी में छिपा अंधेरा: बच्चों का बंधुआ श्रम का दर्द

दिवाली की झिलमिल रोशनी और जयपुर की रंगीन गलियों के पीछे एक ऐसी सच्चाई छिपी है, जो दिल दहला देती है। जब पूरा देश उत्सव में मग्न था, तब सात मासूम बच्चे — जिनका बचपन खिलौनों और खेल के मैदानों में बीतना चाहिए था — हर दिन आग की तपिश में चूड़ियां बनाने पर मजबूर थे। यह कहानी उस भयावह सच्चाई की है, जहां सचमुच कुचला जा रहा बचपन

कैसे पकड़ी गई अमानवीय करतूत

सोमवार की दिवाली रात, जब लोग दीपों की लौ से अंधकार मिटाने में व्यस्त थे, ये सात बच्चे जयपुर की एक चूड़ी फैक्ट्री से भाग निकले। वे इतने भयभीत और भूखे थे कि गलियों में भटकते हुए कब्रिस्तान पहुंच गए। वहीं पूरी रात उन्होंने डर के साए में काटी।

अगली सुबह स्थानीय लोगों ने इन बच्चों को देखा और तुरंत पुलिस को खबर दी। जब पुलिस पहुंची तो बच्चों की दशा देखकर हर किसी की आंखें नम हो गईं। हर चेहरा इस बात की गवाही दे रहा था कि किस हद तक कुचला जा रहा बचपन

बिहार से जयपुर तक: शोषण की दास्तान

पुलिस जांच में पता चला कि ये सभी बच्चे बिहार के अलग-अलग जिलों के रहने वाले हैं। दो महीने पहले इन्हें घूमने का लालच देकर जयपुर लाया गया था। पर हकीकत यह थी कि इन्हें चूड़ी बनाने की फैक्ट्री में बंधुआ मजदूर बना दिया गया।

ये मासूम सुबह से लेकर देर रात तक 15 से 18 घंटे तक काम करते। उन्हें केवल एक बार खाना दिया जाता। विरोध करने पर पिटाई होती। शरीर पर जले के निशान और डंडे के दाग उनकी पीड़ा बयां कर रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे इस देश में अब भी वैसा ही कुचला जा रहा बचपन जो आज़ादी से पहले था।

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मुख्य आरोपित शमशाद मियां गिरफ्तार

पुलिस के अनुसार, बच्चों की जानकारी के आधार पर शमशाद मियां नामक व्यक्ति के खिलाफ केस दर्ज कर उसे हिरासत में ले लिया गया है। यही शख्स उन्हें बहला-फुसलाकर बिहार से जयपुर लाया था।

पुलिस अब उन फैक्ट्री मालिकों तक भी पहुंचने में जुटी है, जिन्होंने इन मासूमों से अमानवीय तरीके से काम करवाया। जिले के बाल संरक्षण अधिकारी ने बताया कि यह घटना बाल श्रम कानून का स्पष्ट उल्लंघन है और यह दिखाता है कि किस तरह लगातार कुचला जा रहा बचपन हमारे समाज में एक दर्दनाक तस्वीर बन चुका है।

चूड़ी फैक्ट्रियों में बाल श्रम क्यों बढ़ता जा रहा है

जयपुर में चूड़ी उद्योग सदियों पुराना है, पर इसमें शोषण की जड़ें भी उतनी ही पुरानी हैं। पुलिस और सोशल वर्कर्स के अनुसार, मालिक बच्चों को इसलिए काम पर रखते हैं क्योंकि:

  • उनके कोमल हाथ कांच के साथ बेहतर काम करते हैं।
  • वयस्क मजदूर की आधी मजदूरी में काम मिल जाता है।
  • बच्चे डरकर फैक्ट्री से भागने या विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।

यानी यहां हर दिन, हर घंटे कुचला जा रहा बचपन

कानून हैं, पर अमल कमजोर

भारत में बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम 1986 के तहत 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों से मजदूरी कराना अपराध है। मगर हकीकत कुछ और है। जयपुर से लेकर सूरत, फिरोजाबाद तक हजारों ऐसी फैक्ट्रियां हैं जहां ये कानून सिर्फ कागजों में दिखते हैं।

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प्रशासनिक लापरवाही, रिश्वतखोरी और गरीब परिवारों की मजबूरी ने मिलकर इस अमानवीय प्रथा को जिंदा रखा है। हर बार सरकारें सख्त कदम उठाने की बात करती हैं, लेकिन नतीजा वही — हर मोड़ पर कुचला जा रहा बचपन

रेस्क्यू के बाद क्या हुआ इन बच्चों का

रेस्क्यू के बाद सभी बच्चों को शहर के बाल सुधार गृह में भेजा गया, जहां उनकी काउंसलिंग और स्वास्थ्य जांच की जा रही है। कुछ इतने आघात में थे कि बोलने से भी डर रहे थे।

मनोरोग विशेषज्ञों के अनुसार, ऐसे बच्चे मानसिक आघात का शिकार हो जाते हैं। लंबे समय तक हो रहे अत्याचार और भय से वे समाज से दूर होने लगते हैं। यह स्पष्ट संकेत है कि मनोवैज्ञानिक रूप से भी लगातार कुचला जा रहा बचपन हमारे देश की सच्चाई बन गया है।

समाज की उदासीनता, सिस्टम की चुप्पी

यह घटना केवल एक फैक्ट्री या एक अपराधी की नहीं, बल्कि पूरे समाज का आईना है। आसपास के लोगों ने शायद महीनों से इन बच्चों को देखा होगा, पर किसी ने पुलिस को नहीं बताया।

जब तक समाज उदास रहेगा और प्रशासन केवल औपचारिक जांच करेगा, तब तक हर गलियारे में कहीं न कहीं कुचला जा रहा बचपन यूं ही धड़कता रहेगा।

जिम्मेदारी किसकी है?

परिवार की, जो मजबूरी में बच्चों को काम पर भेजते हैं? या प्रशासन की, जो बाल श्रम रोकने में विफल है? या हमारी, जो आंखों के सामने हो रही बर्बरता पर चुप हैं?

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इस प्रश्न का उत्तर आसान नहीं है। लेकिन बदलाव तभी आएगा जब हर नागरिक यह तय करे कि वह अब और नहीं देखेगा कि कैसे रोज़ाना कुचला जा रहा बचपन उसकी आंखों के सामने दम तोड़ रहा है।

सरकार और समाज से अपेक्षा

सरकारी योजनाएं जैसे ‘राष्ट्रीय बाल संरक्षण योजना’ और ‘ऑपरेशन मुस्कान’ तभी सफल होंगी जब स्थानीय प्रशासन सक्रिय रहेगा। सोशल मीडिया और न्यूज़ प्लेटफॉर्म पर ऐसी घटनाओं को उजागर करना जरूरी है ताकि जनता जागरूक हो सके।

जरूरत है कठोर दंड, संवेदनशील पुलिसिंग और सामाजिक सहयोग की। तभी रुक सकेगा यह अमानवीय सिलसिला, जिसमें बार-बार कुचला जा रहा बचपन दर्दनाक सच्चाई बन जाता है।

आशा की एक किरण

इन सात बच्चों के जीवन में शायद अब नई सुबह आएगी। उन्हें शिक्षा, देखभाल और सुरक्षा का अधिकार मिलेगा। लेकिन असली जीत तब होगी जब कोई दूसरा बच्चा इस रास्ते पर न जाए।

जयपुर की इस घटना ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि विकास और रोशनी के इस युग में भी कैसे कुचला जा रहा बचपन हमारे देश की शर्मनाक हकीकत बन चुका है।

निष्कर्ष

यह केवल एक खबर नहीं, बल्कि समाज, व्यवस्था और संवेदनाओं पर गंभीर प्रश्न है। जब तक हर बच्चा स्कूल की चौखट तक नहीं पहुंचता और हर फैक्ट्री से बाल मजदूर नहीं हटता, तब तक कहना पड़ेगा कि यहां अब भी कुचला जा रहा बचपन

हमें यह प्रण लेना होगा कि कोई भी बच्चा दोबारा ऐसी चूड़ी फैक्ट्री की आग में न जले, बल्कि पढ़ाई, खेल और खुशियों में अपना बचपन जी सके।