
बल्लभ लखेश्री
विद्यालय प्रारंभ होने से पूर्व ही शिक्षक राजीव कुमार प्रतिदिन घर से निकल जाया करते थे। सुबह की सैर के साथ-साथ वे विद्यालय के पेड़-पौधों की देखभाल में भी कुछ समय देते — यही उनकी दिनचर्या थी।
एक सुबह सड़क पर चलते हुए उनकी नज़र अचानक दो हजार रुपये के नोट पर पड़ी, जो रास्ते के बीचोंबीच पड़ा था। उन्होंने नोट उठाया और कुछ देर ठिठककर सोचने लगे — “इसका क्या किया जाए? किसे लौटाया जाए?” आस-पास कोई न था, इसलिए उन्होंने ठान लिया कि इसे विद्यालय के विकास कोष में जमा कर देंगे।
प्रार्थना सभा में उन्होंने पूरी घटना का उल्लेख किया और विद्यार्थियों से प्रश्न किया —
“अगर यह नोट तुम लोगों में से किसी को मिलता, तो तुम क्या करते?”
बच्चों में उत्साह फैल गया। किसी ने कहा – “मैं घूमने जाऊँगा”, किसी ने मेला देखने की बात कही, तो किसी ने खिलौने या क्रिकेट किट खरीदने की। परंतु, एक बालक — श्रवण — सहमे स्वर में बोला,
“अगर मुझे यह नोट मिल जाए, तो मैं रसोई गैस का चूल्हा और टंकी खरीदूँगा।”
राजीव सर ने चौंककर पूछा, “क्यों बेटा?” श्रवण ने धीमे स्वर में कहा —
“मेरी माँ को अस्थमा है। वह लकड़ी और उपले जलाकर खाना बनाती हैं। धुएं से उन्हें सांस लेने में बहुत तकलीफ होती है। डॉक्टर ने कहा है कि अगर धुएं से दूर नहीं रही तो उनकी जान को खतरा है।”

राजीव सर ने पूछा, “तुम्हारे पिताजी ये व्यवस्था क्यों नहीं कर लेते?” श्रवण ने आंखें झुकाकर कहा,
“पिताजी अब इस दुनिया में नहीं हैं। माँ मजदूरी करती हैं… बड़ी मुश्किल से घर चलता है।”
श्रवण की रुद्ध कंठ आवाज़ ने राजीव सर को भीतर तक छू लिया। उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा —
“यह नोट मैं तुम्हें उधार देता हूँ, लेकिन शर्त यह है कि जब तुम बड़े आदमी बनो, तो इसे लौटाना होगा।”
श्रवण ने सिर झुकाकर हामी भरी। उसी शाम वह गैस एजेंसी पहुंचा और टंकी व चूल्हा लेकर घर लौटा। दरवाज़े पर खड़ी उसकी माँ ने पूछा —
“बेटा, ये सब क्या है?”
श्रवण ने पूरी घटना बताई। माँ की आँखों में आँसू छलक आए —
“बेटा, इसकी क्या ज़रूरत थी?”
श्रवण मुस्कराया — “माँ, ज़रूरत नहीं, बहुत ज़रूरत थी… अब तुम्हारी सांसें नहीं अटकेंगी।”
उस दिन के बाद से श्रवण ने पढ़ाई में खुद को पूरी तरह झोंक दिया। उसने अपनी माँ की बीमारी, शिक्षक की प्रेरणा और अपने संघर्ष को जीवन का आधार बना लिया।
सालों बाद, एक दिन विद्यालय के सामने कलेक्टर की गाड़ी आकर रुकी। सभी शिक्षक हैरान थे। जिलाधिकारी अंदर आए, सीधे राजीव सर की कक्षा में गए, और उनके चरण स्पर्श कर बोले —
“सर, मैं आपका शिष्य श्रवण हूँ… वही, जिसने आपकी प्रेरणा से जीवन पाया। आज मैं जिलाधिकारी के पद पर हूँ, और वह कर्ज लौटाने आया हूँ — जिसने मेरी माँ को जीवन दिया।”
उन्होंने जेब से वही दो हजार रुपये का नोट निकाला और राजीव सर के हाथों में रख दिया। राजीव सर की आँखें गर्व और स्नेह से भर उठीं। उन्होंने श्रवण को गले लगाया। सभा भवन में पूरा विद्यालय तालियों से गूंज उठा — प्रेरणा और कृतज्ञता का वह क्षण सभी के हृदय में अमिट हो गया।
🕊️ संपादकीय टिप्पणी
यह कहानी केवल एक शिक्षक और विद्यार्थी के संबंध की नहीं, बल्कि प्रेरणा की चमत्कारिक शक्ति की कहानी है। राजीव सर ने जो किया, वह समाज के उस आदर्श रूप को दर्शाता है जहाँ शिक्षा केवल किताबों से नहीं, संवेदनाओं से दी जाती है।
श्रवण की कहानी यह सिखाती है कि मजबूरी से बड़ा मनोबल और गरीबी से बड़ा आत्मविश्वास होता है। सच्चा शिक्षक वही है, जो अपने विद्यार्थियों में जीवन के अर्थ जगा दे — और सच्चा विद्यार्थी वही, जो उस प्रेरणा को कर्म में ढाल दे।
संपादकीय टिप्पणी कहानी के सारांश कोबताते हुए सागर में गागर भर दिया।
गिरु और शिष्य की भरतीय परम्परा को
सशक्त रूप से उभरते हुए समाज के सामने दिनों को आदर्श के रूप में प्रस्तुत कर गुरु की संवेदना, शिष्य की कृतव्य साधना एवं मातृत्व कृतज्ञता को उच्च स्थान देकर प्रसंग में सामाजिक वातावरण कों दिशा देने का सफल प्रयास सहरानीय हैं।