-संजय सिंह राणा
बुंदेलखंड की चार लोकसभा सीटें—झांसी, हमीरपुर, खजुराहो और दमोह—2024 के बाद नए राजनीतिक संकेत दे रही हैं। यह आलेख बताता है कि कैसे यह ऐतिहासिक क्षेत्र अब भारतीय लोकतंत्र की नई धुरी बनता जा रहा है।
जहां मिट्टी इतिहास बोलती है
बुंदेलखंड, जिसे कभी चेदि, दशार्ण, चंद्रावती और जुझौती के नाम से जाना गया, आज राजनीतिक दृष्टि से भले ही राष्ट्रीय फलक पर उतना चमकता न दिखे, लेकिन इतिहास इसकी गूंज से भरा पड़ा है। पाषाणकाल से लेकर महाभारत, गुप्त और प्रतिहार वंशों तक यह भूभाग न केवल सत्ता का केंद्र रहा बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना का भी स्रोत रहा है। और अब, बदलते राजनीतिक परिदृश्य में यह क्षेत्र एक बार फिर से चर्चा में है।
इतिहास की छाया में बदलती राजनीति
जहां एक ओर कालिंजर, खजुराहो, महोबा जैसे नगरों का ऐतिहासिक गौरव बुंदेलखंड की पहचान रहा है, वहीं दूसरी ओर यहां की चार प्रमुख लोकसभा सीटें—झांसी, हमीरपुर, खजुराहो और दमोह—अब राष्ट्रीय राजनीति की नई करवट की तरफ इशारा कर रही हैं।
👉 उदाहरण के लिए, झांसी, जो रानी लक्ष्मीबाई के शौर्य के लिए जानी जाती है, अब भाजपा और कांग्रेस के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई बन चुकी है।
👉 वहीं हमीरपुर, जो कभी विकास के वादों का केंद्र रहा, अब बेरोजगारी और पानी संकट की राजनीति में उलझा हुआ है।
👉 खजुराहो, जो विश्व धरोहर स्थल है, वहां अब पर्यटन के नाम पर राजनीति गर्म है।
👉 और दमोह, जो मध्यप्रदेश की राजनीति का नाड़ी स्थल माना जाता है, वहां सामाजिक न्याय के मुद्दे उभर रहे हैं।
भाजपा बनाम कांग्रेस बनाम क्षेत्रीय मोर्चा
एक ओर भाजपा यहां मोदी-शाह ब्रांड की राष्ट्रवाद और विकास नीति के साथ मैदान में है, तो दूसरी ओर कांग्रेस राहुल गांधी की ‘न्याय’ और ‘संविधान बचाओ’ यात्रा के साथ वापसी की उम्मीद लगाए है। इसके साथ-साथ बुंदेलखंड की राजनीति में अब क्षेत्रीय दलों की सुगबुगाहट भी शुरू हो चुकी है, जैसे कि बुंदेलखंड राज्य आंदोलन समर्थक संगठन या समाजवादी धारा से जुड़ी आवाजें।
लेकिन सवाल ये है—क्या जनता अब भी सिर्फ राष्ट्रीय नारों पर वोट करेगी या पानी, पलायन और पल्स की समस्याओं पर?
सामाजिक मुद्दे बनाम धर्म और राष्ट्रवाद
महत्वपूर्ण बात यह है कि बुंदेलखंड की राजनीति अब दोराहे पर खड़ी है।
- एक रास्ता उसे धार्मिक राष्ट्रवाद की ओर ले जाता है
- दूसरा रास्ता स्थानीय समस्याओं और जन आकांक्षाओं की ओर
साल 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने यहां अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन वोटिंग पैटर्न से यह संकेत जरूर मिला कि ग्रामीण मतदाता धीरे-धीरे मुद्दों की ओर लौट रहा है।
विकास के वादे और ज़मीनी हकीकत
हालांकि सरकार की ओर से बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे, जल जीवन मिशन और पीएम आवास योजना जैसी परियोजनाओं की शुरुआत की गई है, लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि आज भी बुंदेलखंड के कई गांवों में पानी के लिए लोग मीलों चलते हैं। पलायन का ग्राफ बढ़ता जा रहा है।
इसके उलट, जनता अब नेताओं से यह पूछने लगी है कि “पिछले वादों का क्या हुआ?” यही राजनीतिक चेतना आने वाले समय में चुनावी परिणामों को भी प्रभावित कर सकती है।
फिर से बनेगा इतिहास?
बुंदेलखंड का इतिहास गवाह है कि जब-जब यह क्षेत्र जागा है, तब-तब भारत की राजनीति में हलचल मची है। अब सवाल यह है कि क्या यह ऐतिहासिक धरती एक बार फिर निर्णायक भूमिका में आएगी? या यह क्षेत्र केवल वादों और नारों के बीच पिसता रहेगा?
वक्त आ गया है कि बुंदेलखंड की जनता केवल इतिहास को गर्व से न देखे, बल्कि वर्तमान को बदलने का भी साहस दिखाए।