
लखनऊ। कबीर के दर्शन और उनकी सूफियाना फिक्र को समर्पित कबीर महोत्सव का दूसरा दिन पूरी तरह से अदब, एहसास और जज़्बात की महफ़िल सा साबित हुआ। कार्यक्रम में सजी मुशायरे की शाम ने न केवल शहर के उर्दू-शायरी प्रेमियों को आकर्षित किया बल्कि नई पीढ़ी के साहित्यिक स्वाद को भी एक नई ऊंचाई दी। मंच पर आते ही शायरों ने अपने अंदाज़ और अल्फ़ाज़ से ऐसा जादू बिखेरा कि श्रोतागण तालियों और वाह-वाह की गूंज में देर तक डूबे रहे।
कबीर महोत्सव में इस बार न केवल फनकारों का जमावड़ा रहा, बल्कि दिलों का मिलन भी हुआ—जैसे पिछले वक़्तों की महफ़िलें फिर से ज़िंदा हो उठीं। शाम ढलते ही मंच की रोशनियों के बीच जब पहला शेर पढ़ा गया, तो लगता था कि हवा में अल्फ़ाज़ तैर रहे हैं और हर श्रोता अपनी रूह को उन छंदों के हवाले कर चुका है।
गुलाब मुंतजिर — दर्द और दोस्ती की सिलाई जैसा एहसास
मुशायरे की शुरुआत वरिष्ठ शायर गुलाब मुंतजिर ने की। उन्होंने दर्द, चाहत और दोस्ती की चुभन को बेहद नर्म सी तहज़ीब से शब्दों में ढाला। उनका शेर—
“तू मेरे जख्मों पर अपने हाथ से तुरपाई कर…”
—जैसे पूरी महफ़िल की सांसें रोककर सुनने पर मजबूर कर देता था। शायरी के जानकार मानते हैं कि मुंतजिर की शायरी सिर्फ़ आह नहीं, बल्कि रिश्तों की मरम्मत भी है। श्रोता बार-बार इस शेर पर लौटते रहे, जैसे हर किसी को अपने जीवन के दर्द से मिलान करने का बहाना मिल गया हो।
पीयूष अग्निहोत्री — जिंदगी की कड़वी सच्चाई का आईना
इसके बाद मंच पर आए पीयूष अग्निहोत्री, जिन्होंने जिंदगी की बेरहम हक़ीक़तों को बिना किसी नक़ाब के पेश किया। उनका शेर—
“चंद लम्हों में यह बरसात चली जाएगी…”
श्रोताओं के दिलों में गहराई तक उतरा। यह शेर सिर्फ मौसम या वक्त की बात नहीं कर रहा था; यह उन रिश्तों की भी कहानी था जो पल में बरसते हैं और पल में रुखसत भी हो जाते हैं।
उनके अल्फ़ाज़ में एक दर्द भी था और चेतावनी भी—कि ज़िंदगी उतनी लंबी नहीं जितनी हम समझते हैं, इसलिए लम्हों को जीना सीख लो, वरना वे भी गुम हो जाते हैं।
वंदना वर्मा अनम — बनारस और अवध की खुशबू से लिपटी नज़्म
तीसरी प्रस्तुति वंदना वर्मा अनम की थी और जो लोग साहित्य में नज़्म की मिठास और सुगंध को पहचानते हैं, वे उनकी पंक्तियों में खोते चले गए। उनकी नज़्म की लाइन –
“मैं हूं सुबह बनारस, वो अवध की शाम-सा लड़का…”
ने ऐसा रूमानी फलक बनाया जिसमें बनारस की सुबह की अलसाई धूप और अवध की शाम की नर्म ठंडक साथ-साथ घुलती महसूस हुई।
यह नज़्म महज़ प्रेम की बात नहीं कर रही थी—यह संस्कृति, मिट्टी, तहज़ीब और पहचान की कविता थी। जैसे दो सभ्यताएँ एक-दूसरे को बांहों में भरकर गीत गा रही हों।
खास बात यह रही कि मंच पर बैठे बुज़ुर्ग शायरों से लेकर युवा दर्शकों तक, सब पर इस नज़्म का जादू एक समान चढ़ा।
बलवंत सिंह — रिश्तों पर चोट और बदलते ज़माने की तल्ख़ सच्चाई
इसके बाद माहौल में एक तेज़ कटाव आया जब बलवंत सिंह ने रिश्तों में पनपते स्वार्थ पर गहरी चोट की। उनका अंदाज़ गंभीर और तल्ख़ था और शेर—
“हाथ जोड़े जो खड़े हैं सामने, काम हो जाने पर लहजा देखना…”
पूरी महफ़िल में गूंजता रहा।
भले ही यह एक शेर था, लेकिन उसने आज के सामाजिक व्यवहार पर तीखा कटाक्ष कर दिया—जहां चेहरे मुस्कुराते हैं लेकिन इरादे बदल जाते हैं।
श्रोता सिर्फ़ तालियाँ नहीं बजा रहे थे; उनकी आँखों में अनुभव और समझ की सहमति थी—जैसे हर किसी ने इस दोहरेपन को कभी न कभी झेला हो।
सलीम सिद्दीकी — इंसानियत, मोहब्बत और इंसानी फर्ज की बातें
महफ़िल के समापन की बागडोर सलीम सिद्दीकी के हाथों में आई और उन्होंने एक ऐसा शेर पढ़ा जिसकी गर्माहट हर दिल तक जा पहुँची—
“हमारे गांव में सूखा कभी नहीं पड़ता, कि हम परिंदों को पानी पिलाते रहते हैं।”
यह शेर सिर्फ़ दया का संदेश नहीं था, यह इंसानियत की व्यापक परिभाषा था।
सिद्दीकी की आवाज़ में एक धार्मिकता नहीं, बल्कि इंसानियत की वह तपिश थी जिसे महसूस करते हुए कई दर्शकों की आंखें नम हो गईं।
जैसे महफ़िल अपने शबाब पर पहुँचकर मानवता के सबसे ऊँचे दर्जे पर उतर आई हो।
शायरों, श्रोताओं और आयोजकों—तीनों की जीत
कार्यक्रम का संचालन बेहद सलीके से हुआ। शायरों के सम्मान में बार-बार गुलदस्ते और शॉल भेंट किए गए। दर्शकों में शहर के साहित्यकार, शिक्षक, छात्र और बड़ी संख्या में युवा मौजूद थे—जो यह साबित करता है कि शायरी आज भी सिर्फ इतिहास की चीज़ नहीं, बल्कि आज की पीढ़ी की धड़कन है।
कई श्रोताओं ने कहा कि तमाम हलचल और तनाव के दौर में ऐसी शामें मन को राहत देती हैं।
किसी ने इसे दिल की सफाई कहा, तो किसी ने रूह की रोशनी।
कबीर महोत्सव—अल्फ़ाज़ में आध्यात्म और जीवन का दर्शन
यह मुशायरा केवल प्रदर्शन नहीं था; यह कबीर की विचार परंपरा का जीवंत विस्तार था, जिसमें—
- दर्द भी था
- सच भी था
- मोहब्बत भी थी
- और इंसानियत का सुबूत भी
ठीक उसी तरह जैसे कबीर ने कहा था—
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय; ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।”
शायरों की प्रस्तुति भी मानो इसी संदेश की प्रतिध्वनि थी—
कि इश्क़, दोस्ती, रिश्ते और करुणा ही जीवन को पूरा बनाते हैं।
कुल मिलाकर, कबीर महोत्सव का दूसरा दिन अपने नाम रहा। जो लोग इस मुशायरे में शामिल हुए, वे सिर्फ़ दर्शक बनकर वापस नहीं लौटे—बल्कि अपने दिलों में कुछ नया, कुछ कोमल और कुछ गहरा लेकर लौटे।