सुआ नृत्य : छत्तीसगढ़ की लोक आत्मा का मधुर लोकगीत

छत्तीसगढ़ की एक युवती पारंपरिक साड़ी और आभूषण पहनकर मंच पर सुआ नृत्य प्रस्तुत करती हुई, सामने प्रतीकात्मक तोते की आकृतियाँ रखी हैं।

अनिल अनूप के साथ शंकर यादव

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छत्तीसगढ़ की मिट्टी में रची-बसी सांस्कृतिक परंपराओं में सुआ नृत्य का स्थान अत्यंत विशिष्ट है। यह केवल एक लोकनृत्य नहीं, बल्कि ग्रामीण स्त्रियों की भावनाओं, आस्थाओं और जीवन-दर्शन की अनूठी अभिव्यक्ति है। जब खेतों में धान की बालियाँ लहलहाने लगती हैं, पेड़ों पर कोयल गुनगुनाती है और गाँव की चौपालों में हरियाली का उल्लास भर जाता है, तब सुआ नृत्य की मधुर धुनें सुनाई देती हैं। यह नृत्य छत्तीसगढ़ी लोकजीवन की जीवंतता, स्त्री संवेदना और प्रकृति से गहरे जुड़ाव का प्रतीक है।

सुआ नृत्य का उद्गम और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

सुआ नृत्य का इतिहास उतना ही पुराना है जितना छत्तीसगढ़ की ग्रामीण सभ्यता। “सुआ” शब्द का अर्थ है तोता—वह चपल, चंचल और बोलने वाला पक्षी जो भारतीय लोककथाओं में प्रेम, संवाद और सौंदर्य का प्रतीक माना गया है। किंवदंतियों के अनुसार, इस नृत्य की उत्पत्ति आदिवासी और ग्रामीण महिलाओं के उस सहज भाव से हुई, जब वे खेतों से फसल काटने के बाद घर लौटकर एकत्र होती थीं और अपनी थकान मिटाने के लिए सामूहिक गीत गातीं, नृत्य करतीं। धीरे-धीरे यह सामूहिक अभिव्यक्ति एक सांस्कृतिक परंपरा बन गई, जिसे “सुआ नृत्य” कहा गया क्योंकि इसमें मिट्टी या लकड़ी का बना एक सुआ (तोते का प्रतीक) पूजा के केंद्र में रखा जाता था।

ऐतिहासिक रूप से यह नृत्य प्रायः दीवाली के बाद और कार्तिक महीने में किया जाता है। यह वह समय होता है जब खेतों में धान की फसल कट चुकी होती है, घरों में अनाज की बहार होती है और स्त्रियाँ अपने श्रम की उपलब्धि का उत्सव मनाती हैं। कुछ लोकगाथाएँ बताती हैं कि यह नृत्य मातृसत्तात्मक समाज की उस धारा से भी जुड़ा है जहाँ स्त्रियाँ ही सामाजिक जीवन के सांस्कृतिक केंद्र में थीं। इस नृत्य के माध्यम से वे न केवल अपनी खुशियाँ बाँटती थीं, बल्कि जीवन की व्यथा, प्रेम, पीड़ा, वियोग और आशा की भावनाओं को भी अभिव्यक्त करती थीं।

नृत्य का सांस्कृतिक अर्थ और प्रतीकात्मकता

सुआ नृत्य का मूल भाव “प्रकृति और जीवन का उत्सव” है। इस नृत्य में जो सुआ (तोता) रखा जाता है, वह स्त्री की अंतःचेतना का प्रतीक है—उसकी उड़ान, उसकी चाह, उसका संवाद। नृत्य के दौरान महिलाएँ सुआ के चारों ओर गोल घेरा बनाकर गीत गाती हैं। उनके गीतों में प्रेम, विरह, सामाजिक व्यंग्य, देवताओं की स्तुति और ग्रामीण जीवन के दृश्य सब एक साथ समाहित होते हैं। यह नृत्य स्त्री की अभिव्यक्ति का वह माध्यम है जिसे सदियों से समाज ने संजोकर रखा है।

छत्तीसगढ़ी लोकविश्व में सुआ नृत्य को “हरियर तिहार” यानी हरियाली के उत्सव का अंग भी माना जाता है। जब धान की फसल झूमती है, तब ग्रामीण महिलाएँ इस नृत्य के माध्यम से धरती माता का आभार प्रकट करती हैं। वे मानती हैं कि यह नृत्य फसल की समृद्धि और परिवार की सुख-समृद्धि का आशीर्वाद लेकर आता है।

नृत्य की शैली और प्रस्तुति का सौंदर्य

सुआ नृत्य का दृश्य अत्यंत मोहक और सजीव होता है। इसमें केवल महिलाएँ भाग लेती हैं। वे साफ-सुथरे पारंपरिक वस्त्र पहनती हैं—आम तौर पर चमकीले रंग की साड़ी, गले में कंठी, हाथों में चूड़ियाँ, पैरों में पायल, और माथे पर बिंदिया। इनके सिर पर धान की बालियों या फूलों से सजे टोकरे रखे होते हैं, जिनमें सुआ की मूर्ति होती है। वे गोल घेरे में बैठकर या खड़ी होकर धीमे-धीमे ताल में झूमती हैं।

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नृत्य के साथ-साथ जो लोकगीत गाए जाते हैं, उन्हें “सुआ गीत” कहा जाता है। इन गीतों में कभी-कभी छेड़छाड़, हास्य और सामाजिक टिप्पणी का स्वर भी होता है। जैसे कोई गीत बहू-सास के रिश्ते की नोकझोंक पर आधारित होता है, तो कोई गीत प्रेम की मासूम चाहत का रूप ले लेता है। कभी-कभी ये गीत लोकगाथाओं की तरह भी सुनाई देते हैं, जिनमें राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती या स्थानीय देवताओं की कथाएँ गाई जाती हैं।

सुआ गीतों का लय बहुत स्वाभाविक और मधुर होता है—न कोई वाद्ययंत्र, न कृत्रिम संगीत। केवल हाथों की ताल, पायल की झंकार और स्त्रियों की समवेत आवाज़। यही इसकी असली खूबसूरती है। नृत्य की लय में एक सहजता होती है—कभी धीमी झूम, कभी त्वरित गति, फिर पुनः विश्राम। यह प्रकृति की गति से मेल खाती है, जैसे हवा में झूमता पेड़ या खेत में लहराती बालियाँ।

सुआ नृत्य का सामाजिक आयाम

सुआ नृत्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक एकता का भी प्रतीक है। यह नृत्य स्त्रियों के बीच संवाद का माध्यम है—जहाँ वे घर-परिवार की बातें करती हैं, सामाजिक मुद्दों पर विचार साझा करती हैं और एक-दूसरे के दुख-सुख में सहभागी बनती हैं। ग्रामीण समाज में जहाँ स्त्रियों के पास सार्वजनिक अभिव्यक्ति के अवसर कम रहे हैं, वहाँ सुआ नृत्य ने उन्हें एक सांस्कृतिक मंच प्रदान किया है।

कई लोकविज्ञानियों का मानना है कि सुआ नृत्य एक प्रकार की सामूहिक चिकित्सा (community healing) भी है। जब महिलाएँ मिलकर गाती और नाचती हैं, तो उनकी थकान, तनाव और पीड़ा स्वतः दूर हो जाती है। यह नृत्य उनके भीतर के अवसाद को मिटाकर उन्हें आत्मबल और आनंद से भर देता है।

आदिवासी परंपरा और धार्मिक संदर्भ

छत्तीसगढ़ के गोंड, बैगा, और कोरवा जैसे आदिवासी समुदायों में सुआ नृत्य धार्मिक अनुष्ठान से जुड़ा हुआ है। वहाँ इसे देवी धरती या देवी गौरा की उपासना का हिस्सा माना जाता है। जब नई फसल घर आती है, तब महिलाएँ सुआ गीत गाकर देवी से आशीर्वाद मांगती हैं। कई स्थानों पर यह नृत्य नवविवाहित दंपतियों के लिए भी शुभ माना जाता है—यह विश्वास है कि सुआ नृत्य से घर में समृद्धि और सौभाग्य का वास होता है।

कई बार यह नृत्य “गौरा-गौरी पूजा” से भी जुड़ा होता है। इस पूजा में स्त्रियाँ मिट्टी से बनी गौरा-गौरी की मूर्तियों की तरह ही सुआ को भी सजाती हैं, उन्हें फूलों और धान की बालियों से अलंकृत करती हैं। गीतों में अक्सर ये पंक्तियाँ आती हैं—“सुआ रे सुआ, तोर पंखा हरियर, बोल दे तोरा मुँह से राम-राम।” यह पंक्ति तोते के माध्यम से भगवान के नाम का स्मरण कराती है, जो लोक-आस्था और भक्ति का सुंदर संगम है।

सुआ नृत्य के पुनर्जीवन का आधुनिक प्रयास

छत्तीसगढ़ की लोक परंपरा को नई ऊर्जा देने के लिए कुछ व्यक्तियों ने अद्भुत योगदान दिया है। बिलासपुर के तोरवा क्षेत्र के शंकर यादव ने दो दशक पहले इस परंपरा को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने भोजली महोत्सव और सुआ लोक नृत्य महोत्सव की शुरुआत की, जिनके माध्यम से न केवल ग्रामीण और शहरी युवाओं को लोकसंस्कृति से जोड़ने का कार्य हुआ, बल्कि सुआ नृत्य को प्रदेशभर में नई पहचान भी मिली। आज ये दोनों महोत्सव छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर के जीवंत प्रतीक बन चुके हैं और लोकजीवन की आत्मा को मंच पर फिर से सजीव कर रहे हैं।

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वर्तमान समय में सुआ नृत्य का स्वरूप

आज जब वैश्वीकरण और आधुनिकता की लहर गाँवों तक पहुँच चुकी है, तब भी सुआ नृत्य अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है। छत्तीसगढ़ सरकार और विभिन्न सांस्कृतिक संस्थाएँ इस नृत्य को लोक-संस्कृति के प्रतीक के रूप में पुनर्जीवित करने में लगी हैं। जिला और राज्य स्तर पर लोकनृत्य प्रतियोगिताओं में सुआ नृत्य को विशेष स्थान दिया जाता है। छत्तीसगढ़ के अनेक विद्यालयों और महाविद्यालयों में इसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों का हिस्सा बनाया गया है।

छत्तीसगढ़ की महिलाएँ पारंपरिक वेशभूषा में सुआ नृत्य करते हुए, बीच में मिट्टी के पात्र में रखा तोता और ग्रामीण पृष्ठभूमि में हरियाली
छत्तीसगढ़ की महिलाएँ हरियाली पर्व के अवसर पर सुआ नृत्य प्रस्तुत करती हुईं—यह नृत्य ग्रामीण जीवन, स्त्री भावनाओं और प्रकृति के सौंदर्य का प्रतीक है।

साथ ही, अब सुआ नृत्य के स्वरूप में कुछ परिवर्तन भी आए हैं। पहले यह केवल स्त्रियों का नृत्य था, परंतु अब कई सांस्कृतिक मंचों पर पुरुष भी इसमें भाग लेने लगे हैं। वाद्ययंत्रों का प्रयोग बढ़ा है—ढोलक, मंजीरा और हारमोनियम का साथ अब सामान्य हो गया है। मंचीय प्रस्तुतियों में इसके परिधान और नृत्याभिनय अधिक आकर्षक और रंगीन रूप ले चुके हैं। हालांकि ग्रामीण अंचलों में इसका मूल स्वरूप अब भी वैसा ही जीवंत है जैसा सदियों पहले था—बिना कृत्रिमता, केवल दिल की लय पर झूमता हुआ।

लोकनृत्य से लोकअर्थ तक

सुआ नृत्य को केवल सांस्कृतिक नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से भी देखा जा सकता है। यह नृत्य उन स्त्रियों की जीवनशैली का हिस्सा है जो खेतों में मेहनत करती हैं। उनके गीतों में आर्थिक यथार्थ भी झलकता है—कभी गरीबी का दर्द, कभी प्रेम में असमानता, कभी श्रम का गर्व। इस प्रकार सुआ नृत्य छत्तीसगढ़ी समाज का जीवंत दस्तावेज बन जाता है, जिसमें स्त्री के संघर्ष, श्रम और संवेदना का पूरा संसार समाया हुआ है।

लोकधरोहर की रक्षा का दायित्व

आज के यांत्रिक युग में जब लोकसंस्कृति का अस्तित्व बाज़ार और मनोरंजन के नए रूपों के सामने चुनौती में है, तब सुआ नृत्य जैसी परंपराओं को बचाना हमारी सांस्कृतिक जिम्मेदारी है। यह केवल नृत्य नहीं, बल्कि हमारी लोक-स्मृति का हिस्सा है, जिसमें मिट्टी की गंध, खेतों की लय और स्त्री-मन की गहराई एक साथ धड़कती है।

सरकारी प्रयासों के साथ-साथ स्थानीय समुदायों की भूमिका भी आवश्यक है। गाँवों में युवतियों को सुआ नृत्य सिखाने के लिए सांस्कृतिक प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए जा सकते हैं। स्कूलों में लोकनृत्य दिवस मनाकर बच्चों में अपनी मिट्टी से जुड़ाव की भावना विकसित की जा सकती है। सुआ नृत्य को केवल परंपरा नहीं, बल्कि पहचान के रूप में देखा जाना चाहिए—एक ऐसी पहचान जो छत्तीसगढ़ को विशिष्ट बनाती है।

सुआ नृत्य छत्तीसगढ़ की उस जीवंत लोकधारा का प्रतीक है जिसमें जीवन की सरलता, प्रेम की सहजता और प्रकृति की माधुर्य एक साथ प्रवाहित होता है। यह नृत्य हमें बताता है कि उत्सव केवल भव्य आयोजनों में नहीं, बल्कि खेत की मिट्टी, गीत की ताल और मन की खुशी में भी बसता है। जब ग्रामीण महिलाएँ सुआ के चारों ओर झूमती हैं, तो लगता है मानो धरती स्वयं गीत गा रही हो—अपने बच्चों की मेहनत, अपनी हरियाली और अपने उल्लास का गीत।

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सुआ नृत्य आज भी हमें यह सिखाता है कि जीवन की सबसे सुंदर कला है—साझा आनंद में झूमना, अपनी मिट्टी की धुन में गुनगुनाना और परंपरा को दिल से जीना। यही है छत्तीसगढ़ की सच्ची पहचान, यही है उसकी सांस्कृतिक आत्मा।

💬 सुआ नृत्य से जुड़े प्रमुख प्रश्नोत्तर

❓ सुआ नृत्य क्या है और इसकी शुरुआत कहाँ से हुई?

सुआ नृत्य छत्तीसगढ़ का एक पारंपरिक लोकनृत्य है, जिसकी उत्पत्ति ग्रामीण और आदिवासी अंचलों में हुई। यह नृत्य मुख्यतः महिलाओं द्वारा किया जाता है, जिसमें वे मिट्टी या लकड़ी से बने सुआ (तोता) के चारों ओर गोल घेरा बनाकर गीत गाती हैं और नृत्य करती हैं। इसकी शुरुआत कृषि और प्रकृति के उत्सव के रूप में हुई थी।

❓ सुआ नृत्य कब और किन अवसरों पर किया जाता है?

यह नृत्य सामान्यतः दीवाली के बाद और कार्तिक मास में किया जाता है, जब धान की फसल कट चुकी होती है। इसे “हरियर तिहार” या “हरियाली उत्सव” के रूप में भी मनाया जाता है। ग्रामीण महिलाएँ इसे खेतों की समृद्धि और देवी धरती के प्रति आभार स्वरूप प्रस्तुत करती हैं।

❓ इस नृत्य में “सुआ” का क्या प्रतीकात्मक अर्थ है?

“सुआ” यानी तोता, इस नृत्य का केंद्रीय प्रतीक है। यह स्त्री की चपलता, संवादप्रियता और भावनात्मक उड़ान का प्रतीक माना जाता है। नृत्य के केंद्र में रखा सुआ, महिलाओं की आत्मा और उनकी अभिव्यक्ति का प्रतीक बन जाता है।

❓ बिलासपुर के तोरवा क्षेत्र के युवक का इसमें क्या योगदान है?

बिलासपुर के तोरवा क्षेत्र के एक युवक ने दो दशक पहले छत्तीसगढ़ की लोक परंपराओं को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से भोजली महोत्सव और सुआ लोक नृत्य महोत्सव की शुरुआत की। इस प्रयास से सुआ नृत्य को प्रदेशभर में नई पहचान मिली और यह अब सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक बन चुका है।

❓ सुआ नृत्य में किस प्रकार के गीत और परिधान उपयोग किए जाते हैं?

सुआ गीत प्रेम, विरह, हास्य और सामाजिक व्यंग्य से भरपूर होते हैं। महिलाएँ चमकीले रंग की साड़ियाँ पहनती हैं, आभूषणों से सजी होती हैं और सिर पर फूलों व धान की बालियों से सजे टोकरे रखती हैं। गीतों के साथ तालियाँ, पायल की झंकार और लयबद्ध गतियाँ नृत्य को जीवंत बनाती हैं।

❓ वर्तमान समय में सुआ नृत्य का स्वरूप कैसा है?

आधुनिक समय में सुआ नृत्य मंचीय रूप में अधिक आकर्षक और रंगीन हो गया है। अब पुरुष भी इसमें भाग लेते हैं और वाद्ययंत्रों का उपयोग बढ़ गया है। छत्तीसगढ़ सरकार और सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रयास से यह लोकनृत्य स्कूलों, कॉलेजों और राज्य स्तर के कार्यक्रमों में शामिल किया जा रहा है।

❓ सुआ नृत्य का सबसे बड़ा संदेश क्या है?

सुआ नृत्य हमें सिखाता है कि जीवन का उत्सव सरलता और साझा आनंद में है। यह परंपरा स्त्रियों की शक्ति, प्रकृति के प्रति आभार और सामूहिक एकता का सुंदर प्रतीक है। यह छत्तीसगढ़ की मिट्टी की आत्मा और लोकसंवेदना की जीवंत अभिव्यक्ति है।

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