
विनोद कुमार झा की रिपोर्ट
बिहार के कोशी क्षेत्र की धरती हमेशा से अपनी उर्वरता और सांस्कृतिक जीवंतता के लिए जानी जाती रही है। यह सिर्फ धान और गेहूं की उपज नहीं देती, बल्कि मिट्टी के कलाकार—कुम्हार—भी यहाँ की सबसे समृद्ध फसल हैं। सुपौल, कुशेश्वर स्थान, बहेरी, मधेपुरा, सौरबाजार, और बलुआ जैसे गांवों में यह मिट्टी सदियों से हाथों की कला में ढलकर जीवन रचती आई है।
इतिहास की मिट्टी और परंपरा की जड़ें
कुम्हारों की परंपरा वैदिक काल से जुड़ी है। ‘कुंभकार’ शब्द ही इसका प्रमाण है—वह जो कुंभ बनाता है। मिथिलांचल और कोशी बेल्ट के कुम्हारों की कला केवल बर्तनों तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह लोक संस्कृति और धार्मिक परंपराओं का हिस्सा रही है। छठ, दीवाली, दुर्गा पूजा या शादी-ब्याह—हर अवसर पर मिट्टी के दीये, कुल्हड़, और घड़े सामाजिक रस्मों में योगदान देते हैं।
कोशी की मिट्टी का जादू
कोशी नदी की मिट्टी में अद्भुत ‘कच्ची चिकनाहट’ होती है। यह मिट्टी बर्तन बनाने के लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती है। सुपौल और बहेरी के कुम्हार बताते हैं कि यह मिट्टी चाक पर घूमते ही अपने आप आकार ले लेती है। लेकिन हर साल की बाढ़ उनके घर, भट्ठे और तैयार उत्पाद बहा ले जाती है। बावजूद इसके, कुम्हार फिर से अपनी मिट्टी उठाकर नई आशा से बर्तन बनाते हैं।
मिट्टी की अर्थव्यवस्था और बदलता समय
बीसवीं सदी के मध्य तक मिट्टी के बर्तनों की अपनी अलग पहचान थी। कुल्हड़ में चाय पीना, घड़े का ठंडा पानी और दीये की उजली रौशनी दैनिक जीवन का हिस्सा थी। लेकिन आधुनिकता और प्लास्टिक के आगमन ने कुम्हारों की अर्थव्यवस्था को झकझोर दिया।
सुपौल के वृद्ध कुम्हार हरिशंकर ठाकुर कहते हैं — “पहले गांव का हर घर हमसे मिट्टी का बर्तन लेता था, अब सब कुछ बाजार के प्लास्टिक में मिल जाता है।”
संघर्ष और सरकारी योजनाएँ
आज कुम्हारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती बाज़ार की नहीं, बल्कि अस्तित्व की है। हाथ से चलने वाले चाक अब मोटरचालित हो चुके हैं, लेकिन अधिकांश कुम्हार इन्हें खरीदने में असमर्थ हैं। “कुम्हार सशक्तिकरण योजना” जैसी पहलों की पहुँच अभी भी सीमित है। कई बार मशीनें देने के वादे कागज़ों तक ही रह जाते हैं।
बहेरी के युवा कुम्हार संजय कुमार कहते हैं — “सरकार ने नई मशीन देने का वादा किया था, पर जो मिली, वो खराब निकली; अब फिर पुराने चाक पर लौट आया हूँ।”
मूर्तिकला और नई पहचान
अब कुम्हार केवल बर्तन नहीं, बल्कि गणेश, दुर्गा, लक्ष्मी जैसी मूर्तियाँ भी बना रहे हैं। उनके ये हस्तशिल्प दिल्ली, पटना और गुवाहाटी के मेलों में लोकप्रिय हो रहे हैं।”
सोशल मीडिया और ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म ने नई ऊर्जा दी है। सुपौल के संजीव कुमार ने “कोशी क्ले आर्ट्स” नाम से इंस्टाग्राम पेज बनाकर अपने इको-फ्रेंडली दीये देशभर में बेचने शुरू किए हैं।
सामाजिक संघर्ष और सम्मान की चाह
जातीय आधार पर पीछे धकेले गए कुम्हार अपने पेशे को आज भी सम्मान की नजर से देखना चाहते हैं। शिक्षा और रोजगार के नए अवसरों के बावजूद, उनके लिए मिट्टी की महक अब भी अपनी पहचान है।
कुशेश्वर स्थान की सवित्री देवी कहती हैं — “हमारे बच्चे कहते हैं कि मिट्टी का काम करने से कपड़ा गंदा होता है। मगर यही मिट्टी से ही तो हमारी रोटी बनती है।”
बाढ़ और पलायन की मजबूरी
कोशी की बाढ़ हर साल कुम्हार परिवारों की मेहनत पर पानी फेर देती है। मिट्टी भीगने से उत्पादन रुक जाता है और आय ठप पड़ जाती है। कई कारीगर रोज़गार की तलाश में पंजाब और हरियाणा पलायन करने को मजबूर हैं। इससे पारंपरिक कला और सांस्कृतिक धरोहर दोनों पर संकट मंडरा रहा है।
नीतिगत पहल और उम्मीदें
कुम्हार समुदाय को सशक्त करने के लिए कुछ ठोस कदम अत्यावश्यक हैं—
- स्थानीय स्तर पर ‘मिट्टी कला क्लस्टर’ विकसित किए जाएँ।
- सस्ती ऋण सुविधा और उपकरण उपलब्ध कराए जाएँ।
- विद्यालयों में ‘मिट्टी कला शिक्षा’ को शामिल किया जाए।
- ‘कुम्हार मेले’ और ‘मिट्टी उत्सव’ गांव-गांव आयोजित किए जाएँ।
मिट्टी की संस्कृति की वापसी
मिट्टी का बर्तन केवल एक वस्तु नहीं, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक आत्मा का प्रतीक है। जब कोई कुल्हड़ हाथ में उठाता है, तो वह परंपरा, श्रम और कला को एक साथ छूता है।
अगर इस मिट्टी को पहचान मिले, तो कोशी की धरती एक बार फिर ‘कला की कोख’ बन सकती है।
“मुझे केवल आकार दो, मैं तुम्हें पहचान दूँगी।”
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Q1. कोशी क्षेत्र के कुम्हार किन जिलों में पाए जाते हैं?
Q2. कुम्हारी परंपरा के मुख्य उत्पाद क्या हैं?
Q3. क्या सरकारी योजनाएँ कुम्हारों तक पहुँच रही हैं?
Q4. क्या मिट्टी कला को फिर से लोकप्रिय बनाना संभव है?