-मोहन द्विवेदी
बराबरी की भाषा की मुहिम अब केवल एक भाषाई आंदोलन नहीं रह गई है, यह सामाजिक सोच और लैंगिक न्याय की पहचान बन चुकी है। यह आलेख बताता है कि क्यों शब्दों में समानता जरूरी है और कैसे ‘कार्यकर्ता’ जैसे शब्दों का स्त्रीलिंग तय करना हमारी साझा ज़िम्मेदारी है।
🔹 भाषा सिर्फ माध्यम नहीं, मानसिकता भी है
भाषा केवल संवाद का साधन नहीं, बल्कि वह दर्पण है जिसमें समाज की सोच और संरचना झलकती है। वर्षों तक हमने यह मानकर चल लिया कि ‘शब्दों में क्या रखा है’, लेकिन अब वक़्त आ गया है इस धारणा को चुनौती देने का। क्योंकि अगर हम गौर से देखें, तो पाएंगे कि भाषा में गहराई तक पितृसत्ता की जड़ें फैली हुई हैं।
🔹 जब सोच में होती है पक्षपात, तो शब्द चुप नहीं रहते
उदाहरण के लिए, ‘डॉक्टर’, ‘नेता’, ‘वैज्ञानिक’, ‘सैनिक’, ‘कार्यकर्ता’ जैसे अधिकांश पेशेवर शब्दों का रूप केवल पुरुष के संदर्भ में गढ़ा गया है। जब कोई महिला इन्हीं भूमिकाओं में आती है, तो उसके लिए या तो कोई स्पष्ट शब्द नहीं होता, या फिर उसे एक ‘महिला’ विशेषण के सहारे पहचाना जाता है।
और यही कारण है कि ‘बराबरी की भाषा’ की यह मुहिम अब केवल शब्दों की नहीं रही—यह उस मानसिकता के विरुद्ध संघर्ष बन गई है, जो महिलाओं को केवल उपस्थिति देती है, पहचान नहीं।
🔹 परिवर्तन की यह लहर कहां से शुरू हुई?
पिछले कुछ महीनों में ‘बराबरी की भाषा’ को जो ज़बरदस्त जनसमर्थन मिला है, वह बेहद प्रेरणादायक है। इस मुहिम की सबसे ख़ास बात यह है कि यह आंदोलन बंद कमरे में बैठकर तय नहीं किया गया, बल्कि यह लोकतांत्रिक मंचों पर जनता की भागीदारी से गढ़ा गया है।
हर हफ्ते एक नया शब्द प्रस्तावित होता है, उस पर खुला विमर्श होता है और फिर वोटिंग के ज़रिए बहुमत से निर्णय लिया जाता है। ‘कलाकार’ से ‘कलाकारा’, ‘विधायक’ से ‘विधायिका’ और ‘चिकित्सक’ से ‘चिकित्सिका’ जैसे उदाहरणों ने यह साफ़ कर दिया है कि अब समाज शब्दों में भी बराबरी चाहता है, न कि केवल पदों पर।
🔹 ‘कार्यकर्ता’ का सवाल क्यों इतना महत्वपूर्ण है?
अब सवाल है—जब कोई लड़की कहती है कि वह बड़ी होकर ‘कार्यकर्ता’ बनेगी, तो क्या उसका यह सपना उस शब्द में अपनी छवि देखता है? या वह इस शब्द में सिर्फ पुरुष की परछाईं महसूस करती है?
‘कार्यकर्ता’ शब्द चाहे सामाजिक सेवा से जुड़ा हो या राजनीतिक सक्रियता से, इसका रूप अब तक केवल पुरुष संदर्भ में देखा गया है। महिलाएं चाहे कितनी भी कुशल, सक्षम और प्रभावशाली हों—उन्हें ‘महिला कार्यकर्ता’ कहकर या फिर ‘सेविका’, ‘सहयोगिनी’, जैसे संकुचित विकल्प देकर अलग पंक्ति में खड़ा कर दिया जाता है।
क्या यह भाषा का न्याय है?
नहीं। यह वह अंधा कोना है जहां समाज महिलाओं की भूमिका को छुपा देता है, दबा देता है, और कई बार मिटा देता है।
🔹 लेकिन सिर्फ शब्द बदलने से क्या होगा?
यह सवाल अक्सर उठता है। कई बार पुरानी सोच रखने वाले लोग कहते हैं—”नाम बदलने से क्या फर्क पड़ता है? काम तो वही रहेगा।”
पर सोचिए, अगर नाम में पहचान न होती, तो किसी भी संस्था या पद का नाम बदलने के लिए संसद में प्रस्ताव क्यों लाए जाते? कोई भी सेना या संगठन अपने नाम में लिंग-तटस्थ या प्रतिनिधिक शब्दों को क्यों शामिल करता?
असल में, भाषा पहचान बनाती है। जब कोई लड़की कहती है कि वह ‘कार्यकर्त्री’ या ‘कार्यकर्ती’ है, तो वह सिर्फ एक शब्द नहीं चुन रही, वह यह अधिकार मांग रही है कि उसे उस पहचान में पूरा सम्मान मिले, बिना किसी व्याख्या के।
🔹 आपके सुझाव, आपकी भाषा, आपकी बराबरी
अब हम सबके सामने एक लोकतांत्रिक विकल्प है—हम यह तय करें कि ‘कार्यकर्ता’ का स्त्रीलिंग क्या हो?
विकल्प हैं: कार्यकर्त्री, कार्यकर्ती, कार्यकर्तिन, कार्यकर्तन
या फिर कोई और जो आपके मन में बेहतर लगता हो
आपसे निवेदन है कि आप न केवल वोट करें, बल्कि इस पर गहराई से सोचें। क्योंकि हर बार जब आप किसी स्त्रीलिंग शब्द का चुनाव करते हैं, तो आप एक पूरी सोच का निर्माण करते हैं—एक ऐसी सोच जिसमें महिलाएं केवल ‘हिस्सेदार’ नहीं, ‘हक़दार’ बनें।
🔹यह भाषा की लड़ाई नहीं, पहचान की लड़ाई है
अंततः यह साफ़ होता जा रहा है कि ‘बराबरी की भाषा’ की यह यात्रा महज़ शब्दों के बदलाव की नहीं, बल्कि सोच, संरचना और सम्मान के नए ढांचे की नींव रखने की कोशिश है।
जब तक हम भाषा में समावेशिता नहीं लाते, समाज में समानता का सपना अधूरा ही रहेगा।
इसलिए आइए, इस बदलाव का हिस्सा बनिए। अपने सुझाव दीजिए, वोट कीजिए, चर्चा कीजिए—क्योंकि भाषा जब बराबर होगी, तब ही दुनिया भी बराबर होगी।
📣 टिप्पणी करें, वोट करें और बदलाव में भागीदार बनें!
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