–अनिल अनूप
वह हर रोज़ दरवाज़े पर खड़ी रहती है—पीली पड़ चुकी साड़ी में लिपटी, आँखों में थकावट और चेहरे पर बुझी हुई मुस्कान लिए।
नाम है सोना बाई, उम्र शायद चालीस के पार, मगर समय ने उसके चेहरे की झुर्रियों में कोई जन्मतिथि नहीं छोड़ी।
एक समय था जब उसे भी सपनों का रंग पसंद था, जब वह लोरी सुनती थी—not ग्राहक की दरकार में, बल्कि मां की गोद में।
बिहार के किसी बाढ़ग्रस्त गाँव से आई थी, माँ-बाप की मौत के बाद रिश्तेदारों ने ‘सहर’ भेजा था नौकरी के लिए।
उसने पूछा नहीं था कि “काम क्या है?” बस ट्रेन में बैठा दी गई थी।
दिल्ली के जीबी रोड पर जिस दिन पहली बार ‘खरीदी’ गई, उसे लगा—यह बस एक रात की बात है।
मगर वह रात दो दशक से लंबी हो चुकी है।
“हमारा क्या है? किसी दिन मरेंगे, तो कूड़ेवाले उठाकर ले जाएंगे… शायद।”
उसकी आवाज़ में कोई शिकायत नहीं थी—बस वह चुप थी, और यही उसकी सबसे बड़ी चीख थी।
वेश्यावृत्ति की ऐतिहासिक जड़ें और सामाजिक स्वीकृति
प्राचीन भारत की इतिहासगाथा में वेश्याएँ कभी कला की प्रतीक थीं।
चाणक्य ने राज्य की समृद्धि में नगरवधुओं की भूमिका को स्वीकार किया था।
देवदासी प्रथा ने स्त्री को मंदिरों से जोड़कर उसकी आत्मा को धर्म से और शरीर को पुरुष की भूख से बाँध दिया।
मगर जब समाज ने नैतिकता का मुखौटा ओढ़ा, तब इन स्त्रियों को मंच से कोठे पर उतार फेंका।
जो कल तक ‘राजदरबार की शोभा’ थीं, वे अब ‘समाज का कलंक’ बन गईं।
इतिहास हमें बताता है कि हम जब स्त्री को स्वतंत्र नहीं समझते, तो या तो उसे पूजते हैं या बेचते हैं।
आधुनिक भारत में देह व्यापार—विकास के नाम पर विस्थापन की देन
आज की ‘सोना बाई’ कोई एक चेहरा नहीं, यह उन लाखों चेहरों का प्रतिनिधित्व है जो गाँव से शहर आए, और शहर ने उन्हें एक कोठे पर छोड़ दिया।
नक्सल प्रभावित इलाके, बाढ़ग्रस्त गांव, आदिवासी वनांचल—ये सभी देह व्यापार के सप्लाई ज़ोन बन चुके हैं।
महानगरों में जब विकास की मशीनें चलती हैं, तो उनमें सबसे पहले गाँव की औरतें पिसती हैं।
➡ यह व्यापार वहाँ शुरू होता है, जहाँ से उम्मीद खत्म होती है।
वेश्यावृत्ति—मजबूरी या सुनियोजित शोषण तंत्र?
माफिया, तस्कर, दलाल और सड़ चुकी प्रशासनिक व्यवस्था मिलकर एक पूरा ‘इकोसिस्टम’ बनाते हैं।
सोना बाई जैसे हजारों नाम, बिना किसी कागज़ात के, बिना किसी पहचान के—बेचे और खरीदे जाते हैं।
बहला-फुसलाकर लाई गई बच्चियाँ सबसे पहले ‘कौमार्य परीक्षण’ से गुजरती हैं।
ग्राहक पहले रात तय करता है, फिर रेट, और फिर इंसान का अस्तित्व।
यह व्यापार न केवल शरीर का है, बल्कि आत्मा और नागरिकता तक का अपहरण करता है।
कोठों की स्त्रियाँ—देह नहीं, पूरा जीवन बेचती हैं
वेश्यावृत्ति कोई पेशा नहीं, यह एक जीवन की लाश है जो रोज़ खुद को ज़िंदा दिखाने का अभिनय करती है।
उनकी हँसी ग्राहकों के लिए होती है, आँसू सिर्फ तकिए के लिए।
वे माँ बनती हैं, पर बिना नाम के बच्चों की माँ।
वे बीमार होती हैं, मगर अस्पतालों की सूची में नहीं होतीं।
क़ानून की अस्पष्टता और सरकार की चुप्पी
“हम कानूनी तौर पर अपराधी नहीं हैं, मगर अपराध जैसी ज़िंदगी जी रहे हैं।”
सोना बाई की यह पंक्ति कानून की धज्जियाँ उड़ाती है।
भारत में वेश्यावृत्ति गैरकानूनी नहीं है, लेकिन उससे जुड़ी हर चीज़ है—जैसे दलाली, कोठा चलाना, विज्ञापन देना।
इस अधूरे कानून के चलते न तो ये महिलाएँ अपना हक पा सकती हैं, न ही बचाव।
➡ यह मौन अपराध है, जिसमें शोषक को छूट और पीड़िता को चुप्पी मिलती है।
समाज का दोगलापन—रात का ग्राहक, दिन का आलोचक
वेश्यालयों के बाहर खड़ी गाड़ियों की नंबर प्लेटें किसी एक जाति, धर्म या वर्ग की नहीं होतीं—यह सबका पाप है।
समाज रात को उनका खरीदार और दिन में नैतिक पहरेदार बन जाता है।
जो ग्राहक था, वही अदालत में गवाह बन जाता है।
जो दलाल था, वही नेता बनकर पुनर्वास की घोषणा करता है।
➡ समाज की इस दोहरी मानसिकता ने वेश्यावृत्ति को समाप्त नहीं किया, स्थायी बना दिया।
अब क्या करना चाहिए?—संवेदना की नीति और पुनर्वास की राह
अब वक्त आ गया है कि हम सोना बाई जैसी स्त्रियों की बात सिर्फ खबर बनाकर न छोड़ें—बल्कि उन्हें इंसान की तरह समझें।
पुनर्वास नीति: हर राज्य सरकार को स्पष्ट पुनर्वास नीति के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक पहचान देनी चाहिए।
कानूनी संशोधन: या तो इस पेशे को संपूर्ण रूप से वैध बनाएं, या संगठित अपराध की श्रेणी में लाकर सख्त कार्रवाई करें।
मानसिक स्वास्थ्य सहायता: इन महिलाओं को काउंसलिंग, आत्म-सम्मान और सुरक्षा का माहौल मिलना चाहिए।
जनचेतना: स्कूलों, कॉलेजों और मीडिया को लैंगिक समता और मानवाधिकार आधारित सोच को बढ़ावा देना चाहिए।
➡ अगर हमने इस बार भी चुप्पी ओढ़ ली, तो अगली पीढ़ी की ‘सोना बाई’ शायद और गहरी खाई में गिरेगी।
सोना बाई की कहानी एक कोठे की नहीं, पूरे भारत की है।
वह गंदी नहीं है—गंदी है वह व्यवस्था, जिसने उसके सपनों को मिट्टी बना दिया।
अब यह हम पर है—हम उसकी चुप्पी में अपराध देखें, या उसके साहस में बदलाव की मशाल।