बलरामपुर में ‘जी राम जी’ (मनरेगा) : वर्ष 2025 का सांख्यिकीय आईना और व्यवस्था की खामोश दरारें



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✍️ दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट

तराई अंचल के उत्तर प्रदेश स्थित बलरामपुर ज़िले के लिए वर्ष 2025 मनरेगा—अब ‘जी राम जी’—का ऐसा साल रहा, जिसे न पूरी तरह उपलब्धि कहा जा सकता है और न ही पूरी तरह विफलता।
यह वर्ष भी काग़ज़ों, MIS रिपोर्टों और समीक्षा बैठकों में “संतुलित प्रगति” के रूप में दर्ज हुआ, लेकिन ज़मीन पर यह संतुलन कहीं-कहीं असहज और कहीं-कहीं संदिग्ध दिखाई देता है।

सरकारी आँकड़ों के अनुसार वर्ष 2025 में बलरामपुर ज़िले को मनरेगा के अंतर्गत लगभग 58–62 करोड़ रुपये की कुल धनराशि उपलब्ध कराई गई, जिसमें से 49–52 करोड़ रुपये का व्यय दर्ज किया गया।
यह आँकड़ा इस तथ्य की पुष्टि करता है कि योजना सक्रिय रही, बंद नहीं हुई और प्रशासनिक रूप से गतिमान रही।
लेकिन यही आँकड़े जब श्रम, मजदूरी, मानव दिवस और शिकायतों के साथ जोड़े जाते हैं, तो एक ऐसी तस्वीर उभरती है जिसमें योजना तो चल रही है, पर उस पर भरोसा पूरी तरह खड़ा नहीं हो पा रहा।

मानव दिवस: लक्ष्य पूरे, विश्वसनीयता अधूरी

वर्ष 2025 में बलरामपुर ज़िले में मनरेगा के तहत लगभग 24–26 लाख मानव दिवस सृजित दिखाए गए।
प्रशासनिक भाषा में यह संख्या “उत्कृष्ट प्रदर्शन” की श्रेणी में रखी गई, क्योंकि यह पिछले दो वर्षों की तुलना में अधिक थी और ज़िले की आबादी के अनुपात में संतोषजनक मानी गई।

लेकिन जब इस संख्या को ब्लॉक-स्तर पर विभाजित किया गया, तो तस्वीर एकसार नहीं रही।
उतरौला, तुलसीपुर और गैंसड़ी जैसे बड़े और श्रमप्रधान ब्लॉकों में मानव दिवस अपेक्षाकृत अधिक दर्ज हुए, जबकि कुछ सीमावर्ती और आदिवासी-बहुल ग्राम पंचायतों में काम की उपलब्धता सीमित रही।

यहीं से पहला बुनियादी सवाल जन्म लेता है— क्या मानव दिवस की यह बढ़ी हुई संख्या वास्तविक श्रम की देन है, या यह लक्ष्य-पूर्ति और बजट खपत का गणित भर है?

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उतरौला ब्लॉक का वह प्रकरण, जिसमें एक जल संरक्षण कार्य में 380 वास्तविक मानव दिवस के मुकाबले 900 से अधिक मानव दिवस दर्ज पाए गए, पूरे ज़िले के मानव दिवस आँकड़ों को संदेह के दायरे में ले आता है।
यदि एक ही कार्य में दो गुना से अधिक मानव दिवस काग़ज़ों में पैदा हो सकते हैं, तो 25 लाख मानव दिवस की कुल संख्या पर सवाल उठना स्वाभाविक है।

कार्यों की संख्या: बहुतायत काग़ज़ों में, बिखराव ज़मीन पर

2025 में बलरामपुर ज़िले में मनरेगा के अंतर्गत लगभग 11,000 से अधिक कार्य स्वीकृत दिखाए गए।
इनमें से 7,800–8,200 कार्यों को ‘पूर्ण’ अथवा ‘लगभग पूर्ण’ की श्रेणी में दर्शाया गया, जबकि शेष कार्य प्रगति पर या अधूरे रहे।

काग़ज़ों में यह संख्या प्रशासनिक दक्षता का संकेत देती है।
लेकिन जब इन्हीं कार्यों की भौतिक स्थिति, मापन पुस्तिका और गुणवत्ता रिपोर्टों की समीक्षा की गई, तो ज़िला स्तर की बैठकों में यह स्वीकार किया गया कि कम से कम 14–17 प्रतिशत कार्यों में माप, सामग्री या गुणवत्ता को लेकर आपत्तियाँ दर्ज हुईं।

दूसरे शब्दों में, 2025 में बलरामपुर का लगभग हर छठा या सातवाँ मनरेगा कार्य ऐसा था, जिसकी गुणवत्ता पर सवाल खड़े हुए।
यह स्थिति यह स्पष्ट करती है कि समस्या कार्य स्वीकृति की नहीं, बल्कि निगरानी और सत्यापन की गंभीरता की है।

मजदूरी भुगतान: प्रक्रिया पूरी, समय अधूरा

वर्ष 2025 में बलरामपुर ज़िले में मनरेगा के तहत लगभग 34–36 करोड़ रुपये मजदूरी भुगतान के रूप में दिखाए गए।
MIS डेटा के अनुसार अधिकांश मामलों में FTO जनरेशन हुई और भुगतान “प्रोसेस” की स्थिति में दर्ज रहे।

लेकिन ज़मीनी स्तर पर मजदूरों से हुई बातचीत और शिकायत पंजिकाओं से यह सामने आया कि लगभग 10–12 प्रतिशत मजदूरों को भुगतान 30 दिन से अधिक की देरी से प्राप्त हुआ।
कुछ मामलों में यह देरी 45–60 दिन तक भी पहुँची।

यह तथ्य इसलिए गंभीर है क्योंकि मनरेगा अधिनियम मजदूरी भुगतान को 15 दिनों के भीतर अनिवार्य करता है।
इस दृष्टि से देखा जाए तो 2025 में बलरामपुर ज़िले की भुगतान व्यवस्था कानूनी कसौटी पर पूरी तरह खरी नहीं उतरती।

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शिकायतें और अनियमितताएँ: संख्या सीमित, असर गहरा

2025 में बलरामपुर ज़िले में मनरेगा से संबंधित लगभग 85–95 औपचारिक शिकायतें दर्ज हुईं।
इनमें— करीब 40 प्रतिशत शिकायतें फर्जी मस्टर रोल और गलत मानव दिवस दर्ज होने से जुड़ी थीं,
लगभग 22 प्रतिशत शिकायतें जॉब कार्ड और उपस्थिति गड़बड़ी से,
जबकि शेष भुगतान देरी और कार्य गुणवत्ता से संबंधित थीं।

जांच के बाद 30–35 मामलों में अनियमितताओं की पुष्टि हुई।
लेकिन कार्रवाई की तस्वीर अपेक्षाकृत कमज़ोर रही— निलंबन की कार्रवाई केवल 6–7 मामलों में,
रिकवरी आदेश 12–14 मामलों में,
और एफआईआर की संख्या नगण्य या लगभग शून्य रही।
यही वह बिंदु है जहाँ 2025 की पूरी प्रशासनिक गंभीरता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है।

मृतक के नाम भुगतान: उतरौला ब्लॉक से उठा एक मामला, कई सवाल

2025 की जिला-स्तरीय समीक्षा के दौरान उतरौला ब्लॉक की एक ग्राम पंचायत से यह तथ्य सामने आया कि एक ऐसे जॉब कार्ड पर मजदूरी भुगतान दर्ज है,
जिसके धारक की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी।

यह मामला औपचारिक रूप से शिकायत रजिस्टर और आंतरिक समीक्षा दस्तावेज़ों में दर्ज हुआ।
हालाँकि इस प्रकरण में संबंधित ग्राम पंचायत या व्यक्ति का नाम सार्वजनिक प्रेस नोट या एफआईआर में नहीं लाया गया।
मामले को प्रशासनिक सुधार और भुगतान निरस्तीकरण के स्तर पर निपटाया गया।

संख्या में यह मामला भले ही एक रहा हो,
लेकिन इसका प्रतीकात्मक महत्व कहीं अधिक है।
यदि 8,000 से अधिक कार्यों और 25 लाख मानव दिवस के बीच एक मृत व्यक्ति भी मजदूर बना रह सकता है,
तो यह स्पष्ट करता है कि सत्यापन प्रणाली केवल औपचारिक बनकर रह गई है।

2025 की आलोचनात्मक समीक्षा: आँकड़े क्या बताते हैं?

बलरामपुर के 2025 के आँकड़े यह नहीं कहते कि मनरेगा ज़िले में विफल हो गई।
लेकिन वे यह भी नहीं कहते कि व्यवस्था पूरी तरह ईमानदार रही।

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आँकड़े यह बताते हैं— धन उपलब्ध है, पर निगरानी कमजोर है,
काम हो रहा है, पर मापन संदिग्ध है,
भुगतान किया जा रहा है, पर समयसीमा टूटी है,
शिकायतें सीमित हैं, पर पुष्टि-योग्य हैं,
और कार्रवाई संख्या के अनुपात में नहीं है।

अंतिम कसक: जो 2025 को एक साल नहीं, एक चेतावनी बना दे

2025 में बलरामपुर में ‘जी राम जी’ के आँकड़े यह साबित नहीं कर पाते कि व्यवस्था ईमानदार रही,
और यही सबसे चिंताजनक स्थिति है।
क्योंकि विफलता पर सुधार होता है,
लेकिन ऐसी “आंशिक सफलता” पर केवल आँकड़े सजते हैं।

जब उतरौला ब्लॉक में मृतक मजदूर का मामला प्रशासनिक फ़ाइलों में सिमट जाए, जब मानव दिवस काग़ज़ों में दोगुने हो सकें,और जब असली मजदूर का पसीना भुगतान की देरी में सूख जाएत तो समस्या योजना की नहीं, शासन की नैतिकता की बन जाती है।

2025 का बलरामपुर हमें यह नहीं सिखाता कि मनरेगा को बचाया जाए या बदला जाए;
वह हमें यह सिखाता है कि अब योजनाओं से पहले व्यवस्थाओं की जवाबदेही तय करना अनिवार्य है।
क्योंकि यदि रोज़गार की गारंटी भी भरोसे की गारंटी न बन सके,
तो राज्य और नागरिक के बीच का अनुबंध केवल काग़ज़ बनकर रह जाता है—
और इतिहास गवाही देता है कि ऐसे काग़ज़ सबसे पहले बिखरते हैं।

📌 महत्वपूर्ण सवाल–जवाब

❓ 1. क्या 2025 में बलरामपुर में मनरेगा पूरी तरह विफल रही?
➤ नहीं, योजना चली लेकिन उसकी विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्न खड़े हुए।

❓ 2. सबसे गंभीर अनियमितता कौन-सी रही?
➤ मृतक के नाम मजदूरी भुगतान और फर्जी मानव दिवस दर्ज होना।

❓ 3. मजदूरी भुगतान में देरी कितनी रही?
➤ लगभग 10–12% मजदूरों को 30 से 60 दिन तक इंतजार करना पड़ा।

❓ 4. शिकायतों पर कार्रवाई क्यों कमजोर रही?
➤ अधिकतर मामलों को प्रशासनिक सुधार तक सीमित रखा गया, आपराधिक कार्रवाई नहीं हुई।

❓ 5. 2025 का सबसे बड़ा सबक क्या है?
➤ योजनाओं से अधिक ज़रूरी है जवाबदेह और पारदर्शी व्यवस्था।

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