
-अनिल अनूप
(एक तर्कसंगत राष्ट्रीय विमर्श)
भारत की आत्मा उसकी सनातन संस्कृति है। यही वह संस्कृति है जिसने सहस्त्राब्दियों तक न केवल इस भूभाग को बल्कि सम्पूर्ण मानवता को दिशा दी। “सर्वे भवन्तु सुखिनः” और “वसुधैव कुटुंबकम्” जैसे मंत्रों के साथ यह धर्म केवल एक धार्मिक व्यवस्था नहीं रहा, बल्कि एक जीवन-दर्शन, एक सभ्यता और मानवता का मार्गदर्शक रहा है।
परंतु आज स्थिति ऐसी है कि जिस भूमि पर सनातन की जड़ें सबसे गहरी हैं, वहीं इसके अस्तित्व और पहचान के लिए संगठनों और संस्थानों की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। यह प्रश्न केवल धार्मिक नहीं बल्कि राष्ट्रीय, सांस्कृतिक और अस्तित्वगत प्रश्न बन चुका है।
क्यों? इसका उत्तर हमें इतिहास की गहराई, वर्तमान की चुनौतियों और भविष्य की संभावनाओं में खोजना होगा।
सनातन धर्म की मूल प्रकृति
संगठन से परे सनातन धर्म का स्वरूप हमेशा से अनूठा रहा है।
यह किसी एक पैगंबर, एक किताब या एक संगठन पर आधारित नहीं।
यह एक प्रवाह है, जिसमें वेद, उपनिषद, गीता, पुराण, दार्शनिक परंपराएँ, भक्ति आंदोलन और लोकाचार सभी सम्मिलित हैं।
इसकी ताकत बहुलता और लचीलापन में रही है, जहाँ हर साधक को अपना मार्ग चुनने की स्वतंत्रता मिली।
यही वजह है कि सनातन धर्म कभी भी “संगठित” रूप में नहीं रहा। इसमें न कोई सर्वोच्च सत्ता थी, न केंद्रीकृत संरचना। परंतु यही लचीलापन कभी-कभी इसकी कमजोरी भी बन गया—जब अन्य संगठित मज़हबों और विचारधाराओं ने आक्रमण किया तो प्रतिरोध उतना प्रभावी नहीं हो पाया।
इतिहास की कठोर सीख
इतिहास हमें यह स्पष्ट बताता है कि असंगठित समाज हमेशा आघात झेलता है।
1. बौद्ध-जैन प्रभाव (ईसा पूर्व 6वीं शताब्दी से)
बौद्ध और जैन मठों की संगठित संरचना ने इन्हें तीव्र गति से फैलाया।
जबकि सनातन समाज अपने विकेंद्रीकृत ढाँचे में बंटा रहा।
2. मध्यकालीन इस्लामी आक्रमण
काशी विश्वनाथ, सोमनाथ, मथुरा जैसे मंदिरों का विध्वंस हुआ।
बड़े पैमाने पर धर्मांतरण और जजिया कर जैसी चुनौतियाँ सामने आईं।
यदि समाज संगठित होता तो यह आक्रमण उतने सफल न हो पाते।
3. औपनिवेशिक काल और मिशनरी गतिविधियाँ
ईसाई मिशनरियों ने शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के माध्यम से धर्मांतरण को बढ़ावा दिया।
उन्होंने “स्कूल, चर्च और अस्पताल” की त्रयी से समाज को प्रभावित किया।
वहीं हिंदू समाज जातिगत विखंडन और असंगठन में बँटा रहा।
उदाहरण
1947 के विभाजन में धार्मिक आधार पर पाकिस्तान बना। भारत में बहुसंख्यक होते हुए भी हिंदू समाज अपनी आस्थाओं की रक्षा हेतु कोई संगठित ढाँचा खड़ा न कर सका।
1990 के दशक में कश्मीर से कश्मीरी पंडितों का विस्थापन हुआ, परंतु उनका पुनर्वास आज भी अधूरा है। कारण—प्रभावी संगठन का अभाव।
इतिहास की यह सीख स्पष्ट है—यदि समाज संगठित न हो तो उसका अस्तित्व संकट में पड़ जाता है।
बदलते समय की चुनौतियाँ
21वीं सदी का भारत नई ऊँचाइयों की ओर बढ़ रहा है, लेकिन सनातन समाज कई मोर्चों पर चुनौतियों का सामना कर रहा है।
1. धर्मांतरण का संगठित अभियान
आदिवासी और पिछड़े इलाक़ों में धर्मांतरण की गतिविधियाँ तेज़ हैं।
मिशनरियाँ शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर समाज को आकर्षित करती हैं।
आँकड़े बताते हैं कि झारखंड, छत्तीसगढ़, मिज़ोरम, नागालैंड और आंध्र प्रदेश में लाखों लोग धर्मांतरित हो चुके हैं।
प्यू रिसर्च (2017) की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया में प्रतिदिन लगभग 80,000 लोग ईसाई धर्म अपनाते हैं।
यह संगठित प्रयास सनातन धर्म के लिए जनसांख्यिकीय संकट है।
2. वैचारिक आक्रमण
विदेशी विश्वविद्यालयों और NGOs द्वारा प्रायोजित लेखन अक्सर हिंदू संस्कृति को अंधविश्वास, जातिवाद और पिछड़ेपन का प्रतीक बताता है।
“ब्राह्मणवाद बनाम दलित” जैसे नैरेटिव समाज को विभाजित करते हैं।
सोशल मीडिया पर यह प्रोपेगेंडा और अधिक प्रभावी हो रहा है।
यदि इसके प्रतिकार हेतु वैचारिक संगठन और थिंक-टैंक न बने तो आने वाली पीढ़ियाँ अपनी ही संस्कृति को हीन दृष्टि से देखेंगी।
3. जनसंख्या असंतुलन
सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (SRS) की रिपोर्ट (2021) बताती है कि मुस्लिम समुदाय की वृद्धि दर हिंदू समुदाय से अधिक है।
यदि यह रुझान जारी रहा तो 2050 तक भारत की धार्मिक संरचना बदल सकती है।
इतिहास में जनसंख्या असंतुलन अक्सर सांस्कृतिक और राजनीतिक असंतुलन का कारण बना है।
4. राजनीतिक उपयोगिता और विखंडन
भारतीय लोकतंत्र में जातिगत राजनीति ने हिंदू समाज को बिखेर दिया है।
यादव, राजपूत, ब्राह्मण, जाटव, कुर्मी जैसी पहचानें साझा धार्मिक पहचान पर भारी पड़ जाती हैं।
इसके विपरीत, अन्य समुदाय अक्सर सामूहिक रूप से एक दिशा में मतदान करते हैं।
परिणाम—बहुसंख्यक होकर भी हिंदू समाज राजनीतिक रूप से कमजोर दिखता है।
संगठन की आवश्यकता : तर्क और आधार
1. आस्था की रक्षा हेतु
आस्था ही धर्म की जड़ है। यदि धर्मांतरण या वैचारिक हमलों से यह कमजोर हुई तो सनातन समाज अपनी पहचान खो देगा। संगठनों का काम होगा इन आस्थाओं की रक्षा और पुनर्जीवन।
2. शिक्षा और ज्ञान-विस्तार के लिए
मिशनरी स्कूल और मदरसे इस बात के उदाहरण हैं कि संगठित शिक्षा-प्रणालियाँ विचारों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाती हैं।
सनातन समाज को वेद, उपनिषद, गीता और भारतीय विज्ञान को आधुनिक शिक्षा से जोड़कर नए विद्यालय और विश्वविद्यालय स्थापित करने होंगे।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय इस दिशा में आदर्श उदाहरण हैं।
3. सामाजिक समरसता के लिए
जातिवाद ने सनातन समाज को कमजोर किया है।
संगठनात्मक ढाँचा इन खाइयों को पाट सकता है।
“सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय” का आदर्श तभी साकार होगा जब समाज साझा मंच पर आए।
4. राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए
लोकतंत्र में “संख्या” और “संगठन” ही शक्ति है।
यदि हिंदू समाज संगठित होकर अपने मुद्दों को रखे तो राजनीतिक दबाव अधिक प्रभावी होगा।
असंगठन की स्थिति में उसकी आवाज़ हमेशा कमजोर पड़ती है।
5. वैश्विक स्तर पर प्रतिनिधित्व
इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) और ईसाई चर्च वैश्विक स्तर पर अपने समुदायों की आवाज़ उठाते हैं।
सनातन धर्म का कोई ऐसा मंच नहीं है।
“वर्ल्ड हिंदू कांग्रेस” जैसे प्रयासों को और मज़बूत करने की आवश्यकता है।
उपलब्ध उदाहरण
1. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS)
सेवा प्रकल्पों, सामाजिक-सांस्कृतिक जागरूकता और राष्ट्रवाद के माध्यम से संगठन शक्ति का उदाहरण।
2. विश्व हिंदू परिषद (VHP)
मंदिर आंदोलन और धार्मिक जागरूकता में सक्रिय भूमिका।
3. रामकृष्ण मिशन, आर्य समाज और इस्कॉन
आध्यात्मिक और सामाजिक सेवा का संगठित प्रयास।
4. अखाड़ा परिषद
साधु-संतों का संगठन, यद्यपि इसका प्रभाव सीमित है।
ये उदाहरण साबित करते हैं कि जब समाज संगठित होता है, तो बड़े-बड़े परिवर्तन संभव हो जाते हैं।
आंकड़े और स्थिति
2011 की जनगणना
हिंदू: 79.8%
मुस्लिम: 14.2%
ईसाई: 2.3%
सिख: 1.7%
अन्य: 2%
प्यू रिसर्च (2021)
2050 तक भारत में मुस्लिम जनसंख्या 18% तक पहुँच सकती है।
यदि धर्मांतरण और उच्च जन्म दर जारी रही तो भारत की सांस्कृतिक संरचना गहराई से बदल सकती है।
आगे की राह : क्या करना होगा?
1. शिक्षा का भारतीयकरण
आधुनिक विज्ञान के साथ भारतीय ज्ञान परंपरा को जोड़कर नए संस्थान बनाने होंगे।
2. मीडिया और बौद्धिक विमर्श में भागीदारी
फिल्म, टीवी, सोशल मीडिया और विश्वविद्यालयों में सनातन की सकारात्मक प्रस्तुति आवश्यक है।
3. संगठन का विकेंद्रीकृत लेकिन समन्वित स्वरूप
स्थानीय स्तर पर छोटे संगठन और राष्ट्रीय स्तर पर साझा मंच बनना चाहिए।
4. जातिगत खाई को पाटना
“एक हिंदू, एक समाज” की भावना को मज़बूत करना होगा।
5. युवा शक्ति को जोड़ना
टेक्नोलॉजी, स्टार्टअप और वैश्विक नेतृत्व में युवाओं को आगे लाकर संगठनात्मक शक्ति बढ़ानी होगी।
सनातन धर्म की आत्मा सहिष्णुता और बहुलता है। लेकिन इन्हें जीवित रखने के लिए अब संगठनात्मक शक्ति की आवश्यकता है।
इतिहास ने सिखाया है कि असंगठित समाज हमेशा शोषण और पराधीनता का शिकार होता है। वर्तमान चुनौतियाँ—धर्मांतरण, वैचारिक आक्रमण, जनसांख्यिकीय असंतुलन और राजनीतिक विखंडन—यह स्पष्ट संकेत देते हैं कि यदि अब भी हम संगठित नहीं हुए तो आने वाली पीढ़ियाँ केवल इतिहास की पुस्तकों में सनातन धर्म को ढूँढेंगी।
सनातन संस्कृति का मूल मंत्र है—
“एकम सत् विप्राः बहुधा वदन्ति।”
लेकिन इस “एक” को जीवित रखने के लिए आज संगठित प्रयास अनिवार्य हो चुके हैं।
