Sunday, July 27, 2025
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“न चप्पल, न सहारा… फिर भी डीएम दफ्तर तक पहुंचा ये साहस!”

जगदंबा उपाध्याय की रिपोर्ट

आजमगढ़ में एक दिव्यांग पति अपनी दिव्यांग पत्नी को पीठ पर उठाकर डीएम कार्यालय पहुंचा, ताकि चकबंदी के दौरान घर तक रास्ता बनवाने की गुहार लगा सके। प्रशासन की अनदेखी और मानवता की जीवंत मिसाल का यह मामला भावुक कर देने वाला है।

जब पीठ बना संबल और प्रेम बन गया हिम्मत की आवाज़…

हममें से अधिकांश ने बचपन में श्रवण कुमार की कहानी सुनी है, जिसने अपने अंधे माता-पिता को कंधे पर बैठाकर तीर्थ यात्रा कराई थी। ठीक उसी भावना को साकार करती एक घटना उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले में देखने को मिली, जहां दिव्यांग अशोक नामक व्यक्ति ने अपनी दिव्यांग पत्नी को पीठ पर उठाकर प्रशासनिक मदद की गुहार लगाई।

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यह दृश्य महज़ सहानुभूति नहीं, बल्कि व्यवस्था के प्रति एक करुण पुकार बन गया—जो विकास के दावों और ज़मीनी हकीकत के बीच गहरी खाई को उजागर करता है।

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तपती दोपहर, नंगे पाँव और उम्मीद की लौ

घटना आज़मगढ़ के जहानागंज थाना क्षेत्र के कुंजी गांव की है, जहां के निवासी अशोक का जीवन बेहद कठिनाइयों से भरा है। तपती दोपहर में जब लोग छांव तलाशते हैं, उस समय अशोक अपनी पत्नी को पीठ पर उठाकर डीएम कार्यालय पहुंचा। गर्म फर्श पर घुटनों के बल रेंगते हुए उन्होंने खुद को गमछे से बचाया, लेकिन उनकी आँखों में तपती ज़मीन से कहीं ज्यादा जलन व्यवस्था की बेरुखी की थी।

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समस्या: रास्ता नहीं, संघर्ष ही जीवन है

गांव में इन दिनों चकबंदी का कार्य चल रहा है, लेकिन दुर्भाग्यवश अशोक के घर तक जाने का कोई पक्का रास्ता नहीं है। वहाँ तक पहुँचने के लिए उन्हें कीचड़ और दलदल से होकर गुजरना पड़ता है। बारिश के दिनों में स्थिति और भी बदतर हो जाती है, जहां न तो दिव्यांग साइकिल का सहारा लिया जा सकता है और न ही कोई मदद उपलब्ध होती है।

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ऐसे में घर से बाहर निकलना मानो युद्ध लड़ने जैसा हो जाता है। यही नहीं, दिव्यांग दंपति को छोटे-छोटे दैनिक कार्यों के लिए भी मानवीय गरिमा को ताक पर रखना पड़ता है।

पहले भी दी गई थी अर्जी, नहीं हुआ कोई असर

अशोक का कहना है कि यह पहली बार नहीं है जब उन्होंने प्रशासन के सामने फरियाद रखी हो। इससे पहले भी वह डीएम कार्यालय में आवेदन दे चुके हैं, लेकिन नतीजा सिफर रहा। ना कोई जवाब, ना ही कोई कार्यवाही।

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अब उनकी उम्मीद यही है कि जब उन्होंने इतने संघर्ष के बाद एक बार फिर अपनी हालत दिखाकर गुहार लगाई है, तो शायद किसी अधिकारी का दिल पसीजे और कार्रवाई हो।

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मांग: इंसाफ नहीं, बस एक पगडंडी ही चाहिए

अशोक की मांग कोई बड़ी नहीं है। वे चाहते हैं कि जब चकबंदी का काम चल रहा है, तो उसी दौरान उनके घर तक एक छोटा सा पक्का रास्ता बना दिया जाए। यह रास्ता न केवल उनके आवागमन की परेशानी को कम करेगा, बल्कि उन्हें भी एक सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर देगा।

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उनकी इस मार्मिक अपील में न्याय की नहीं, मानवीयता की मांग छुपी है—जो किसी सरकारी फाइल में नहीं, किसी संवेदनशील अफसर के दिल में दर्ज हो सकती है।

क्या व्यवस्था जागेगी?

यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि विकास के नक्शों में कितने अशोक छूट जाते हैं, जिनकी आवाज़ न मीडिया में गूंजती है, न ही फाइलों के ढेर में कोई हलचल पैदा करती है।

सरकार और प्रशासन के लिए यह मौका है कि वे केवल योजनाएं बनाकर नहीं, ज़मीन पर उतरकर आमजन की तकलीफ समझें। क्योंकि अगर दिव्यांग व्यक्ति को पीठ पर पत्नी उठाकर डीएम कार्यालय तक आना पड़े, तो यह किसी एक व्यक्ति की नहीं, पूरे तंत्र की असफलता है।

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अशोक और उनकी पत्नी का यह साहस दया का नहीं, अधिकार का पात्र है। यह घटना सिर्फ एक समाचार नहीं, बल्कि व्यवस्था के उस हिस्से का आईना है जहां संवेदनशीलता खोती जा रही है।

जरूरत है कि इस गुहार को सुना जाए और विकास की उस पगडंडी पर चलकर, कमज़ोर आवाज़ों तक भी न्याय और सुविधा पहुंच सके।

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