{भारत के 14वें उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अचानक इस्तीफा देकर देश को चौंका दिया है। क्या यह केवल स्वास्थ्य कारणों से हुआ फैसला है, या इसके पीछे कोई गहरा राजनीतिक संदेश छिपा है? प्रस्तुत है एक विश्लेषणात्मक संपादकीय}
–अनिल अनूप
जब पद से बड़ा हो जाता है आत्मसम्मान—उपराष्ट्रपति धनखड़ के इस्तीफे की पड़ताल
भारतीय गणराज्य के संवैधानिक इतिहास में कुछ क्षण ऐसे आते हैं जो केवल घटनाएं नहीं, बल्कि भविष्य की राजनीतिक दिशा के संकेत बन जाते हैं। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का अचानक और अपेक्षाकृत असामान्य इस्तीफा ऐसा ही एक क्षण है। देश के 14वें उपराष्ट्रपति के रूप में उनका कार्यकाल अगस्त 2027 तक निर्धारित था, लेकिन उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 67(ए) के तहत राष्ट्रपति को पत्र लिखकर ‘तत्काल प्रभाव’ से अपने पद से मुक्त किए जाने का आग्रह किया।
इस इस्तीफे ने न केवल सियासी गलियारों में हलचल पैदा कर दी, बल्कि एक बार फिर यह प्रश्न उठाया कि क्या हमारे शीर्ष संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों के फैसलों के पीछे केवल घोषित कारण होते हैं, या फिर वे किसी बड़े अंतर्विरोध, असहमति और दबाव का परिणाम होते हैं?
स्वास्थ्य—सिर्फ एक सतही कारण?
निस्संदेह, श्री धनखड़ ने अपने इस्तीफे के लिए स्वास्थ्य कारणों का हवाला दिया है। उन्होंने अपने पत्र में प्रधानमंत्री मोदी और कैबिनेट के प्रति कृतज्ञता जताई है और सांसदों के स्नेह के लिए धन्यवाद भी प्रकट किया है। उन्होंने इसे ‘भारत की प्रगति और परिवर्तनकारी युग का साक्षी बनने का अवसर’ भी करार दिया।
लेकिन प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में स्वास्थ्य ही एकमात्र कारण है?
यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि संसद का मानसून सत्र प्रारंभ हो चुका है, और श्री धनखड़ उसी सप्ताह सदन की कार्यवाही का संचालन कर रहे थे। न केवल वह नेता प्रतिपक्ष खड़गे से विनोद कर रहे थे, बल्कि कार्यमंत्रणा समिति की अध्यक्षता भी कर रहे थे। यह व्यवहार किसी अत्यधिक अस्वस्थ व्यक्ति के लक्षण नहीं दिखाता।
सत्ता के गलियारों में कुछ ‘असहज’?
जिन पत्रकारों और नेताओं ने उपराष्ट्रपति को लंबे समय तक करीब से देखा है, उनका मत है कि पिछले कुछ समय से वह ‘असहज’ और चिंतनशील मुद्रा में नज़र आ रहे थे। यह संकेत देता है कि सब कुछ सामान्य नहीं था।
हालांकि जगदीप धनखड़ भाजपा या संघ की पारंपरिक विचारधारा से नहीं आते थे, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में प्रधानमंत्री मोदी से उनकी नजदीकियां बढ़ी थीं। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के तौर पर उन्होंने ममता बनर्जी सरकार के खिलाफ तीखी टिप्पणियां कर के केंद्र सरकार की विचारधारा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की थी।
उनका उपराष्ट्रपति बनाया जाना भी एक रणनीतिक निर्णय था—एक किसान नेता, एक जाट चेहरा और साफ-सुथरी छवि वाले व्यक्ति के रूप में वह भाजपा की ‘विविधता की राजनीति’ में फिट बैठते थे।
परंतु क्या हाल के दिनों में उनका मनोबल टूटने के संकेत नहीं मिल रहे थे?
संभावना है कि संसद के संचालन में उनकी भूमिका को लेकर सत्ता के गलियारों में कोई टकराव उत्पन्न हुआ हो। विपक्ष के साथ उनके हालिया संवाद, अध्यक्षीय गरिमा को लेकर उनकी संजीदगी, और संसद में कुछ विधेयकों की प्रक्रिया को लेकर उनकी आपत्तियों ने शायद सरकार के भीतर एक नाज़ुक स्थिति उत्पन्न की हो।
संवैधानिक इतिहास में यह तीसरी घटना
भारत के इतिहास में यह तीसरी बार है जब किसी उपराष्ट्रपति ने कार्यकाल पूरा होने से पहले इस्तीफा दिया है। इससे पहले 1969 में वीवी गिरि ने राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने हेतु त्यागपत्र दिया था और 1987 में आर. वेंकटरमण राष्ट्रपति निर्वाचित होने के बाद इस पद से हटे थे।
लेकिन जगदीप धनखड़ का मामला एकदम अलग है—न तो वह राष्ट्रपति पद के लिए दौड़ में हैं, न ही कोई चुनावी महत्वाकांक्षा व्यक्त की गई है। केवल ‘स्वास्थ्य’ कारण देकर पद छोड़ देना, जबकि कोई सार्वजनिक रूप से गंभीर स्वास्थ्य संकट प्रतीत नहीं होता—एक असहज संदेह को जन्म देता है।
क्या यह सरकार के भीतर ‘मतभेद’ का संकेत है?
यह विचार अब पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता कि सरकार और उपराष्ट्रपति के बीच कुछ बुनियादी नीतिगत या व्यवहारिक मतभेद रहे हों। क्या उपराष्ट्रपति अपनी स्वतंत्र कार्यशैली और संसद की गरिमा को सर्वोपरि रखने की नीति के कारण सत्ता केंद्रों की आलोचना का केंद्र बन गए थे?
क्या उन्हें संसद संचालन में ‘उपयुक्त स्वतंत्रता’ नहीं दी जा रही थी?
या फिर हालिया सत्रों में राज्यसभा की कार्यवाही को लेकर उनकी चेतावनियों और टिप्पणियों ने किसी को असहज कर दिया?
यह भी संभव है कि उपराष्ट्रपति पद की ‘संवैधानिक निष्पक्षता’ और सरकार की ‘राजनीतिक प्राथमिकताओं’ के बीच एक असहज संतुलन टूट गया हो।
इस्तीफे के पीछे कई परतें
जगदीप धनखड़ कोई साधारण राजनेता नहीं रहे। वह अक्खड़, स्पष्टवादी और जनसंवेदनाओं के निकट रहे हैं। 1989 में लोकसभा में पदार्पण करने वाले इस नेता ने चंद्रशेखर सरकार में मंत्री रहते हुए भी गरिमापूर्ण व्यवहार का परिचय दिया।
उनकी सादगी, हाजिरजवाबी और संविधान के प्रति निष्ठा हमेशा उल्लेखनीय रही है। अतः यह मान लेना कि वह ‘किसी दबाव’ में आकर इस्तीफा देंगे, शायद उनके व्यक्तित्व के साथ न्याय नहीं होगा। लेकिन यह भी सच है कि राजनीति में कई बार असहमति, अकेलापन और सैद्धांतिक टकराव भी बड़े फैसलों की पृष्ठभूमि बन जाते हैं।
अब आगे क्या?
अब राष्ट्रपति द्वारा इस्तीफा स्वीकार किए जाने के बाद नया उपराष्ट्रपति चुनने की प्रक्रिया प्रारंभ होगी। यह देखना दिलचस्प होगा कि सत्ता पक्ष अब किस चेहरे को आगे लाता है—क्या कोई संतुलित, सौम्य और आज्ञाकारी चेहरा, या फिर कोई स्पष्टवक्ता और गरिमामय व्यक्तित्व?
इस इस्तीफे ने निश्चित रूप से देश की राजनीति में एक विचारोत्तेजक संवाद को जन्म दिया है—क्या हम संवैधानिक पदों को केवल राजनीतिक मोहरे बना चुके हैं, या अब भी कुछ आत्मसम्मान, गरिमा और सिद्धांत शेष हैं?