अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट
मानसून सत्र की शुरुआत के साथ यह सवाल फिर उठ खड़ा हुआ है—क्या संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चलेगी? क्या लोकतंत्र का यह पवित्र मंच राजनीतिक हंगामों की भेंट चढ़ेगा या विचार-विमर्श की संस्कृति लौटेगी? पढ़िए विस्तृत विश्लेषण।
🌧️ मानसून सत्र की शुरुआत: उम्मीद या आशंका?
संसद का मानसून सत्र एक बार फिर दस्तक दे चुका है। यह सत्र 21 अगस्त तक चलेगा, जिसमें 21 बैठकें प्रस्तावित हैं। सरकार ने 17 विधेयक पेश करने की योजना बनाई है, जिनमें से कोई भी सतही तौर पर विवादास्पद नहीं लगता। लेकिन क्या इसका यह अर्थ है कि सत्र विवाद रहित और शांतिपूर्ण बीतेगा?
यह सवाल अब महज़ शंका नहीं, बल्कि एक अनिवार्य शंका बन गया है—वो भी ऐसे समय में जब लोकतंत्र की शिराओं में संवाद की जगह शोरगुल और विमर्श की जगह व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप हावी हो चुके हैं।
🗣️ क्या यह लोकतंत्र की सही परिभाषा है?
संविधान हमें विरोध का अधिकार देता है, यह निर्विवाद सत्य है। लेकिन जब विरोध का स्वर संसद की गरिमा को गिराने लगे, तब वह अधिकार से अधिक अव्यवस्था बन जाता है। बीते वर्षों में हम देख चुके हैं कि विपक्ष ने कई बार संसद की कार्यवाही को पूरी तरह बाधित किया, कभी पोस्टरबाजी के माध्यम से तो कभी मेजों पर चढ़कर नारे लगाते हुए।
हैरानी की बात यह है कि यही विपक्ष अपने आचरण को वैध ठहराने के लिए दिवंगत नेताओं अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के पुराने बयानों का हवाला देता है। ये दोनों नेता जब प्रतिपक्ष में थे, तब संसद में विरोध की आवाज़ बुलंद किया करते थे, लेकिन विरोध और व्यवधान के बीच के फर्क को भूल जाना संसदीय परंपरा को ध्वस्त करता है।
⚖️ सत्ता और विपक्ष: जिम्मेदारी साझा होनी चाहिए
संसद सिर्फ सरकार की नहीं, पूरे लोकतंत्र की संस्था है। इसे सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी दोनों पक्षों—सत्ता और विपक्ष—पर समान रूप से है। यह धारणा कि सत्ता पक्ष संसद चलाता है और विपक्ष उसका विरोध करता है, अधूरी है। विपक्ष का कर्तव्य है कि वह मुद्दों पर सरकार को घेरें, लेकिन उसमें तथ्य, तर्क और तहजीब शामिल हो।
🔥 ‘ऑपरेशन सिंदूर’ और विपक्ष का रोष
इस बार विपक्ष जिन मुद्दों को लेकर संसद में हंगामे के मूड में है, उनमें सबसे अहम है—‘ऑपरेशन सिंदूर’। यह न केवल जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए नरसंहार से जुड़ा है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा, खुफिया तंत्र की नाकामी, पाकिस्तान के साथ 90 घंटे का ‘युद्धनुमा संघर्ष’, और अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के बयान जैसे कई स्तरों पर विस्तृत है।
इस विषय में प्रधानमंत्री मोदी की अनुपस्थिति को लेकर भी विपक्ष असंतुष्ट है। हालांकि किरेन रिजिजू ने स्पष्ट किया है कि सरकार सभी विषयों पर चर्चा के लिए तैयार है, लेकिन प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में संसद में संवाद अधूरा ही माना जाएगा। जब राष्ट्र की सुरक्षा का प्रश्न हो, तो संसद के प्रति प्रधानमंत्री की जवाबदेही सबसे ऊपर होनी चाहिए।
📉 चुनाव आयोग पर सवाल: वैधता का संकट
विपक्ष के सवाल केवल सुरक्षा तक सीमित नहीं हैं। बिहार में चल रहा ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ अभियान भी विवादों में है। आशंका यह है कि लाखों नागरिकों को मतदाता सूची से बाहर किया जा सकता है। यह संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल है।
एक बड़ा सवाल यह भी है—सरकार जब आधार कार्ड, मनरेगा कार्ड जैसे दस्तावेजों के आधार पर 44 लाख करोड़ रुपए तक लोगों को लाभ पहुंचा सकती है, तो चुनाव आयोग उन्हें मतदाता पहचान का वैध आधार क्यों नहीं मानता?
यह स्थिति न केवल संवैधानिक संस्थाओं के बीच टकराव की है, बल्कि आम नागरिक के अधिकारों के अपहरण की भी है।
📚 संसदीय परंपरा का क्षरण
यह चिंताजनक तथ्य है कि पहली लोकसभा में संसद 135 दिन चली थी, लेकिन अब संसद के सालाना कामकाज के दिन सिकुड़ कर 55 दिन रह गए हैं। क्या यह हमारे लोकतंत्र के सक्रिय और जीवंत स्वरूप को कमजोर कर रहा है?
जब संसद कम दिन चलेगी, तो विधायिका की भूमिका भी सीमित होती जाएगी। ऐसे में हंगामा, नारेबाजी और व्यक्तिगत छींटाकशी जैसे व्यवहार संसद की प्रासंगिकता को ही खंडित करते हैं।
🧠 विचार का संकट या इच्छाशक्ति की कमी?
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, लेकिन क्या यह सबसे परिपक्व भी है? संसद के हर सत्र में उम्मीद की जाती है कि मुद्दों पर स्वस्थ बहस हो, न कि राजनीतिक नौटंकी। लेकिन विडंबना यह है कि लोकतांत्रिक विमर्श अब सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए केवल राजनीतिक मंचन का हिस्सा बन चुका है।
जहां सत्ता पक्ष बहुमत के अहंकार में संवाद से बचता है, वहीं विपक्ष संसद को आंदोलन का मंच समझ बैठता है। यह स्थिति लोकतंत्र को खोखला कर रही है।
🛕 लोकतंत्र का मंदिर: संसद की गरिमा बचाइए
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संसद केवल कानून बनाने की जगह नहीं, बल्कि राष्ट्र की चेतना का केंद्र है। यहां होने वाला हर संवाद आने वाली पीढ़ियों की दिशा तय करता है।
यदि संसद में नारे लगेंगे, नियमों की किताबें फाड़ी जाएंगी, मेजों पर चढ़कर नृत्य की मुद्राएं बनाई जाएंगी—तो यह लोकतंत्र नहीं, बल्कि राजनीतिक तमाशा बन जाएगा।
उम्मीद बाकी है… यदि राजनीतिक इच्छाशक्ति हो
संसद का मानसून सत्र एक अवसर है—एक नई शुरुआत का। सरकार यदि अपनी पारदर्शिता और उत्तरदायित्व का परिचय दे, और विपक्ष अपने विरोध को मर्यादा और तर्क की सीमा में रखे, तो यह सत्र वास्तव में लोकतंत्र की आवाज़ बन सकता है।
वक्त आ गया है कि सत्ता और विपक्ष दोनों आत्ममंथन करें—क्या वे उस लोकतांत्रिक परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं, जिसकी नींव संविधान सभा ने रखी थी?
क्योंकि अंततः संसद जनता की आवाज़ है—और आवाज़ तब तक पवित्र रहती है, जब तक उसमें गरिमा, मर्यादा और विवेक का समावेश है।