एक सोच

गाय हमारी माता है तो भैंस क्यों नहीं भाता है❓

प्रतीक और उत्पादन के बीच छिपे सामाजिक भेद का प्रश्न

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संपादकीय चिंतन
अनिल अनूप

 

 

संपादकीय चिंतन
©समाचार दर्पण • प्रकाशित: 23 नवंबर 2025

गाय को हमने ‘माता’ कहा और उसकी सेवा को सार्वजनिक-पवित्र बनाकर नीति और बजट का आधार बना दिया। इसके उलट भैंस—जो देश के कुल दूध का बड़ा हिस्सा देती है—नीति और सम्मान दोनों की सूची में अक्सर अनुपस्थित मिलती है। यह अंतर-दृष्टि बताती है कि भारत में प्रतीकवाद उत्पादकता पर भारी कैसे पड़ जाता है।

भारत में धार्मिक भावनाओं और सांस्कृतिक प्रतीकों का प्रभाव इतना व्यापक है कि वे नीति-निर्माण और राजनीतिक प्राथमिकताओं को सीधा प्रभावित करते हैं। गाय इसी प्रतीक-सत्ता का सबसे मजबूत चेहरा है। जबकि भैंस—जो किसान के जीवन का आधार है—उसे कोई राजनीतिक, संस्थागत या सांस्कृतिक ‘ब्रांड वैल्यू’ प्राप्त नहीं होती।

राज्यवार सरकारी खर्च: कहाँ कितना पैसा बहा?

गौशालाओं और गो-संरक्षण पर सरकारी खर्च लगातार बढ़ता रहा है। उपलब्ध सार्वजनिक अभिलेख और समाचार रिपोर्टें इस पैमाने को स्पष्ट दिखाती हैं:

उत्तर प्रदेश (2019–20): ₹612.6 करोड़
राजस्थान: 1,500 गौशालाओं हेतु ₹1,377 करोड़
भैंस: कुल दूध उत्पादन 55–60%

यह तुलना स्वयं दिखाती है कि गाय-संबंधी योजनाएँ मानक रूप से बजट का केंद्र बन चुकी हैं, जबकि देश की वास्तविक डेयरी रीढ़—भैंस—को स्वतंत्र बजट-आवंटन तक नहीं मिलता। यह प्राथमिकता वास्तविक उत्पादन नहीं, प्रतीक-सत्ता को दी जाती है।

गौशालाओं की आय: दान पर निर्भरता और आत्मनिर्भरता की कमी

गौशालाओं की एक बड़ी समस्या यह है कि उनकी आय का अधिकांश हिस्सा दान और सरकारी अनुदान पर निर्भर रहता है। कई अध्ययनों में यह पाया गया है कि 60% से लेकर 97% तक आय बाहरी दान से आती है, जबकि दूध और गोबर आधारित बिक्री से आय बहुत कम होती है।

गौशालाएँ आज भी “सेवा-निर्भर” ढाँचा बनी हुई हैं — “उद्यम-निर्भर” नहीं। इसलिए इनकी स्थिरता बाजार के बजाय अनुदान पर टिकती है।

गोसेवक परिवार: सेवा या सामाजिक प्रतिष्ठा?

कई राज्यों में गौशाला प्रबंधन समितियों और गौ-आयोगों में एक ही परिवार या प्रभावशाली समूहों का वर्चस्व मिलता है। यह क्षेत्र मात्र धार्मिक सेवा नहीं, बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा और राजनीतिक पहुँच का माध्यम भी बन चुका है।

इसके उलट भैंस की देखभाल किसान की निजी जिम्मेदारी बनी रहती है—न कोई आयोग, न कोई सार्वजनिक पद, न कोई सामाजिक पहचान। यह साफ़ दिखाता है कि नीति में सम्मान भावना से तय होता है, योगदान से नहीं।

सांस्कृतिक कारण: रंग, छवि और पवित्रता की परिभाषा

भारतीय मानसिकता में लंबे समय से उजले रंग को ‘पवित्र’ और काले रंग को ‘साधारण’ माना जाता रहा है। इसी सांस्कृतिक धारण ने गाय को पवित्रता का प्रतीक बनाया और भैंस को केवल एक श्रमशील पशु। यह पूर्वाग्रह धीरे-धीरे नीति तक पहुँच जाता है।

क्या समाधान संभव है?

गौशालाओं को आत्मनिर्भर मॉडल में बदलना संभव है—गोबर-आधारित जैव उर्वरक, बायोगैस इकाई, गोउत्पादों का ब्रांडिंग और डेयरी मूल्य श्रृंखला जैसे विकल्पों से। इसी तरह भैंस-आधारित डेयरी सेक्टर को क्रेडिट, योजना और विपणन समर्थन देकर मजबूत बनाया जा सकता है।

मूल बात: गाय की महत्ता बनी रहनी चाहिए, पर भैंस के वास्तविक योगदान को बराबर नीति-सम्मान मिले—यही सामाजिक अंतर-दृष्टि का न्यायसंगत निष्कर्ष है।

जब प्रतीक और उत्पादकता दोनों को समान दृष्टि में रखा जाएगा, तब समाज और नीति दोनों संतुलित होंगी। गाय की श्रद्धा और भैंस की वास्तविक उपयोगिता—दोनों का सम्मान ही भारत के ग्रामीण जीवन का सही प्रतिबिंब है।

नोट: सभी आँकड़े उपलब्ध सार्वजनिक रिपोर्टों, बजट स्रोतों और समाचार अभिलेखों पर आधारित सार-संक्षेप हैं। वास्तविक संख्याएँ समय के अनुसार अद्यतन हो सकती हैं।

 

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3 thoughts on “<div style="font-family:'Noto Serif Devanagari', Georgia; max-width:820px; margin:10px auto; padding:14px; background:#fff8f6; border-radius:6px;"> <span style="background:#fde68a; padding:6px 10px; border-radius:20px; font-weight:700; font-size:12px; color:#7c2d12;"> एक सोच </span> <h1 style="font-size:28px; margin:10px 0 6px; font-weight:800; line-height:1.25;"> <span style="color:#8B0000; font-weight:900;">गाय हमारी माता है</span> <span style="color:#0F1D85; font-weight:900;">तो भैंस क्यों नहीं भाता है❓</span> </h1> <p style="margin:0; color:#374151; font-size:14px; font-weight:600;"> प्रतीक और उत्पादन के बीच छिपे सामाजिक भेद का प्रश्न </p> </div>”

  1. केवल कृष्ण पनगोत्रा (जम्मू-कश्मीर)

    अनिल अनूप जी कौन सा मैटर पाठकों को परोस दें, अनुमान लगाना भी मुश्किल है? भला कोई सोच सकता है कि गाय और भैंस का तुलनात्मक लेख कोई लेखक लिखेगा? सैल्यूट तो बनता ही है

    1. यह रहा संपादक की ओर से एक संतुलित, गरिमापूर्ण और सारगर्भित उत्तर—आप इसे जस का तस उपयोग कर सकते हैं:

      समाचार संपादक की ओर से प्रतिक्रिया

      आदरणीय महोदय,
      आपकी सूक्ष्म दृष्टि और प्रोत्साहित करने वाले उद्गारों के लिए हार्दिक धन्यवाद। वास्तव में, लेखन का सार इसी स्वतंत्रता में निहित है कि लेखक उन विषयों को भी पाठकों के सामने ला सके, जिन पर सामान्यतः ध्यान नहीं जाता। अनिल अनूप जैसे अनुभवी लेखक की यही पहचान है कि वे साधारण प्रतीत होने वाले प्रसंगों में भी चिंतन, हास-व्यंग्य और सामाजिक संकेतों का एक नया आयाम जोड़ देते हैं।

      आपका यह सराहनीय टिप्पणी न केवल लेखक का उत्साह बढ़ाती है, बल्कि समाचार दर्पण को निरंतर विविध, मौलिक और विचारोत्तेजक सामग्री प्रस्तुत करने की प्रेरणा भी देती है।

      आपके स्नेह और पाठकीय विश्वास के लिए पुनः आभार।
      🙏🌹🙏
      😊—समाचार संपादक, समाचार दर्पण

      1. केवल कृष्ण पन्गोत्रा

        श्रीमंत, यह मेरा कृतत्व था. हमारी दुनिया में सिर्फ लेखन ही पर्याप्त नहीं होता, लेखकों को पढ़ना भी एक आवश्यक कर्म होता है. आप स्वयं जानकार हैं. प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद.

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