आधुनिक तवायफें : बदलते दौर की ‘और्केस्ट्रा गर्ल्स’

"रंगीन स्टेज लाइट्स के बीच पारंपरिक इंडियन आउटफिट्स में पांच महिलाएं एक ग्रुप डांस परफॉर्मेंस करती हुईं"

 

 

🎙️ आधुनिक तवायफें 

📝 लेखक: अनिल अनूप

🎶 तवायफों से और्केस्ट्रा तक – मनोरंजन का बदलता चेहरा

कभी लखनऊ, बनारस और कानपुर की गलियों में तवायफों का कला संसार बसता था। वही मुजरा, वही ठुमरी, वही अदा अब एक नए रूप में जी उठी है — “और्केस्ट्रा गर्ल्स” के मंच पर।

आज ये मंच किसी दरबार में नहीं, बल्कि बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड के कस्बों और मेलों में सजे मिलते हैं। रात के अंधेरे में टिमटिमाती लाइटों, तेज डीजे साउंड और मंच पर नाचती युवतियों के बीच, लोगों की भीड़ अब भी वही पुरानी ‘मोहिनी कला’ देखने आती है — बस मंच और मिज़ाज बदल गया है।

🌆 कहां से आती हैं ये और्केस्ट्रा गर्ल्स?

इन कलाकारों का स्रोत सामाजिक-आर्थिक ढांचे में गहराई से जुड़ा हुआ है। ज्यादातर और्केस्ट्रा गर्ल्स उत्तर प्रदेश के गाजीपुर, बलिया, देवरिया, गोरखपुर, आजमगढ़, सुल्तानपुर, बक्सर और भोजपुर (बिहार) जैसे जिलों से आती हैं।

इनमें से कई पूर्वांचल की पिछड़ी जातियों से हैं — जैसे नट, बिंद, डोम, बहरूपिया, मल्लाह, कुशवाहा आदि। कुछ तो पहले छोटे गांवों में स्थानीय मेलों में नाचने वाली औरतें थीं, जिन्हें अब और्केस्ट्रा कंपनियों ने ‘नए मंच’ पर ला खड़ा किया है।

“हम पहले बारात में गाना गाते थे, अब टीम बनाकर शो करती हैं,” कहती हैं रीना (परिवर्तित नाम), जो वाराणसी की एक और्केस्ट्रा टीम में पिछले पाँच साल से काम कर रही हैं।

“अब मंच बड़ा है, रोशनी ज़्यादा है, लेकिन सम्मान वही पुराना है — अधूरा।”

🎤 ट्रेनिंग और तैयारी : देहभाषा से लेकर डीजे तक

आज की और्केस्ट्रा गर्ल्स को कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं मिलता। उनका “सीखना” जीवन की ज़रूरतों से उपजा हुआ है।

कुछ को स्थानीय डांस मास्टर या बैंड पार्टी मालिक गानों की बीट पर मूव्स सिखा देते हैं। कुछ खुद ही यूट्यूब या टीवी पर देखकर स्टेप्स कॉपी करती हैं।

लेकिन मंच पर उतरने से पहले हर लड़की को समझाया जाता है —

“चेहरा मुस्कुराता रहना चाहिए, दर्शक को लगना चाहिए कि तुम उसी के लिए नाच रही हो।”

इस कला में देहभाषा और दर्शक की मनोवृत्ति को पढ़ना सबसे बड़ा हुनर है। जहां पहले तवायफें ठुमरी या दादरा में दिल की बात कहती थीं, वहीं अब और्केस्ट्रा गर्ल्स डीजे बीट पर “लहंगा में पावरबैंक बा” जैसी पंक्तियों पर थिरकती हैं।

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💸 कितना कमाती हैं और्केस्ट्रा गर्ल्स?

आय का पैमाना कलाकार की प्रसिद्धि और आयोजन के पैमाने पर निर्भर करता है। छोटे कस्बों में एक कार्यक्रम का भुगतान ₹1000 से ₹2500 प्रति लड़की होता है। बड़े आयोजनों या शादी सीज़न में ₹5000 से ₹10,000 तक भी मिल सकता है।

“टीम लीडर” या “मुख्य डांसर” को सबसे ज़्यादा हिस्सा मिलता है, जबकि बैकअप डांसर को आधा। लेकिन यह सारा पैसा हमेशा उनके हाथ में नहीं आता।

“मालिक” या “ऑर्गेनाइज़र” अक्सर 30-40% कमीशन काट लेते हैं। यानी जो रातभर नाचती हैं, उनके हिस्से में मेहनताना कम और ठोकरें ज़्यादा आती हैं।

🏠 ये पैसे कहां जाते हैं?

इन युवतियों का जीवन मंच की चकाचौंध से उलट होता है। अधिकांश और्केस्ट्रा गर्ल्स गरीब परिवारों की हैं — जिनके घरों में बूढ़े माता-पिता, छोटे भाई-बहन या बच्चे हैं।

कमाई का बड़ा हिस्सा घर भेज दिया जाता है। बाकी पैसा किराए के कमरे, मेकअप, कपड़ों और आने-जाने में खर्च हो जाता है। कुछ लड़कियां मोबाइल फोन, गहने या ब्यूटी प्रोडक्ट्स पर खर्च करती हैं — यह उनके आत्मसम्मान की छोटी जीत होती है।

कुछ दूसरों के अनुसार, “यह पैसा सिर्फ पेट चलाने का साधन है, सम्मान अब भी बाकी है।”

🎭 सामाजिक नज़र और दोहरी मानसिकता

समाज आज भी और्केस्ट्रा गर्ल्स को “नाचनेवाली” कहकर देखता है, न “कलाकार” कहकर। हालांकि, यह विरोधाभास गहरा है — जिन लड़कियों को मंच पर देखने लोग हजारों की भीड़ में उमड़ते हैं, वही लड़कियां मंच से उतरते ही अपमान और असुरक्षा से जूझती हैं।

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“हमारे शो के बिना बारात अधूरी मानी जाती है,” सविता (परिवर्तित नाम) हंसते हुए कहती हैं, “पर कोई हमें बेटी या बहू के रूप में नहीं देखता।” यानी समाज को उनकी कला चाहिए, पर उनका अस्तित्व नहीं।

🛣️ सुरक्षा और शोषण का अंधेरा

यह उद्योग बहुत बड़ा है, लेकिन बिना किसी नियम या सुरक्षा ढांचे के चलता है। कई आयोजनों में शराब और भीड़ की गर्मी के बीच ये लड़कियां छेड़खानी, हिंसा या उत्पीड़न का शिकार हो जाती हैं।

शिकायत दर्ज कराने की हिम्मत कम ही जुटा पाती हैं, क्योंकि आयोजक अक्सर प्रभावशाली होते हैं। कुछ राज्यों में पुलिस ने और्केस्ट्रा शो पर समय सीमा लगाई है — जैसे उत्तर प्रदेश में रात 10 बजे के बाद ऐसे कार्यक्रमों पर रोक है।

लेकिन व्यावहारिक रूप से ये शो रात भर चलते हैं, और कई बार अवैध सौदों की भी आड़ बन जाते हैं।

💃 बदलती पीढ़ी, बदलता मंच

नई पीढ़ी की और्केस्ट्रा गर्ल्स अब सोशल मीडिया का भी इस्तेमाल करने लगी हैं। यूट्यूब, फेसबुक और इंस्टाग्राम पर इनके छोटे-छोटे वीडियो वायरल होते हैं।

कुछ ने तो इससे अपना “फैन बेस” बना लिया है — जो पुराने समय की “कदरदान मंडली” जैसा ही है, बस डिजिटल रूप में।

“पहले गांव के मेले में लोग जानते थे, अब फेसबुक पर हजारों लोग फॉलो करते हैं,” कहती हैं नेहा बिंद, जो बक्सर की प्रसिद्ध टीम “नाच घराना” की सदस्य हैं।

लेकिन सोशल मीडिया ने शोहरत के साथ आलोचना भी बढ़ाई है — जहां कुछ लोग इनकी कला की सराहना करते हैं, वहीं कई इन्हें “अश्लीलता” का प्रतीक मानते हैं।

📈 और्केस्ट्रा उद्योग का आकार और आर्थिक पहलू

अभी तक इस उद्योग पर कोई आधिकारिक रिपोर्ट नहीं है, लेकिन स्थानीय प्रशासनिक अनुमानों के अनुसार उत्तर भारत में लगभग 4000 से अधिक और्केस्ट्रा ग्रुप सक्रिय हैं, जिनमें 20,000 से अधिक युवतियां किसी न किसी रूप में काम कर रही हैं।

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इनमें से अधिकांश असंगठित श्रमिक हैं — जिनका कोई रजिस्ट्रेशन, बीमा या श्रम अधिकार नहीं है। इस पूरे उद्योग का सालाना कारोबार 50 से 70 करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है। त्योहारों, चुनावी सभाओं, बारातों और मेला-प्रदर्शनियों के मौसम में इसकी मांग चरम पर होती है।

🌸 कला या व्यापार?

यही सबसे बड़ा सवाल है — क्या यह कला का पुनर्जन्म है या समाज की गरीबी से उपजा बाजार? पुरानी तवायफें संगीत, शायरी और नृत्य की विदुषी थीं — उनकी कला में “संस्कृति” थी, जबकि आज की और्केस्ट्रा संस्कृति “मनोरंजन” में सिमट गई है।

परंतु दोनों के बीच एक सूत्र अब भी जीवित है — पुरुष-प्रधान समाज में महिला शरीर का उपभोग और प्रशंसा, दोनों साथ-साथ चलते हैं।

🕊️ बदलाव की आहट

हाल के वर्षों में कुछ गैर-सरकारी संगठन इन और्केस्ट्रा गर्ल्स के अधिकारों पर काम करने लगे हैं। वे इन्हें सेल्फ-हेल्प ग्रुप, कानूनी सलाह और सुरक्षा प्रशिक्षण देने की कोशिश कर रहे हैं।

कुछ राज्य सरकारें इन टीमों को “फोक आर्ट ग्रुप” के रूप में मान्यता देने पर विचार कर रही हैं, ताकि उन्हें भी कलाकारों जैसे अधिकार और सम्मान मिल सके।

अगर ऐसा हुआ, तो शायद ये “आधुनिक तवायफें” भी समाज के लिए कला की प्रतिनिधि बन सकें — न कि “मनोरंजन की वस्तु”।

🌙 चमक के पीछे की कहानी

और्केस्ट्रा गर्ल्स के मंच पर जब रोशनी पड़ती है, तब वह सिर्फ उनके शरीर पर नहीं, बल्कि उस समाज की विडंबना पर भी पड़ती है — जहां स्त्री अभी भी अपनी कला से नहीं, अपने शरीर से पहचानी जाती है।

कभी लखनऊ की चौक हवेलियों में ठुमरी की मिठास थी, आज वही मिठास डीजे की गूंज में दब गई है। लेकिन इन दोनों के बीच एक निरंतरता है — नाच अब भी ज़िंदा है, बस ताल बदल गई है।

"रंगीन स्टेज लाइट्स के बीच पारंपरिक इंडियन आउटफिट्स में पांच महिलाएं एक ग्रुप डांस परफॉर्मेंस करती हुईं"

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