Saturday, July 26, 2025
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पाँच दशक पुरानी योजना और आज भी बूंद-बूंद तरसता पाठा, सरकारी योजनाओं का क्यों नहीं मिल रहा लाभ? 

चित्रकूट का पाठा क्षेत्र आज भी भीषण पेयजल संकट से जूझ रहा है। 50 वर्ष पुरानी पाठा जलकल योजना आज तक विफल क्यों है? जानिए विस्तृत ग्राउंड रिपोर्ट।

संजय सिंह राणा की रिपोर्ट

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित चित्रकूट जिला भले ही भगवान श्रीराम की तपोभूमि और धार्मिक पर्यटन केंद्र के रूप में विश्वविख्यात हो, लेकिन यहां के निवासी आज भी जीवन की सबसे बुनियादी आवश्यकता—जल के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।

पाठा क्षेत्र, जहाँ सैकड़ों गाँव बिखरे हुए हैं, भीषण गर्मी में आज भी प्यास से बेहाल हो उठता है। आलम यह है कि कई गाँवों में पेयजल की व्यवस्था न होने के कारण कोल आदिवासी दो से तीन किलोमीटर तक पैदल चलकर गंदे जोहड़ों, सूखते कुओं और तालाबों से पानी भरने को मजबूर हैं।

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इतिहास की भूल : पाठा जल कल योजना का सपना

सन 1973 में जब ‘पाठा जल कल योजना’ की आधारशिला रखी गई और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 9 जनवरी 1974 को इसका उद्घाटन किया, तब इसे एशिया की सबसे बड़ी पेयजल योजना बताया गया था। इसका उद्देश्य पाठा क्षेत्र के सैकड़ों गाँवों में साफ और नियमित पेयजल उपलब्ध कराना था।

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➤ पर दुर्भाग्यवश—

50 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन योजना आज भी अधूरी है।

150 से अधिक गाँव आज भी बूंद-बूंद पानी को तरस रहे हैं।

सरकारें बदलीं, बजट पास हुए, घोषणाएं हुईं—लेकिन प्यास वही रही।

जमीनी हकीकत : आज के हालात

वर्तमान में मानिकपुर और बरगढ़ के ग्रामीण इलाकों में हालात बदतर हो चुके हैं। गर्मियों में कई गाँवों का भूजल स्तर 100 फीट से नीचे चला जाता है।

प्रभावित प्रमुख गाँव :

खिचरी, रामपुर कल्याणगढ, चमरौहां, सकरौंहा, रानीपुर गिदुरहा, ऊंचाडीह, किहुनिया पंचपेड़ा, (और लगभग 100 अन्य गाँव)। 

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इन गाँवों में नल-जल योजनाएं या तो शुरू ही नहीं हुईं, या वर्षों से ठप पड़ी हैं। हैंडपंप सूख चुके हैं, और जो बचे हैं, उनमें पानी पीने योग्य नहीं है।

ग्रामीणों की पीड़ा : दो किमी का सफर, एक बाल्टी पानी

कोल आदिवासी महिलाओं और किशोरियों को हर सुबह 2 से 3 किमी दूर चलकर जंगलों और ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते हुए किसी पुराने कुएं या तालाब से गंदा पानी भरकर लाना पड़ता है। यही पानी पीने, नहाने, कपड़े धोने और पशुओं के लिए इस्तेमाल होता है।

> “हमको हर रोज़ पानी लाने में 4 घंटे लगते हैं। न स्कूल जा पाते हैं न खेत ठीक से देख पाते।”

— किहुनिया गाँव की एक किशोरी, पार्वती कोल

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सरकारी आंकड़े बनाम वास्तविकता

वर्ष स्वीकृत बजट (करोड़ में) व्यय (करोड़ में) लाभांवित गाँव स्थायी व्यवस्था

2000 32.5 19.7 28 नहीं

2010 44.8 22.3 45 नहीं

2020 58.0 31.6 68 नहीं

2023 74.5 39.2 95 आंशिक

इन आँकड़ों से स्पष्ट है कि बजट तो बढ़ता गया, लेकिन परिणाम निराशाजनक रहे।

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क्यों विफल हुई योजना?

1. भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी

ठेकेदारों द्वारा घटिया सामग्री का प्रयोग।

पाइपलाइन कई गाँवों में कभी बिछाई ही नहीं गई।

2. प्रौद्योगिकीय विफलता

भूमिगत जल स्तर का गलत अनुमान।

पुराने पंप हाउस और फिल्टर प्लांट अब जर्जर हो चुके हैं।

3. प्रशासनिक उदासीनता

किसी भी योजना का स्थायी मूल्यांकन नहीं हुआ।

निगरानी समितियां केवल कागज़ों में अस्तित्व में रहीं।

जनजीवन पर प्रभाव

बालिकाओं की शिक्षा में रुकावट—कई बार स्कूल छोड़ना पड़ता है।

महिलाओं का स्वास्थ्य प्रभावित—कमर दर्द, गर्भवती महिलाओं को कठिनाई।

जलजनित रोगों की भरमार—डायरिया, टायफाइड, स्किन रोग।

पलायन बढ़ा है—लोग काम की तलाश में शहरों की ओर भाग रहे हैं।

क्या हो सकते हैं समाधान?

✅ पुनर्मूल्यांकन

योजना की वर्तमान स्थिति की ईमानदारी से समीक्षा हो।

फील्ड निरीक्षण अनिवार्य किया जाए।

✅ तकनीकी अपग्रेडेशन

सोलर आधारित बोरवेल्स और आधुनिक RO सिस्टम की स्थापना।

जलाशयों और टंकों का डिजिटल मॉनिटरिंग।

✅ जन भागीदारी

ग्राम स्तर पर ‘जल समिति’ का गठन।

लोगों को संरक्षण और रखरखाव में जोड़ना।

✅ राजनीतिक इच्छाशक्ति

योजनाओं को चुनावी मुद्दा बनाने के बजाय ज़मीनी हकीकत पर ध्यान देना।

 राम की भूमि, राम भरोसे क्यों?

चित्रकूट जैसा जिला जो आध्यात्मिक चेतना का केंद्र है, वहां के मूल निवासी पेयजल जैसी प्राथमिक सुविधा से वंचित हैं, यह लोकतंत्र के लिए विडंबना है। ‘हर घर जल’ का सपना तभी पूरा होगा जब सरकारी योजनाएं ईमानदारी और पारदर्शिता से धरातल पर उतरें।

> पाठा की प्यास तब बुझेगी जब योजनाएं कागज़ से निकलकर नलों में बहने लगें।

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