
✍️ अनिल अनूप
मेरी माँ होती तो शायद मैं आज यहाँ न होता…. यह वाक्य केवल एक मासूम बच्चे का दर्द नहीं, बल्कि भारत में लाखों ऐसे बच्चों की सच्चाई है, जिनके जीवन से माँ की छाया हट गई। किसी की माँ असमय बीमारी में गुजर गई, कोई सौतेली माँ की उपेक्षा का शिकार हुआ, तो किसी को माँ ने मजबूरी या लालच में छोड़ दिया।
माँ का न होना केवल एक व्यक्ति का न होना नहीं है, बल्कि पूरे अस्तित्व का हिल जाना है। माँ जीवन की सबसे पहली शिक्षक, सबसे सुरक्षित आसरा और सबसे सच्ची मित्र होती है। लेकिन जब यही आसरा टूट जाता है, तो बच्चे अपराध, नशे और शोषण की गलियों में धकेले जाते हैं।
भारत जैसे देश में जहाँ माँ को देवी माना गया है, वहीं समाज का यही चेहरा उन बच्चों के लिए सबसे निर्दयी हो जाता है, जो माँ के बिना जीने को मजबूर हैं। यही विरोधाभास हमारे सामाजिक ढाँचे की सबसे बड़ी त्रासदी है।
आँकड़ों की सच्चाई : माँ का न होना और टूटा बचपन
यूनिसेफ़ के आँकड़े बताते हैं कि भारत में दो करोड़ से अधिक अनाथ बच्चे हैं। इनमें एक बड़ा हिस्सा ऐसे बच्चों का है, जिनके माता-पिता ज़िंदा होने के बावजूद उनकी ज़िंदगी से ग़ायब हैं।
भारत सरकार की मिशन वात्सल्य योजना (2022–23) के अंतर्गत:
57,940 बच्चों को संस्थागत देखभाल मिली।
62,675 बच्चों को गैर-संस्थागत (फोस्टर केयर आदि) देखभाल दी गई।
ये आँकड़े बताते हैं कि योजनाएँ मौजूद हैं, मगर सागर जैसे दर्द को केवल बूँद भर राहत मिल पा रही है।
राज्यों की तस्वीर और भी भयावह है:
तमिलनाडु: 7,785 बच्चे
पश्चिम बंगाल: 6,220 बच्चे
महाराष्ट्र: 3,654 बच्चे
हर आँकड़ा एक चेहरे की कहानी है, जिसमें अधूरी नींद, खाली पेट और माँ के बिना टूटा बचपन छिपा है।
अपराध और माँ की अनुपस्थिति का रिश्ता
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार:
2016 में किशोरों द्वारा किए गए हिंसात्मक अपराध 32.5% थे।
2022 तक यह बढ़कर 49.5% हो गए।
यह वृद्धि महज़ संयोग नहीं, बल्कि पारिवारिक और भावनात्मक टूटन का नतीजा है।
राज्यवार तस्वीर
मध्य प्रदेश, दिल्ली, महाराष्ट्र और राजस्थान किशोर अपराध में सबसे ऊपर हैं।
मध्य प्रदेश हिंसक अपराधों में दूसरे नंबर पर है।
साफ़ है, जब माँ नहीं होती, तब बच्चा भावनात्मक सहारा खो देता है और अपराध की ओर धकेला जाता है।
टूटी कहानियाँ, अधूरे बच्चे
1. झारखंड का राजू
राजू (काल्पनिक नाम) आठ साल का था, जब माँ की मौत हो गई। पिता ने दूसरी शादी कर ली। सौतेली माँ के तानों और भूख से तंग आकर वह घर छोड़ भाग गया। रांची की सड़कों पर जूते पॉलिश से शुरुआत हुई, लेकिन नशा, चोरी और अपराध उसकी पहचान बन गए।
उसकी कहानी की जड़ में अपराध नहीं, बल्कि माँ की अनुपस्थिति थी।
2. दिल्ली की सीमा
सीमा की माँ उसे छोड़कर चली गई। पिता शराब में डूबे रहते और सौतेली माँ ने उसे नौकरानी बना दिया। मारपीट और अपमान से टूटी सीमा 14 साल की उम्र में तस्करी के गिरोह का हिस्सा बन गई।
उसका बचपन चुपचाप पूछ रहा था—“मेरी माँ होती तो क्या मैं आज यहाँ होती?”
3. ग्वालियर का बच्चा
एक बाल पुनर्वास केंद्र में रहने वाले बच्चे ने डायरी में लिखा:
“काश मेरी माँ होती तो मैं स्कूल में पढ़ता, दोस्त बनाता और बड़ा आदमी बनता। लेकिन अब मेरी पहचान अपराधी से ज्यादा कुछ नहीं है।”
यह वाक्य समाज की आत्मा पर लिखा हुआ कलंक है।
मानसिक और सामाजिक असर
WHO की रिपोर्ट कहती है:
बचपन में भावनात्मक उपेक्षा झेलने वाले बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति सामान्य बच्चों से 5 गुना अधिक होती है।
भारत में ऐसे बच्चों का डिप्रेशन और नशे की लत में फँसना आम है।
नशा इन बच्चों के लिए केवल लत नहीं, बल्कि दर्द से भागने का साधन बन जाता है। भूख, उपेक्षा और अकेलापन उन्हें सस्ती दवाइयों, बीड़ी-सिगरेट और गलत संगत में धकेल देता है।
समाज का आईना और हमारी विफलता
रिश्तेदार माँ को तो गाली देते हैं, लेकिन बच्चे को अपनाने की जिम्मेदारी नहीं लेते।
पड़ोसी सौतेली माँ की प्रताड़ना को “घर की बात” कहकर अनदेखा कर देते हैं।

और जब बच्चा अपराध में पकड़ा जाता है, तो समाज उसे “अपराधी” करार देता है।
असल दोषी केवल बच्चा नहीं, बल्कि हम सब हैं—एक संवेदनहीन समाज जिसने समय रहते उसे सहारा नहीं दिया।
समाधान और उम्मीद
1. सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव
हमें बच्चों को अपराधी नहीं, पीड़ित समझना होगा। माँ की कमी को पूरा करना असंभव है, लेकिन समाज मिलकर उस खालीपन को कम कर सकता है।
2. सरकारी योजनाओं का सशक्त क्रियान्वयन
मिशन वात्सल्य योजना को कागज़ से बाहर लाकर ज़मीनी स्तर पर लागू करना ज़रूरी है।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश अनुसार, अनाथ बच्चों को RTE के तहत 25% आरक्षित सीटों पर दाखिला मिलना चाहिए।
3. स्कूल और शिक्षक की भूमिका
शिक्षकों को संवेदनशील होकर उन बच्चों की पहचान करनी होगी, जो उदास, अकेले या उपेक्षित हों। काउंसलिंग और सहानुभूति उन्हें अपराध की राह से हटा सकती है।
4. समाज और स्वयंसेवी संस्थाएँ
पंचायतों, मोहल्लों और NGO को ऐसे बच्चों के पुनर्वास और मानसिक स्वास्थ्य में भागीदारी करनी होगी।
5. परिवार की प्राथमिकता
तलाक या दूसरी शादी की स्थिति में भी बच्चों की परवरिश सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।
सौतेले माता-पिता के लिए कानूनी जवाबदेही तय होनी चाहिए ताकि बच्चों का हक़ सुरक्षित रहे।
निष्कर्ष: “मेरी माँ होती तो” – एक चीख, जिसे सुनना होगा
हर किशोर अपराधी दरअसल टूटा हुआ इंसान है। उसकी आँखों का गुस्सा असल में उसकी अधूरी भूख और टूटे बचपन की चीख है।
जब भी आप किसी बच्चे को अपराध की राह पर देखें, तो उसे केवल अपराधी मत कहिए। सोचिए—कहीं वह बच्चा भी तो नहीं जो भीतर ही भीतर चिल्ला रहा है—
“मेरी माँ होती तो…”
यह लेख सिर्फ़ एक फीचर नहीं, बल्कि समाज के सामने रखा गया आईना है। उसमें झाँकिए, अपनी जिम्मेदारी देखिए। अगर आपकी संवेदनशीलता किसी बच्चे की माँ की जगह नहीं ले सकती, तो कम से कम उसकी ज़िंदगी बचाने का सहारा तो बन सकती है।
