स्थानीय चुनाव के लिए उम्मीदवार तैयार, पिछड़ी जातियों के आरक्षण से बढ़ी चुनावी हलचल

तेलंगाना के विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता और कार्यकर्ता एक साथ दिखाई दे रहे हैं।

दादा गंगाराम की रिपोर्ट 

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स्थानीय लड़ाई के लिए उम्मीदवार तैयार, चुनावी जंग तेज

 कोमाराम भीम आसिफाबाद: तेलंगाना के कोमाराम भीम आसिफाबाद जिले में स्थानीय लड़ाई के लिए उम्मीदवार तैयार हो रहे हैं और इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है राज्य सरकार द्वारा पिछड़ी जातियों के लिए घोषित किया गया 42 प्रतिशत आरक्षण। सरकार ने यह निर्णय अनुच्छेद 40 के तहत सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने की नीति के अनुसार लिया है।

इस आरक्षण की घोषणा के बाद जिले की स्थानीय राजनीति में जबरदस्त हलचल मच गई है। अब उम्मीदवारों के बीच यह होड़ मची है कि किस पार्टी में शामिल होकर वे स्थानीय चुनावों में अपनी दावेदारी मजबूत करें।

खास बात यह है कि यह आरक्षण न केवल चुनावी समीकरणों को बदलने वाला है, बल्कि स्थानीय नेतृत्व की दिशा और दशा को भी नई दिशा दे सकता है।

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राजनीतिक दलों की नई रणनीति: कौन होगा किसका साथी?

स्थानीय लड़ाई के लिए उम्मीदवार तैयार हो रहे हैं और इसी बीच कांग्रेस, बीआरएस और भाजपा ने आगामी स्थानीय निकाय चुनावों में बहुमत हासिल करने के लिए अपनी रणनीति को धार देना शुरू कर दिया है। इन तीनों प्रमुख दलों के जिला प्रभारी अपने-अपने क्षेत्रों में सक्रिय हो गए हैं।

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भाजपा के सिरपुर विधायक डॉ. पलवई हरीश बाबू पूरी ताकत से क्षेत्र में सक्रिय हैं।

कांग्रेस के संयुक्त एमएलसी दांडे विट्ठल सिरपुर निर्वाचन क्षेत्र के प्रभारी के रूप में रणनीतिक बैठकें कर रहे हैं।

वहीं बीआरएस के राज्य संयोजक आरएस प्रवीण कुमार ने भी गांव-गांव जाकर कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने की प्रक्रिया तेज कर दी है।

स्थानीय लड़ाई के लिए उम्मीदवार तैयार हैं, लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि बीआरएस से पूर्व विधायक कोनेरू कोनप्पा की फिर से वापसी पार्टी में किस तरह का सामंजस्य पैदा करेगी।

गाँवों में बढ़ रही हलचल: सरपंच से लेकर वार्ड सदस्य तक जुटे मैदान में

कोमाराम भीम आसिफाबाद जिले के गांवों में स्थानीय चुनावों की हलचल साफ तौर पर देखी जा सकती है। मंडल स्तर पर, गांवों में एमपीटीसी, सरपंच और वार्ड सदस्य बनने के इच्छुक उम्मीदवार अब स्थानीय लोगों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने में जुट गए हैं।

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स्थानीय लड़ाई के लिए उम्मीदवार तैयार हैं, और वे यह समझ रहे हैं कि यदि समय रहते जनता का समर्थन नहीं मिला, तो सीट से हाथ धोना तय है। इसलिए वे जातीय समीकरण और सामाजिक समीकरण को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए गहन मंथन कर रहे हैं।

जातिगत समीकरण और उम्र का अनुभव: दोनों की परीक्षा

इस बार की चुनावी लड़ाई में उम्र और अनुभव को बहुत महत्व नहीं दिया जा रहा है। कई युवा उम्मीदवार मैं-मैं के रवैये के साथ मैदान में उतरने को तैयार हैं। वहीं वरिष्ठ नेता अपने अनुभव के आधार पर जीत की रणनीति बना रहे हैं।

यहां यह देखना दिलचस्प होगा कि स्थानीय लड़ाई के लिए उम्मीदवार तैयार होने के बावजूद किस वर्ग को जनता का समर्थन अधिक मिलता है— युवा ऊर्जा को या वरिष्ठ अनुभव को?

आरक्षण नीति से बढ़ा पिछड़ी जातियों का राजनीतिक आत्मविश्वास

तेलंगाना सरकार द्वारा 42 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा के बाद पिछड़ी जातियों के बीच एक नया आत्मविश्वास जागा है। वे अब राजनीति में अपनी हिस्सेदारी को लेकर अधिक सजग हो गए हैं।

स्थानीय लड़ाई के लिए उम्मीदवार तैयार हो रहे हैं, लेकिन पिछड़ी जातियों के नेताओं के मन में यह सवाल भी उठ रहा है कि वे किस पार्टी में शामिल होकर अपनी राजनीतिक पहचान को आगे बढ़ा सकते हैं।

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यह दुविधा इस कारण है कि सभी प्रमुख दल उन्हें आकर्षित करने के लिए वादे कर रहे हैं, लेकिन उन्हें यह समझ नहीं आ रहा कि किस पार्टी में उन्हें वास्तव में प्रतिनिधित्व और सम्मान मिलेगा।

अधिसूचना के इंतज़ार में सभी पार्टियाँ: अब देखना है कौन मारेगा बाज़ी

जैसे-जैसे चुनावी अधिसूचना की घोषणा नजदीक आ रही है, राजनीतिक दलों की तैयारियां और भी तेज होती जा रही हैं। सभी दल अपनी-अपनी पार्टी संरचना, जातिगत समीकरण और कार्यकर्ता नेटवर्क को मज़बूत करने में लगे हैं।

तेलंगाना के विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता और कार्यकर्ता एक साथ दिखाई दे रहे हैं।
तेलंगाना की राजनीति में नेताओं की हलचल और दल-बदल की तस्वीरें।

स्थानीय लड़ाई के लिए उम्मीदवार तैयार हैं, लेकिन अब यह देखना शेष है कि जब वास्तविक चुनावी मुकाबला सामने आएगा, तब कौन सी पार्टी जिले में बहुमत हासिल करने में सफल होती है।

स्थानीय लड़ाई के लिए उम्मीदवार तैयार हैं, और कोमाराम भीम आसिफाबाद जैसे जिले में यह स्पष्ट हो गया है कि आरक्षण की नीति ने राजनीति को नई दिशा दी है। चुनावों में अब सिर्फ पार्टी का नाम ही नहीं, बल्कि सामाजिक समीकरण, जातिगत संतुलन, और स्थानीय संबंध भी अहम भूमिका निभाने वाले हैं।

राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के सामने अब एक ही सवाल है – क्या वे जनता की नब्ज पकड़ पाएंगे? और क्या वे सामाजिक न्याय के इस नए अध्याय का लाभ उठा पाएंगे?

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