
अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट
लोकतंत्र में सत्ता से सवाल पूछना हमेशा आसान काम नहीं होता—और यदि सवाल कड़वे हों, व्यंग्य से भरे हों, और जनता की नब्ज़ पर सीधे उंगली रख दें, तो सत्ता की असहजता अपने-आप बढ़ जाती है। यही कहानी है बिहार की रहने वाली गायिका, कवयित्री और सोशल मीडिया एक्टिविस्ट नेहा सिंह राठौड़ की। 2020 के बाद से उन्होंने जनसरोकारों पर जो व्यंग्यात्मक गीत लिखे, गाए और सोशल मीडिया पर वायरल किए, वे आज एक सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा बन चुके हैं। लेकिन जितनी तेजी से उनका प्रभाव बढ़ा, उतनी ही तेजी से वे राजनीतिक टकरावों के केंद्र में भी आ गईं।
“यूपी में का बा” और “बिहार में का बा” जैसे गानों ने उन्हें रातोंरात लोकप्रिय बनाया। उनके सवालों ने जनता को हंसाया भी, चौंकाया भी और सत्ता से जुड़ा असुविधाजनक सच सामने भी रखा। लेकिन यही सवाल अब उनके ख़िलाफ़ पुलिस केस, नोटिस, और सोशल मीडिया ट्रायल का कारण बन चुके हैं।
लोकगीत की परंपरा से राजनीतिक व्यंग्य तक
नेहा सिंह राठौड़ की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण है—उनका लोकधुनों का इस्तेमाल। उत्तर भारत की पारंपरिक बोली, आसान शब्द, और सीधी बात—इन सबने उनके वीडियो को आम लोगों का हथियार बना दिया।
लोकगीत सदियों से जनमानस की भावनाओं का आईना रहे हैं। कभी खेतों की आवाज़, कभी त्योहारों की रौनक, कभी पीड़ा की अभिव्यक्ति—लोकगीत हमेशा समाज का दस्तावेज़ होते हैं। नेहा जब इसी परंपरा में समकालीन राजनीति को पिरोती हैं, तो गीत सिर्फ मनोरंजन नहीं रहते, वे राजनीतिक संवाद बन जाते हैं।
वायरल हुई आवाज़, बढ़ता गया विवाद
नेहा के वीडियो साल 2021–22 में जिस तरह वायरल हुए, वह अभूतपूर्व था। लाखों व्यूज़, हजारों शेयर, और सोशल मीडिया पर हर तरफ वही चर्चा—उनके व्यंग्यात्मक गीत सत्ता पक्ष के लिए असहज और विपक्ष के लिए हथियार बन गए। लेकिन जैसे-जैसे लोकप्रियता बढ़ी, उन पर पुलिस केस, नोटिस और पूछताछ की घटनाएं भी सामने आने लगीं।
यूपी पुलिस द्वारा भेजे गए नोटिस, बिहार में दर्ज मामले, और इंटरनेट पर चल रही ट्रोलिंग—इन सबने यह साफ किया कि लोकतंत्र में कलाकार की आवाज़ जितनी बुलंद होती है, खतरे भी उतने ही बढ़ जाते हैं।
लोकतंत्र में कलाकार की भूमिका
किसी भी लोकतांत्रिक समाज में कलाकार सत्ता का प्रतिरूप नहीं, बल्कि उसका दर्पण होता है। कलाकार का काम प्रशंसा करना नहीं, बल्कि तनावों को सतह पर लाना होता है। नेहा का व्यंग्य इसी परंपरा को आगे बढ़ाता है। वे सरकार पर आरोप नहीं लगातीं—उनके गीतों में सिर्फ वही सवाल होते हैं जो जनता रोज पूछती है।
क्या महंगाई बढ़ी?
क्या बेरोज़गारी गंभीर है?
क्या कानून-व्यवस्था में खामियां हैं?
इन सवालों को लोकगीतों में पिरो देने से वे लोगों के बीच और असरदार हो जाते हैं, और शायद यही वजह है कि उनके गीतों से राजनीतिक असहजता जन्म लेती है।
नेहा पर दर्ज मामले: कानून, अभिव्यक्ति और विवाद
नेहा के खिलाफ दर्ज हुए मामलों में IPC की धाराओं से लेकर आईटी एक्ट तक कई प्रावधान लगाए गए। उनके एक वीडियो पर ‘सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने’ का आरोप लगाया गया, जबकि दूसरे वीडियो को ‘सत्ता विरोधी प्रचार’ बताया गया।
फिर सवाल उठता है—क्या एक कलाकार का व्यंग्य अपराध है? या फिर राजनीतिक असहमति से पैदा हुई असहजता को कानून का सहारा लेकर दबाने की कोशिश की जा रही है?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह द्वंद्व सिर्फ नेहा का नहीं, बल्कि देश के हर उस कलाकार का है जो सत्ता से सवाल करता है।
सोशल मीडिया: समर्थन और हमले की दोहरी दुनिया
नेहा के समर्थक उन्हें ‘जनता की आवाज़’ कहते हैं।
उनके विरोधी उन्हें ‘प्रचारवादी’, ‘एजेंडा चलाने वाली’, या ‘एकतरफा’ कहकर निशाना बनाते हैं।
यह दोहरा माहौल सोशल मीडिया की वास्तविकता है—जहाँ हर बात तुरंत वायरल होती है, और हर वायरल चीज़ पर तुरंत ट्रायल भी।
नेहा ने इसे झेला है—निजी हमलों से लेकर परिवार तक पर टिप्पणियाँ। कई बार ट्रोलिंग इतनी तीखी हो जाती है कि एक कलाकार का मानसिक संतुलन बिगड़ जाए।
कला बनाम सत्ता: यह लड़ाई नई नहीं है
नेहा सिंह राठौड़ का संघर्ष हमें reminds دارد:
फिल्में बनाते हुए सत्यजीत रे पर सवाल उठे —
गीत गाते हुए कबीर को सताया गया —
शराबी कहकर निराला को हाशिए पर डाला गया —
व्यास, तुलसी, फैज़, ग़ालिब… लगभग हर बड़े कलाकार ने किसी न किसी दौर में सत्ता की नाराज़गी झेली।
कला हमेशा सत्ता के सामने सत्य का आईना लेकर खड़ी होती है। और यह आईना जब असहज करने लगता है, तो कलाकार को निशाना बनाया जाता है।
नेहा का बदलता स्वरूप
नेहा सिर्फ राजनीतिक व्यंग्य नहीं लिखतीं—वे सामाजिक मुद्दों पर भी खुलकर बोलती हैं। महिलाओं की सुरक्षा, मजदूरों के अधिकार, स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति—उनके कई गीत इन विषयों पर आधारित हैं।
हाल के समय में जब उन पर हमले बढ़े, तो उनका स्वर और परिपक्व हुआ है। अब वे न सिर्फ व्यंग्य लिखती हैं, बल्कि अपने वीडियो में सरकार के बयानों और आंकड़ों की तथ्यात्मक जांच भी जोड़ती हैं। इससे वे सिर्फ कलाकार नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक संवाद की महत्वपूर्ण हस्ती बन गई हैं।
क्या यह राजनीतिक प्रतिरोध का नया मॉडल है?
बीते दशक में राजनीति पर व्यंग्य करने वाले कलाकारों की नई पीढ़ी उभरी है—लेकिन उनमें से बहुत कम लोग जनमानस में गहरी पैठ बना पाए हैं।
नेहा की खासियत यह है कि वे अपने विरोध के लिए लोकभाषा, लोकधुन और ग्रामीण सौंदर्य का उपयोग करती हैं—जो सीधे देसी भारत की नसों में असर करता है।
उनकी कविता न शहरी अभिजात्य भाषा में जकड़ी है, न किसी राजनीतिक पार्टी के दायरे में। यही कारण है कि उनका व्यंग्य आंदोलन बन जाता है।
संघर्ष जारी रहेगा, क्योंकि सवाल जारी हैं
नेहा सिंह राठौड़ आज जिन परिस्थितियों का सामना कर रही हैं, वह यह साबित करता है कि लोकतंत्र में असहमति को जगह देना कितना आवश्यक है।
लेकिन नेहा जैसी कलाकारें इसलिए टिकी रहती हैं, क्योंकि उनके सवाल सत्ता से नहीं, जनता से पैदा होते हैं।
वो गीत लिखती हैं क्योंकि समाज में विरोध है—वो आवाज़ उठाती हैं क्योंकि लोगों में दर्द है—वो व्यंग्य करती हैं क्योंकि सच अक्सर हंसते-हंसते ही कहा जा सकता है।
नेहा सिंह राठौड़ का संघर्ष यह बताता है कि
कला सिर्फ कला नहीं होती—
कला, राजनीति, समाज और व्यवस्था
इन सबके बीच एक पुल होती है।
और जिस दिन कोई कलाकार सवाल पूछना बंद कर दे—उस दिन लोकतंत्र भी कमजोर हो जाता है।
नेहा ने सवाल उठाए हैं, और शायद आगे भी उठाती रहेंगी।
लेकिन इस सफर में वे एक सच्चाई उजागर कर चुकी हैं—
सत्ता पर निशाना साधते-साधते कलाकार भले निशाना बन जाए,
पर उसकी आवाज़ को खामोश करना आसान नहीं होता।