1975 की इमरजेंसी के दौरान कैसे फिल्मों पर पड़ी सेंसरशिप की गाज़, संजय गांधी पर लगे ‘किस्सा कुर्सी का’ जलवाने के आरोप, किशोर कुमार के गानों पर बैन और ‘शोले’ का बदला अंत—जानिए उस दौर के दमित सिनेमा की पूरी कहानी।
टिक्कू आपचे की रिपोर्ट
जब पर्दे पर छा गई सियासत की परछाईं…
1975 में देश में लागू हुई इमरजेंसी भारतीय लोकतंत्र ही नहीं, भारतीय सिनेमा के इतिहास में भी एक काली लकीर बनकर दर्ज हो गई। उस दौर में जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ताले जड़े गए, वहीं कला और कलाकारों को भी खामोश कर दिया गया। और इस पूरे घटनाक्रम में सबसे चर्चित नाम बनकर उभरे—संजय गांधी, जिनपर आरोप लगे कि उन्होंने न केवल राजनीतिक तंत्र को प्रभावित किया, बल्कि फिल्मी दुनिया में भी सेंसरशिप और दमन का खुला खेल खेला।
‘किस्सा कुर्सी का’: एक फिल्म जो बनी जेल की वजह
जनता पार्टी के सांसद अमृत नाहटा द्वारा बनाई गई फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ मूलतः एक राजनीतिक व्यंग्य थी, जो सीधे तौर पर इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी की कार्यशैली पर निशाना साधती थी। फिल्म के नेगेटिव जब्त कर कथित रूप से जला दिए गए—और इसके पीछे संजय गांधी का नाम सामने आया।
शाह कमीशन की रिपोर्ट में इस आरोप की पुष्टि हुई और कोर्ट ने संजय गांधी को दोषी मानते हुए जेल की सज़ा भी सुनाई। हालांकि बाद में यह फैसला पलट गया, लेकिन इस घटना ने फिल्म जगत पर सत्ता के हस्तक्षेप की भयावह तस्वीर पेश कर दी।
नसबंदी पर व्यंग्य, किशोर कुमार की नाराज़गी और बैन
आपातकाल के दौरान जब संजय गांधी ने ज़बरन नसबंदी अभियान चलाया, तब आईएस जौहर ने फिल्म ‘नसबंदी’ बनाई—जो इस सरकारी अभियान का करारा व्यंग्य थी। फिल्म में डुप्लिकेट कलाकारों ने उस दौर के चेहरों को बखूबी नकल किया और एक गाना था:
> “गांधी तेरे देश में ये कैसा अत्याचार”
जिसे किशोर कुमार ने आवाज़ दी।
इत्तेफाक या प्रतिरोध—यह तय करना मुश्किल है, लेकिन जब किशोर कुमार ने इमरजेंसी के दौरान कांग्रेस की रैली में गाने से इनकार किया तो उन्हें कड़ा अंजाम भुगतना पड़ा।
ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन पर उनके गाने प्रतिबंधित कर दिए गए।
किशोर दा ने एक इंटरव्यू में स्पष्ट कहा था—
> “मैं किसी के आदेश पर नहीं गाता।”
‘शोले’ की सेंसर की गई आग
इमरजेंसी की सेंसरशिप का असर सिर्फ व्यंग्यात्मक फिल्मों तक सीमित नहीं रहा। रमेश सिप्पी की बहुचर्चित फिल्म ‘शोले’ भी इसकी ज़द में आ गई। असली अंत में ठाकुर (संजीव कुमार) गब्बर को अपने कील लगे जूतों से रौंद देता है। परंतु, सेंसर बोर्ड ने इस दृश्य पर रोक लगाई क्योंकि इससे ‘कानून हाथ में लेने’ का संदेश जाता था।
आख़िरी दृश्य दोबारा शूट हुआ, जिसमें गब्बर को पुलिस के हवाले किया गया।
यह बदलाव केवल दृश्य नहीं था, यह सृजनात्मक स्वतंत्रता की हत्या थी।
गुलज़ार की ‘आंधी’: सिनेमा या सियासत?
गुलज़ार की संवेदनशील और कलात्मक फिल्म ‘आंधी’ को भी इमरजेंसी का कोपभाजन बनना पड़ा। माना जाता है कि यह फिल्म सीधे तौर पर इंदिरा गांधी की ज़िंदगी से प्रेरित थी, और इसीलिए इसे बैन कर दिया गया।
फिल्म की नायिका का व्यक्तित्व, उसकी राजनीतिक यात्रा और निजी संघर्ष—सब कुछ सत्ता को असहज कर गया।
देव आनंद की बगावत: जब अभिनेता बना नेता
देव आनंद, उस दौर के रोमांटिक नायक, इमरजेंसी से इतने आहत हुए कि उन्होंने राजनीतिक पार्टी बना डाली—’नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया’।
उनकी आत्मकथा में उल्लेख है कि वो समझ चुके थे कि वो अब सत्ता के करीबी लोगों के निशाने पर हैं।
सियासत और सिनेमा: अब भी एक असहज रिश्ता
इमरजेंसी के दौरान जो कुछ हुआ, वह केवल इतिहास नहीं है, बल्कि एक चेतावनी है कि जब सत्ता कला के स्वर को दबाने लगे, तो लोकतंत्र की आत्मा कराह उठती है। उस दौर की ‘किस्सा कुर्सी का’, ‘नसबंदी’, ‘आंधी’ और ‘शोले’ जैसी फिल्में केवल सिनेमाई कृतियाँ नहीं थीं, बल्कि प्रतिरोध के प्रतीक थीं।
आज भी भारत में राजनीति और सिनेमा के बीच रिश्ता सहज नहीं हो पाया है। जवाबदेही और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच संतुलन साधने की जो चुनौती तब थी, वह आज भी जस की तस बनी हुई है।
इमरजेंसी और सिनेमा—एक अवरोध की कहानी
1975-77 का कालखंड केवल राजनीतिक दमन की कहानी नहीं है, बल्कि यह उस दौर का दर्पण है जब सिनेमा ने सत्ता के आगे झुकने से इनकार कर दिया।
कुछ फिल्में थमीं, कुछ झुकीं, लेकिन कुछ ने इतिहास रच दिया।