सोनपुर मेला: स्टेज की चमक के पीछे लड़कियों की अनकही दास्तान

 





संजय कुमार वर्मा की खास रिपोर्ट


संजय कुमार वर्मा की खास रिपोर्ट
यह फीचर पाठकों को एक विशेष और गहन दृष्टिकोण प्रदान करता है। इसमें तथ्यों, विश्लेषण और घटनाओं का समन्वय करके पेश किया गया है, जिससे विषय की पूरी गंभीरता और महत्व स्पष्ट होता है। संजय कुमार वर्मा की रिपोर्ट में सूचनाओं की सटीकता और पठनीयता पर विशेष ध्यान दिया गया है।- संपादक




 

सोनपुर का मेला दिन में ऊँट, हाथी और बैलों की रौनक लिए रहता है। किसान अपने पालतू जानवरों की चाल, दांत और बनावट पर नजर डालते हैं, व्यापारियों के हाथ नोटों की गिनती में व्यस्त रहते हैं। लेकिन जैसे ही शाम होती है, वही मैदान एक अलग दुनिया में बदल जाता है। रात की रोशनी में संगीत बजता है, मंच पर रंग-बिरंगी पोशाकों में लड़कियां थिरकती हैं, और दर्शक उनके प्रदर्शन पर नोट उड़ाते हैं। यह दुनिया इतनी चमकदार है कि कोई अंदाज़ा नहीं कर सकता कि पर्दे के पीछे कितनी पीड़ा छुपी है।

“कपड़े जितने छोटे, लोग उतना पैसा लुटाते हैं। हमारी आंखों का रंग असली नहीं है। पीरियड में भी डांस करना पड़ता है। लोग कहते हैं कि हम नाचती हैं क्योंकि हमें यही आता है, पर किसी ने पूछा नहीं कि हमने क्या खोकर ये सीखा।”

थिएटर का पर्दा: चमक के पीछे की जिंदगी

स्टेज की रोशनी जितनी चमकदार होती है, पर्दे के पीछे की जिंदगी उतनी ही धुंधली। छोटे कमरे, टूटी कुर्सियां, मेकअप के डिब्बे और बिखरे बाल—यह सब उस संघर्ष का हिस्सा है जो कोई नोट नहीं देखता। इन लड़कियों को हर शाम अपने शरीर और मुस्कान को एक व्यापारिक वस्तु में बदलना पड़ता है। कई बार उनके प्रदर्शन के दौरान स्वास्थ्य समस्याएं भी होती हैं। पीरियड में दर्द, बुखार, थकान—सब कुछ अनदेखा किया जाता है।

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आर्थिक मजबूरी: पारिश्रमिक और असुरक्षा

इस पेशे में लड़कियों की कमाई स्थायी नहीं होती। आम तौर पर उन्हें प्रति शो 500 से 2000 रुपये मिलते हैं, बड़े मेले या लोकप्रिय थिएटर में 3000–4000 रुपये तक। भुगतान नकद किया जाता है, कभी-कभी पूरा मेले खत्म होने के बाद ही। स्टेज पोशाक, मेकअप और यात्रा खर्च अक्सर उनके हिस्से से काट दिए जाते हैं। इस आर्थिक असमानता का सबसे बड़ा असर यह है कि लड़कियां कभी भी सुरक्षित महसूस नहीं कर पातीं। भविष्य की कोई गारंटी नहीं होती; कोई पेंशन या बीमा नहीं, और अगर स्टेज पर प्रदर्शन सफल न रहे, तो मालिक उन्हें निकाल सकते हैं।

थिएटर मालिकों का रवैया: इंसान या उत्पाद?

थिएटर मालिकों का नजरिया अक्सर कठोर और व्यावसायिक होता है। स्टेज पर उनकी चमक और दर्शकों की प्रतिक्रिया ही मूल्य तय करती है। कुछ मालिक खाने, रहने और सुरक्षा का ध्यान रखते हैं, लेकिन अधिकांश केवल कमाई पर फोकस करते हैं। लड़कियों के दर्द और स्वास्थ्य की अनदेखी होती है। अगर कोई लड़की कमजोर पड़ती है या शो में असफल होती है, तो उसे धमकाया जाता है या अगले शो में जगह नहीं मिलती।

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इज्जत और सुरक्षा: सबसे कमजोर कड़ी

थिएटर की लड़कियों के लिए सबसे बड़ा खतरा उनकी इज्जत और आबरू का होता है। स्टेज पर उनके शरीर को दर्शकों के सामने लाया जाता है, और कई बार अनुचित हरकतें—छेड़छाड़, वीडियो बनाना या धमकाना—सामान्य हो जाती हैं। सुरक्षा उपाय लगभग नाममात्र हैं। लड़कियां अपनी इज्जत बचाने के लिए चुप रहने को मजबूर होती हैं, क्योंकि विरोध करने पर नौकरी या आमदनी छिन सकती है।

समाज में स्थिति: कलंक और नजरअंदाजी

समाज इन लड़कियों को केवल ‘नाचने वाली’ के रूप में देखता है। उनके संघर्ष और मजबूरी को नजरअंदाज किया जाता है। शादी, स्थायी संबंध और सम्मान के अवसर सीमित हो जाते हैं। उनकी पहचान केवल स्टेज तक सीमित रहती है, और बाहर की दुनिया में उनका सम्मान खो जाता है। समाज की यह चुप्पी और कलंक, उनकी आर्थिक और भावनात्मक असुरक्षा को और बढ़ा देती है।

जानवरों के मेले और लड़कियों का नाच: विरोधाभास की तस्वीर

सोनपुर मेला दिन में जानवरों के लिए प्रसिद्ध है। हाथी, घोड़े, ऊँट और बैल—सबकी चाल, बनावट और ताकत का निरीक्षण होता है। दिन के उजाले में यह सब एक कारोबार है। लेकिन शाम होते ही वही मैदान लड़कियों के नाच का मंच बन जाता है।

“हम भी मवेशी जैसे हैं। लोग हमारी उम्र, रंग और बनावट देखते हैं, पर कोई हमारी कहानी नहीं सुनता।”

पर्दे के पीछे की दुनिया: संघर्ष और थकान

थिएटर में हर लड़की का दिन तीन हिस्सों में बंटा होता है—तैयारी, शो और थोड़ी नींद। शो खत्म होने के बाद पैरों में छाले, बिखरे बाल, पसीने से भरा मेकअप—यह सब उनके संघर्ष की निशानी है। स्टेज की मुस्कान केवल एक अभिनय है; पर्दे के पीछे उनका असली दर्द, थकान और अकेलापन छुपा होता है।

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आशा और भविष्य

कुछ लड़कियों के सपने हैं—घर बनाने का, परिवार का पालन-पोषण करने का, या इस दुनिया से निकलकर स्थायी काम करने का। लेकिन वास्तविकता यह है कि एक बार पहचान बन जाने के बाद, विकल्प सीमित हो जाते हैं। उम्र बढ़ने पर मंच की चमक फीकी पड़ती है और वे छोटे कार्यक्रमों, शादी या शहरों में सस्ते नाट्य मंचों तक सीमित हो जाती हैं।

चमक के पीछे का सच

सोनपुर मेला सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, लेकिन इसका रात का चेहरा उस दर्द और संघर्ष की कहानी बयां करता है जिसे आम दर्शक नहीं देखता। लड़कियां सिर्फ नाचती नहीं; वे अपने जीवन की लड़ाई लड़ रही हैं। उनके संघर्ष, उनके सपने, उनकी थकान और उनकी मजबूरियां पर्दे के पीछे दब जाती हैं।

यह मेला केवल एक सांस्कृतिक आयोजन नहीं, बल्कि समाज की वह तस्वीर है, जो बताती है कि आर्थिक मजबूरी, सामाजिक कलंक और सुरक्षा की कमी किस तरह महिलाओं की जिंदगी को प्रभावित करती है। और जब हम अगली बार किसी स्टेज पर मुस्कुराती लड़की को देखें, तो सिर्फ उसकी चमक नहीं, उसके संघर्ष, उसकी कहानी और उसकी मजबूरी भी देखें।

क्योंकि तालियों की गूंज उसके दर्द को नहीं मिटा सकती, और नोट उसकी असुरक्षा को नहीं छुपा सकते।

 

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