

अनिल अनूप की खास रिपोर्ट
आज़म ख़ान की रिहाई और मीर का शेर
आज़म ख़ान की रिहाई केवल एक कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नई करवट है। सीतापुर जेल से बाहर आते ही उन्होंने मीर तक़ी मीर का शेर पढ़ा –
“पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा, हाल हमारा जाने है।”
यह शेर उनकी पीड़ा, सियासी उपेक्षा और टूटे भरोसे का प्रतीक बन गया। आखिर इतने लंबे संघर्ष और कैद के बाद आज़म ख़ान की रिहाई का राजनीतिक और सामाजिक मायने क्या हैं? यही इस फीचर का मुख्य विषय है।
आज़म ख़ान की रिहाई और अखिलेश यादव से रिश्तों की तल्ख़ी
आज़म ख़ान की रिहाई ने सबसे पहले समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव से उनके रिश्तों को केंद्र में ला दिया है।

लंबे समय तक वे मुलायम सिंह यादव के भरोसेमंद रहे।
लेकिन अखिलेश यादव के दौर में उनके बीच की दूरी साफ़ दिखाई देने लगी।
जेल के भीतर भी आज़म ने कई बार यह संकेत दिए कि उन्हें पार्टी से वैसा समर्थन नहीं मिला, जैसा अपेक्षित था।
हालांकि, सियासत में रिश्ते कभी स्थायी नहीं होते। इसलिए आज़म ख़ान की रिहाई के बाद सवाल यह है कि क्या वे समाजवादी पार्टी में रहेंगे, या फिर कोई नई राजनीतिक राह बनाएंगे?
आज़म ख़ान की रिहाई और परिवार की नाराज़गी
आज़म ख़ान की रिहाई ने उनके परिवार के भीतर की हलचल भी उजागर कर दी है।
बेटे अब्दुल्ला आज़म ने कई बार अखिलेश यादव की चुप्पी पर सवाल उठाए।
पत्नी तज़ीन फ़ातिमा ने भी इशारों-इशारों में सपा से दूरी जताई।
नतीजतन, आज़म ख़ान की रिहाई केवल उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि परिवार की नाराज़गी को भी केंद्र में ले आई है। यह असंतोष आगे चलकर बड़े राजनीतिक फैसले का कारण बन सकता है।
आज़म ख़ान की रिहाई और बसपा की अटकलें
आज़म ख़ान की रिहाई के बाद राजनीतिक हलकों में एक और सवाल उठ रहा है – क्या वे बहुजन समाज पार्टी (बसपा) से हाथ मिला सकते हैं?
मायावती मुस्लिम समीकरण को साधने की कोशिश कर रही हैं।
दूसरी ओर, आज़म ख़ान की छवि मुस्लिम राजनीति के बड़े चेहरे की है।
इसलिए, आज़म ख़ान की रिहाई से यह अटकलें तेज़ हो गई हैं कि आने वाले चुनावों में वे बसपा या किसी नए गठबंधन का हिस्सा बन सकते हैं।
आज़म ख़ान की रिहाई और चंद्रशेखर आज़ाद समीकरण
एक दिलचस्प पहलू यह है कि आज़म ख़ान की रिहाई चंद्रशेखर आज़ाद के उदय के साथ सामने आई है।
दलित-मुस्लिम समीकरण हमेशा से उत्तर प्रदेश की राजनीति का आधार रहा है।
चंद्रशेखर आज़ाद दलित राजनीति को मजबूत कर रहे हैं।
यदि आज़म ख़ान और चंद्रशेखर का कोई गठजोड़ बनता है, तो यह सियासत में बड़ा बदलाव ला सकता है।
यानी आज़म ख़ान की रिहाई केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि एक नए राजनीतिक ध्रुवीकरण की संभावनाओं को जन्म देती है।
आज़म ख़ान की रिहाई और मुस्लिम वोट बैंक
आज़म ख़ान की रिहाई का सबसे बड़ा असर मुस्लिम वोट बैंक पर पड़ सकता है।
सपा, बसपा और कांग्रेस सभी मुस्लिम वोट को साधने की कोशिश में हैं।
लेकिन मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा आज़म को अब भी अपना रहनुमा मानता है।
हालांकि, लंबी जेल यात्रा और लगातार मुकदमों ने उनकी राजनीतिक पकड़ को कुछ हद तक कमजोर किया है।
इसके बावजूद, आज़म ख़ान की रिहाई मुस्लिम राजनीति में नई बहस को जन्म देती है – क्या मुसलमान अब भी उन्हें अपना नेता मानेंगे, या नई पीढ़ी के नेता उभरेंगे?
आज़म ख़ान की रिहाई और अतीत का बोझ
राजनीति में अतीत हमेशा पीछा करता है।
आज़म ख़ान के ऊपर कई मुकदमे अब भी लंबित हैं।
जमीन से जुड़े विवाद और भाषणों से जुड़ी विवादित टिप्पणियाँ उनकी छवि को लगातार प्रभावित करती हैं।
इसलिए आज़म ख़ान की रिहाई के बावजूद, अतीत का बोझ उनका पीछा नहीं छोड़ेगा।
लेकिन, यही बोझ उन्हें “सियासत के शहीद” की छवि भी दे सकता है।
आज़म ख़ान की रिहाई और सेहत का सवाल
आज़म ख़ान की रिहाई के बाद उनका पहला बयान था,
“मैं फिलहाल इलाज कराऊंगा, फिर सोचूंगा कि आगे क्या करना है।”
यह वाक्य जितना साधारण दिखता है, उतना ही गहरा है।
उनकी सेहत बिगड़ चुकी है।
लंबे कारावास ने उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से थका दिया है।
नतीजतन, आज़म ख़ान की रिहाई के बाद उनका स्वास्थ्य भी राजनीतिक समीकरणों का हिस्सा बन गया है।
आज़म ख़ान की रिहाई और भविष्य की राह
आज़म ख़ान की रिहाई के बाद तीन संभावित राहें दिखती हैं –
1. समाजवादी पार्टी में बने रहना, लेकिन सीमित भूमिका में।
2. नई राजनीतिक पारी की शुरुआत करना, चाहे बसपा या किसी नए गठबंधन के साथ।
3. सक्रिय राजनीति से संन्यास लेना, और केवल मार्गदर्शक की भूमिका निभाना।
हालांकि, उत्तर प्रदेश की राजनीति के इतिहास को देखते हुए, ऐसा मानना मुश्किल है कि आज़म ख़ान पूरी तरह चुप बैठ जाएंगे।
आज़म ख़ान की रिहाई का असर
आज़म ख़ान की रिहाई हमें यह सिखाती है कि राजनीति केवल सत्ता का खेल नहीं है। यह रिश्तों, भरोसे और उम्मीदों की भी कहानी है।
उन्होंने जेल से बाहर आकर मीर का जो शेर पढ़ा, वह केवल उनकी पीड़ा नहीं, बल्कि पूरे समाज की बेचैनी का आईना है –
“जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है।”
आख़िरकार, आज़म ख़ान की रिहाई उत्तर प्रदेश की राजनीति का एक नया अध्याय है। यह अध्याय कितना लंबा और असरदार होगा, यह आने वाला समय ही बताएगा।
