कहा जाता है कि आदमी जब बूढ़ा होता है तो उसे सबसे ज्यादा जरूरत अपनापन, सहारा और प्यार की होती है। लेकिन हर किसी की किस्मत में यह अंतिम सहारा नहीं लिखा होता। कुछ लोगों के लिए बढ़ती उम्र किसी शांत शाम की तरह नहीं, बल्कि ऐसे अंधेरे कमरे की तरह होती है जो अपने ही परिवार की बेरुख़ी से भर जाता है।
दिल्ली के द्वारका स्थित एक वृद्धाश्रम की कहानी सिर्फ चार दीवारों की नहीं — यह उन लोगों का सफर है जिन्हें जिंदगी ने उम्र के आखिरी पड़ाव पर इतना अकेला कर दिया कि उनका टूटना और संभलना दोनों यहां दर्ज है।
अशोक कुमार — “नियति को अभी मेरी कहानी खत्म नहीं करनी थी”
71 वर्षीय अशोक कुमार शर्मा की आंखें बीते 20 सालों से दुनिया नहीं देख पाईं, लेकिन दिल आज भी हर दर्द को महसूस करता है। पत्नी की मौत, घर बिक जाना, रिश्तेदारों के ताने और मन की मौत तक पहुंचा देने वाला अपमान — इन सबके बीच एक दिन उन्होंने सोचा कि बस अब सब खत्म कर देना चाहिए। यमुना में कूदने से लेकर बस के नीचे आने के इरादे तक, वह मौत के ठीक सामने बैठे थे… पर किसी बस के नीचे नहीं गए।
अशोक शर्मा कहते हैं— “शायद नियति को मेरी कहानी अभी खत्म नहीं करनी थी।”
जीवन में अंधेरा आंखों से पहले दिल में उतर चुका था। रिश्तेदारों के साथ रहने की मजबूरी, दो वक्त की रोटी के लिए अपमान, और हर दिन तानों की तेजाब— इतने घाव क्या एक इंसान को खत्म करने के लिए काफी नहीं?
लेकिन एक दिन किसी अजनबी ने उन्हें रास्ता दिखाया — सीधे इसी वृद्धाश्रम तक।
यहां पहुंचकर उन्हें लगा जैसे दूसरा जन्म मिल गया। खाने का समय निश्चित, दवाइयों की चिंता नहीं, और सबसे जरूरी — मान-सम्मान।
वह कहते हैं — “यहां किसी को किसी की कमजोरी नहीं तौलनी पड़ती। क्योंकि सब अपने-अपने दर्द लेकर आए हैं।”
देव सिंह — “हां, मैं गलत था… लेकिन क्या इसके लिए प्यार खत्म हो जाना चाहिए था?”
76 वर्षीय देव सिंह कभी ऑटो चलाते थे। कब शराब उनकी आदत से उनके स्वभाव में और फिर उनके रिश्तों में घुल गई — उन्हें पता ही नहीं चला।
हर शाम नशे में घर लौटना, झगड़ा, गुस्सा, चीख-पुकार… घर टूटने में देर नहीं लगी।
बेटा, बहू और बेटी थे, लेकिन धीरे-धीरे सब दूर होते चले गए।
एक दिन जब बेटी ने अपने ही पिता पर हाथ उठा दिया — उस रात वह नींद और उम्मीद दोनों हार गए। सुबह घर से निकले, लौटने का इरादा था… पर वह घर फिर कभी नहीं मिला।
देव सिंह कहते हैं —
“अगर वक्त पीछे जा पाता तो सबसे पहले शराब छोड़ता… शायद आज पोते-पोती के साथ खेल रहा होता। लेकिन अब सब बीत चुका है।”
आज वृद्धाश्रम के हर बुजुर्ग उनमें अपना दर्द ढूंढते हैं और हर इवेंट, हर चाय की चुस्की में वह एक पिता, एक दोस्त और एक सहारा बन चुके हैं।
वह मुस्कुराकर कहते हैं —
“अब यही मेरा घर है… और यही मेरा परिवार।”
मुकेश — “मुझे किसी गैर ने नहीं, अपनों ने लूटा”
61 वर्षीय मुकेश का दर्द विश्वासघात की सबसे क्रूर तस्वीर है।
दो मकानों के मालिक रहे मुकेश को न कोई नशे की आदत थी न व्यवहार की कमी। उनका अपराध सिर्फ इतना था — वह अपने भाई पर आंख बंद करके भरोसा करते थे।
बीमार होने पर भाई ने कहा — “मेरे पास आ जाओ, उपचार कराऊंगा।”
कुछ महीनों तक सब ठीक चला, फिर धीरे-धीरे साजिश शुरू हुई।
भोजन में नशीला पदार्थ मिलाकर मुकेश को बेहोश किया जाता, फिर शराब और सिगरेट के साथ फोटो खींचकर फैमिली में भेजी जाती — ताकि सबको लगे कि वह शराबी हैं, अपराधी हैं, और परिवार पर बोझ हैं।
फर्जी साइन करवाकर बैंक अकाउंट से सारा पैसा निकलवा लिया गया।
फिर घर से निकाला गया… और बहन के घर फोन करने पर उनकी भांजी के शब्द ने सब खत्म कर दिया —
“मामा, आगे से फोन मत करना।”
मुकेश कहते हैं —
“अब मुझे सबसे ज्यादा डर इंसानों पर भरोसा करने से लगता है।”
लेकिन इसी वृद्धाश्रम में उन्हें पहली बार यह अहसास हुआ कि भरोसा टूटे दिलों का भी परिवार बनता है।
देव गोस्वामी — बस ड्राइवर से 400 बुजुर्गों के संरक्षक तक
इस वृद्धाश्रम के संस्थापक देव गोस्वामी पेशे से बस ड्राइवर रहे।
सड़क पर भूखे, गंदे कपड़ों में, लाचार बुजुर्गों को देखकर उनका मन टूट जाता था।
1990 में उन्होंने ठान लिया कि वे ऐसे लोगों के लिए घर बनाएंगे — और आज दिल्ली में बने तीन आश्रमों में लगभग 400 बुजुर्ग रहते हैं।
वे कहते हैं —
“माता-पिता हमें जन्म देकर बड़ा करते हैं… और हम उन्हें बुढ़ापे में अकेला छोड़ देते हैं — इससे बड़ा अपराध क्या हो सकता है?”
उनकी अंतिम अपील दिल को छू लेने वाली है —
“अपने परिवार के बुजुर्गों को घर से मत जाने दीजिए। क्योंकि उन्हें सिर्फ रहने की जगह नहीं — अपनापन चाहिए।”