रोशनी के लिए मोमबत्ती का सहारा ; एक गाँव जहाँ आजादी के 78 साल बाद भी बिजली नहीं आई

अनुराग गुप्ता की रिपोर्ट

उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में विकसित भारत का सपना आज भी अधूरा है। तहसील क्षेत्र के बसावनपुर के ग्राम अन्नीपुर में आजादी के 78 साल बाद भी बिजली का खंभा तो खड़ा है, लेकिन घरों में रोशनी नहीं पहुँची। अंधेरे से जूझते इस गांव की हकीकत यह है कि रात ढलते ही यहां के लोग अभी भी मोमबत्ती, लालटेन और मामूली सौर लैंप के सहारे जिंदगी काटने को मजबूर हैं। सरकारी फाइलों में भले ही “हर घर रोशन” का दावा हो, लेकिन अन्नीपुर की जमीनी तस्वीर इन दावों पर बड़ा सवाल खड़ा करती है।

सीतापुर का वह गांव, जहाँ विकास की रोशनी अब तक नहीं पहुँची

सीतापुर जिले के बसावनपुर के अंतर्गत आने वाला ग्राम अन्नीपुर आकार में भले छोटा हो, लेकिन यहां की
समस्याएं बहुत बड़ी हैं। गांव में लगभग 45 घर हैं और आबादी करीब 700 के आसपास बताई जाती है। गांव में एक प्राथमिक विद्यालय भी संचालित है, जहां दर्जनों बच्चे अपनी बुनियादी शिक्षा पूरी करने की कोशिश कर रहे हैं।
मगर विडंबना यह है कि जिस दौर में स्मार्ट क्लास, डिजिटल बोर्ड और ऑनलाइन पढ़ाई की बातें हो रही हैं, उसी दौर में अन्नीपुर के बच्चे रात में पढ़ने के लिए पर्याप्त रोशनी तक से महरूम हैं।

“खंभे खड़े हैं, पर करंट नहीं” – जमीनी हकीकत बयां करते ग्रामीण

गांव के ही निवासी जयंती लाल वर्मा बताते हैं कि आजादी के बाद से लेकर अब तक चुनाव तो कई बार हुए, सरकारें बदलीं, योजनाओं के नाम बदले, लेकिन अन्नीपुर में हालत नहीं बदले। उनके अनुसार कई वर्ष पहले गांव में विद्युत खंभे तो गाड़ दिए गए, कुछ जगह तार भी खींचे गए, पर न तो घरों में कनेक्शन पहुंचे और न ही गांव की गलियों में स्ट्रीट लाइटें जल सकीं।

ग्रामीणों का कहना है कि नेताओं और अफसरों से उन्हें सालों से सिर्फ आश्वासन ही मिलते रहे हैं।
चुनाव के समय अन्नीपुर की गलियों में “जल्द ही बिजली पहुँचेगी” के वादे गूंजते हैं, लेकिन जैसे ही चुनाव बीतते हैं, फाइलों के साथ उम्मीदें भी कहीं दब जाती हैं। लोगों का दर्द यह भी है कि गांव की समस्या सुनने के लिए कोई जिम्मेदार अधिकारी मौके पर आकर वास्तविक स्थिति देखने की जहमत नहीं उठाता।

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अंधेरा, जंगली जानवरों का डर और असुरक्षा की स्थायी भावना

अन्नीपुर में शाम ढलते ही सन्नाटा और डर दोनों साथ उतर आते हैं। गांव के चारों ओर खेत और खाली जमीन होने के कारण जंगली जानवरों की आवाजाही बनी रहती है। ग्रामीण बताते हैं कि बिजली न होने से रात में दूर तक कुछ दिखाई नहीं देता, ऐसे में महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों की सुरक्षा को लेकर चिंता बनी रहती है।

गांव के रास्तों पर स्ट्रीट लाइट न होना भी बड़ी समस्या है। किसी के बीमार पड़ जाने पर रात में अस्पताल तक ले जाना स्थानीय लोगों के लिए चुनौती बन जाता है। मोबाइल टॉर्च या छोटी बैटरियों का सहारा लेकर लोग जैसे-तैसे रास्ता तय करते हैं। कई बार सांप-बिच्छू जैसे खतरनाक जीव भी अंधेरे का फायदा उठाकर घरों तक पहुंच जाते हैं।

मोमबत्ती की लौ में भविष्य तलाशते बच्चे, पढ़ाई पर गहरा असर

गांव के बच्चे दिन में स्कूल में पढ़ते हैं, लेकिन शाम होते ही अधिकांश के हाथ बंध जाते हैं। बिना बिजली के न तो पर्याप्त रोशनी मिल पाती है, न ही मोबाइल या किसी अन्य माध्यम से अतिरिक्त पढ़ाई संभव हो पाती है।
कई घरों में सौर लैंप हैं, पर उनकी रोशनी सीमित और समय भी कम होता है।

ग्रामीण बताते हैं कि बच्चों की आँखों पर भी इसका बुरा असर पड़ रहा है। कमजोर रोशनी में देर तक पढ़ना उनकी दृष्टि के लिए नुकसानदेह है, जबकि प्रतिस्पर्धा के इस दौर में उन्हें शहरों के बच्चों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना है। कुछ अभिभावक बेबसी में कहते हैं कि बिजली होती तो वे अपने बच्चों को ज्यादा समय तक पढ़ा सकते, ऑनलाइन सामग्री दिखा सकते, लेकिन मौजूदा हालात में वे केवल पारंपरिक तरीकों तक ही सीमित हैं।

“बिजली नहीं तो रिश्ता नहीं” – युवाओं के लिए चिंता का कारण बना अंधेरा

विद्युतीकरण न होने का असर केवल पढ़ाई या रोजमर्रा की जरूरतों तक सीमित नहीं है, यह गांव के सामाजिक जीवन पर भी गहरा प्रभाव डाल रहा है। ग्रामीणों के अनुसार यहां के लड़कों की शादी में भी बिजली बड़ी बाधा बनती जा रही है।
कई बार रिश्ते की बातचीत आगे बढ़ती है, लेकिन जब यह पता चलता है कि गांव में अब तक बिजली नहीं है, तो लड़की पक्ष पीछे हट जाता है।

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चित्रकूट से उठते असहज सवाल

युवाओं का कहना है कि वे आधुनिक दौर में पीछे छूटते जा रहे हैं। रोजगार के अवसर पहले ही सीमित हैं, ऊपर से गांव की यह बदहाल छवि उनके भविष्य पर अतिरिक्त बोझ बनकर बैठ गई है। वे चाहते हैं कि कम से कम बुनियादी सुविधा के तौर पर बिजली तो मिले, ताकि गांव की पहचान “अंधेरे वाले गांव” के नाम से न हो।

केरोसिन बंद, सौर लैंप और मोमबत्ती ही सहारा

सरकार द्वारा केरोसिन पर निर्भरता कम करने के उद्देश्य से पीडीएस के जरिए मिलने वाला मिट्टी का तेल
काफी हद तक बंद कर दिया गया है। शहरों और विकसित क्षेत्रों में यह निर्णय सही दिशा में उठाया गया कदम माना जा सकता है, लेकिन अन्नीपुर जैसे गांव के लिए यह फैसला उल्टा पड़ता दिख रहा है।

यहां के लोगों को अब रोशनी के लिए वैकल्पिक साधन खुद तलाशने पड़ रहे हैं। कुछ परिवारों ने सौर पैनल और छोटे लैंप लगवाए हैं, पर हर गरीब परिवार के लिए यह विकल्प संभव नहीं है। महंगी मोमबत्तियां और बैटरी बार-बार खरीदना भी आसान नहीं, लेकिन मजबूरी है कि रोजमर्रा के कामों के लिए उन्हें यही करना पड़ रहा है।

कागज़ों में “हर घर बिजली”, जमीन पर अब भी अंधेरा

देश में गाँव–गाँव तक बिजली पहुँचाने के लिए विभिन्न योजनाएं चल रही हैं, लेकिन अन्नीपुर जैसे गांव
साबित करते हैं कि कई जगह योजनाएं सिर्फ कागज़ों तक सीमित हैं। ग्रामीणों का आरोप है कि अधिकारियों की बेरुखी और लापरवाही के कारण आज भी उनका गांव मूलभूत सुविधाओं से वंचित है।

गांव के बुजुर्ग कहते हैं कि जब से होश संभाला, तब से अन्नीपुर को अंधेरे में ही देखा है। अब वे चाहते हैं कि कम से कम आने वाली पीढ़ी को यह हालात न झेलने पड़ें। लोगों की साफ मांग है कि प्रशासन जल्द से जल्द गांव का पूरा सर्वे कराकर यहां नियमित बिजली आपूर्ति की व्यवस्था करे।

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आजादी के 78 साल बाद भी जब कोई गांव रोशनी के लिए मोमबत्ती और लालटेन का सहारा लेने को मजबूर हो, तो यह केवल उस गांव की नहीं, पूरे तंत्र की विफलता है। अन्नीपुर जैसे गांव हमें यह याद दिलाते हैं कि विकास के आंकड़ों और भाषणों से आगे बढ़कर भी एक सच है – वह सच, जो अंधेरी रातों में टिमटिमाती लौ के सहारे अपना कल तलाशता है। अब ज़रूरत इस बात की है कि जिम्मेदार अधिकारी और जनप्रतिनिधि इस गांव की सुध लें, ताकि अन्नीपुर भी सचमुच “रोशनी के युग” में कदम रख सके।

सवाल–जवाब : अन्नीपुर गांव की समस्याओं से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न

❓ अन्नीपुर गांव में आज तक बिजली क्यों नहीं पहुंची?

ग्रामीणों के अनुसार कई वर्षों पहले गांव में बिजली के खंभे तो खड़े कर दिए गए, लेकिन उसके बाद
न तो लाइनों का पूरा कार्य हुआ और न ही घरों में कनेक्शन पहुंचे। अफसरों की उदासीनता और
फाइलों में उलझी प्रक्रियाओं के चलते आज भी यह गांव वास्तविक विद्युतीकरण से वंचित है।

❓ बिजली न होने से बच्चों की पढ़ाई पर क्या असर पड़ रहा है?

बच्चों को शाम के बाद पढ़ने के लिए पर्याप्त रोशनी नहीं मिल पाती। वे मोमबत्ती या कमजोर सौर लैंप
की रोशनी में पढ़ने को मजबूर हैं, जिससे उनकी आँखों पर दबाव बढ़ता है और पढ़ाई का समय भी सीमित हो जाता है।
डिजिटल शिक्षा या ऑनलाइन सामग्री तक पहुंच लगभग असंभव है।

❓ गांव के सामाजिक जीवन और शादियों पर बिजली न होने का क्या प्रभाव है?

ग्रामीणों के मुताबिक, अन्नीपुर में बिजली न होने की जानकारी मिलते ही कई बार रिश्ते टूट जाते हैं।
लड़की पक्ष गांव की मूलभूत सुविधाओं की कमी को देखते हुए पीछे हट जाता है। इससे युवाओं के भविष्य पर
सीधा असर पड़ता है और गांव की सामाजिक छवि भी कमजोर होती है।

❓ ग्रामीण प्रशासन और सरकार से क्या मांग कर रहे हैं?

ग्रामीणों की मुख्य मांग है कि अन्नीपुर गांव का तत्काल सर्वे कराकर यहां समयबद्ध तरीके से
पूर्ण विद्युतीकरण कराया जाए। वे चाहते हैं कि केवल चुनावी वादों के बजाय जमीन पर काम हो, ताकि उनके गांव की अंधेरी गलियों में भी स्थायी रूप से रोशनी पहुंच सके।

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