नरेश ठाकुर और ब्रजकिशोर सिंह
फिरोजाबाद, जिसे देश का ‘कांच नगरी’ भी कहा जाता है, वहां आज भी श्रमिकों की जिंदगी चूड़ी जैसी ही नाजुक है—रंगीन जरूर, मगर आग और धुएं में झुलसती हुई। कांच उद्योग की झिलमिलाती चूड़ियों के पीछे एक स्याह सच छिपा है—मजदूरी, स्वास्थ्य, शिक्षा और मानवीय गरिमा के तमाम सवाल।
फिरोजाबाद का क्या है इतिहास
फिरोजाबाद का इतिहास मुगल काल से जुड़ा हुआ है, जब इस क्षेत्र में पहली बार कांच उद्योग की स्थापना की गई। ऐसा माना जाता है कि मुगल बादशाहों के शासनकाल के दौरान यहां कांच से संबंधित उद्योग की शुरुआत हुई थी। मुगलों ने फिरोजाबाद को कांच उद्योग के लिए उपयुक्त माना और यहां कई कारखाने स्थापित किए।
तब से ही यहां की कांच की चूड़ियों की मांग बढ़ने लगी, और फिरोजाबाद धीरे-धीरे कांच उद्योग का मुख्य केंद्र बन गया। आज फरीदाबाद की चूड़ियाँ भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। यह न केवल महिलाओं के लिए एक गहना है, बल्कि इस क्षेत्र की परंपराओं और कला का प्रतीक भी हैं।
फिरोजाबाद का चूड़ी उद्योग एक ऐसी विरासत है जो सदियों से चली आ रही है। माना जाता है कि इस उद्योग की शुरुआत हाजी रुस्तम नामक एक कारीगर ने 1920 के दशक में की थी। इन्हें ही फिरोजाबाद में कांच उद्योग का पिता कहा जाता है। हाजी रुस्तम के प्रयासों से फिरोजाबाद में कांच की चूड़ियों का उत्पादन शुरू हुआ और धीरे-धीरे यह शहर चूड़ियों के लिए प्रसिद्ध हो गया।
इतिहासकार डॉ ए बी चौबे बताते है कि सन 1910 में सेठ नंदराम जर्मन से एक कांच के जानकार को फिरोजाबाद बुलाकर लाए थे। तब यहां आधुनिक चूड़ियों का काम शुरू हुआ। लेकिन फिरोजाबाद में सबसे पहली चूड़ी जो बनाई गई वह हाजी उस्ताद रुस्तम ने बनाई थी। उस्ताद रुस्तम ने यहां रेत और रापड़ी जैसी चीजों का इस्तेमाल करके चूड़ी बनाना प्रारंभ किया। इसके अलावा उनके साथ उनके परिवार के लोग भी इस काम में शामिल थे।
🔎 कांच उद्योग का स्वरूप: श्रम आधारित लेकिन असंगठित
उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद जिले में स्थित यह उद्योग सालाना अरबों रुपये का कारोबार करता है। करीब 1 लाख मजदूर इस उद्योग में काम करते हैं, जिसमें बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चे शामिल हैं। उद्योग का अधिकांश हिस्सा असंगठित क्षेत्र में आता है, जहां श्रम कानूनों का पालन केवल कागज़ों तक सीमित रह गया है।
😷 स्वास्थ्य संकट: दमघोंटू वातावरण और बीमारियाँ
कारखानों में मजदूरों को 1200 डिग्री सेल्सियस तक तापमान पर कार्य करना होता है। वहां न तो वेंटिलेशन की व्यवस्था है, न ही सुरक्षात्मक उपकरण। इससे अस्थमा, फेफड़ों की बीमारियाँ और आंखों की रोशनी कमजोर होना आम बात हो चुकी है।
शहर के मोहल्ला इमलिया, गढ़ी चौंकी, शेखपुरा जैसे इलाकों में सैकड़ों मजदूरों ने बताया कि वे प्रतिदिन 10 से 12 घंटे तक चूड़ी भट्ठियों के सामने बैठते हैं। गर्मी और तेल की दुर्गंध से आंखें और फेफड़े दोनों जलते हैं।
💰 मजदूरी: मेहनत से कम, शोषण से अधिक
चूड़ी जोड़ाई का काम करने वाली महिलाएं बताती हैं कि उन्हें 5 से 8 रुपये प्रति तोड़ा (144 चूड़ियाँ) मिलते हैं। इस काम में दिनभर में 15 से 20 तोड़े जोड़ने पर भी 150-200 रुपये ही कमा पाती हैं, वो भी अपनी केरोसिन, प्लेट और औजार खुद लाकर।
पुरुष मजदूरों की स्थिति भी कुछ खास अलग नहीं है। माउथ ब्लोइंग जैसे जोखिमपूर्ण कार्यों के बदले उन्हें औसतन ₹350 से ₹400 प्रतिदिन मजदूरी मिलती है, जबकि उसमें से भी ओवरटाइम और बोनस की कटौती आम हो गई है।
🚨 बाल श्रम और शिक्षा की बलि
कारखानों के आसपास के मोहल्लों में स्कूल जाने की उम्र के बच्चे चूड़ी जोड़ते मिलते हैं। वजह स्पष्ट है—गरीबी, मुफ्त पढ़ाई की व्यवस्था का अभाव, और घर में महिलाओं के साथ काम करने की परंपरा। ऐसे हालात में लड़कियों की शिक्षा सबसे पहले छूटती है।
🛑 कानूनों की अनदेखी: आठ घंटे की जगह बारह घंटे काम
श्रम विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, अनेक कारखानों में मजदूरों से प्रतिदिन 12 घंटे तक काम कराया जा रहा है। न तो उन्हें ओवरटाइम दिया जा रहा है, न ही सप्ताह में एक दिन की छुट्टी। साथ ही PF, ESI और बीमा जैसी सुविधाएं भी अधिकांश मजदूरों को नहीं मिल रही हैं।
🏛️ सरकारी पहलें: राहत कम, प्रतीक्षा अधिक
सरकार ने हाल में कुछ प्रयास जरूर किए हैं, लेकिन उनके असर सीमित दिखाई दे रहे हैं—
📌 मजदूरी में ₹19 की बढ़ोत्तरी
मई 2025 से माउथ ब्लोइंग कारखानों के मजदूरों की दैनिक मजदूरी में ₹19 की बढ़ोत्तरी की गई है। लेकिन यह मजदूरों की वास्तविक जरूरतों और महंगाई के मुकाबले नाकाफी मानी जा रही है।
📌 पर्यटन योजना
“श्रवण कुमार श्रमिक परिवार तीर्थ योजना” के तहत श्रमिकों को परिवार सहित धार्मिक स्थलों की यात्रा कराई जा रही है। परंतु इस योजना का लाभ बहुत सीमित मजदूरों तक ही पहुँच पाया है।
📌 प्रदूषण नियंत्रण की सुप्रीम कोर्ट पहल
मई में सुप्रीम कोर्ट ने 60 कांच इकाइयों की जांच का आदेश दिया, जिससे यह सिद्ध होता है कि पर्यावरणीय लापरवाहियों पर भी कार्यवाही लंबित है।
👷 क्या कहती हैं यूनियन और सामाजिक संस्थाएं
श्रमिक संगठन “कांच उद्योग मजदूर संघ” के अध्यक्ष राजेश यादव का कहना है—
“सरकार और फैक्ट्री मालिक केवल दिखावे की बैठकें करते हैं। जब तक ठोस निगरानी और कानूनी दंड लागू नहीं होंगे, मजदूरों के हालात नहीं सुधरेंगे।”
वहीं, महिला संगठन ‘निर्माण महिला मंच’ की संयोजिका रुखसार खान कहती हैं—
“फिरोजाबाद में महिला श्रमिक दोहरा शोषण झेलती हैं—कम मजदूरी और स्वास्थ्य जोखिम दोनों का।”
रोशनी के पीछे अंधेरा
फिरोजाबाद की रंगीन चूड़ियाँ भले ही देश-विदेश की दुकानों में बिकती हों, लेकिन उन्हें बनाने वालों की जिंदगी आज भी धुंध, धुआं और शोषण में फंसी हुई है। सरकार की योजनाएं स्वागत योग्य हैं, परंतु यदि उन्हें धरातल पर ईमानदारी से लागू नहीं किया गया तो ये केवल कागज़ी घोषणाएं बनकर रह जाएंगी।
श्रम कानूनों का सख्ती से पालन, महिला और बाल श्रमिकों के लिए विशेष सुरक्षा उपाय और सामाजिक संस्थाओं की भागीदारी के बिना इस उद्योग की तस्वीर नहीं बदली जा सकती।