Saturday, July 26, 2025
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बोलता है गांव — जहां खिड़की से आती हवा में बहस की खुशबू होती है…”रायता” नहीं, “राय” फैलाते हैं ये लोग — 

अनिल अनूप

🍃 बाहर हरियाली पसरी थी, अंदर चारपाई पर बैठा एक आदमी। पहनावे में कुछ नहीं था जो उसे ‘खास’ बनाए — एक पुरानी बनियान, हल्की मुड़ी हुई हाफ पैंट, और पांव में टूटी चप्पलें। मगर जैसे ही उसने बोलना शुरू किया, पूरे कमरे की हवा बदल गई। उसकी आंखों में शब्दों की आग थी, और ज़ुबान पर संतुलित तर्क।

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उसके सामने बैठा दूसरा व्यक्ति — उम्र में लगभग समान, एक सरकारी दफ्तर में चपरासी की नौकरी कर चुका। दोनों के बीच एक लकड़ी की पुरानी टेबल थी, जिस पर कुछ ग्लास और घर का बना हुआ नाश्ता पड़ा था। चाय की चुस्कियों के साथ बहस चल रही थी — विषय था: “क्या गांवों में अब भी विचार बचा है?”

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📚 संसाधन नहीं, लेकिन समझ की गहराई है

ये वही लोग हैं जो दिन भर खेत में काम करते हैं, फिर शाम को लौटकर अख़बार पढ़ते हैं, रेडियो पर बहस सुनते हैं, और फिर शुरू होती है बातचीत — जो कभी रामराज्य से शुरू होकर जलवायु परिवर्तन तक पहुँच जाती है।

इनका ज्ञान न किसी यूनिवर्सिटी की डिग्री से आया है, न सोशल मीडिया से। यह तजुर्बे की मिट्टी में पसीने से सींचा गया विवेक है।

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इन बुद्धिजीवियों का जीवन कठिन है — न बिजली नियमित मिलती है, न पानी। फिर भी इनकी सोच में कड़वाहट नहीं, बल्कि स्पष्टता है।

🏡 कमरे की चार दीवारें और एक संसार

जिस कमरे में वे बैठे हैं, वहां न एसी है, न सजावटी पेंटिंग्स। दीवारों पर कुछ पुरानी तस्वीरें टंगी हैं — एक में नेताजी सुभाष चंद्र बोस हैं, दूसरी में संत कबीर। एक कोने में किताबें रखी हैं — “गांधीजी की आत्मकथा”, “लोकतंत्र के चार स्तंभ”, और “तुलसीदास के पत्र”।

यह वही भारत है जिसे ‘बैकवर्ड’ कहकर उपेक्षित कर दिया गया, लेकिन यहां आज भी सोच आगे है, जीवन भले पीछे हो।

🧠 बातचीत में था अर्थ, मौन में था मूल्य

“हमारे यहां नेता सिर्फ चुनाव के वक्त आते हैं। मगर समस्या रोज़ की है — स्कूल में मास्टर नहीं आता, राशन दुकान वाला वजन काटता है, और अस्पताल में डॉक्टर से ज़्यादा दलाल हैं,” एक व्यक्ति ने कहा।

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दूसरा मुस्कराया, “मगर इसका हल हमें ही ढूंढना होगा। क्योंकि अगर हम ही नहीं बदलेंगे, तो कौन बदलेगा?”

उनके ये वाक्य किसी विश्वविद्यालय के भाषण से कम नहीं लगे। यह संवाद था — जमीनी हकीकत और ज़िम्मेदारी का।

🔍 शब्दों में छिपे परिवर्तन के बीज

इन ग्रामीण बुद्धिजीवियों की एक खास बात यह है कि वे कभी भाषण नहीं देते, लेकिन हर बात सीखने लायक होती है।

वे शिक्षा की बात करते हैं, लेकिन बच्चों को स्कूल भेजने के साथ-साथ खुद भी पढ़ते हैं।

वे सरकार की आलोचना करते हैं, मगर जिम्मेदारी भी लेते हैं।

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इनकी बातें शायद ट्विटर पर ट्रेंड न करें, लेकिन जब कोई नौजवान इनसे बात करके लौटता है, तो बदलकर लौटता है।

🌾 यह देश असली रूप में इन्हीं से बनता है

आज जब ज्ञान को लाइक्स, रील्स और स्क्रॉल में तौला जा रहा है, गांव के ये साधारण लोग संवाद की आत्मा को जीवित रखे हुए हैं।

इनके पास मंच नहीं है, कैमरा नहीं है, मगर जो कुछ है वह अद्वितीय है — विचार, आत्मसम्मान और समाज के लिए जिम्मेदारी।

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हो सकता है, आने वाले वर्षों में यही लोग बदलाव के बीज बनें — बिना प्रचार के, बिना दिखावे के।

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