पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी ने रॉयल अल्बर्ट हॉल से लेकर बॉलीवुड और अंतरराष्ट्रीय मंचों तक संगीत की आत्मा को पहुंचाया। जानिए उनकी पहली विदेश यात्रा, शिव-हरि की अमर जोड़ी, फिल्म संगीत में योगदान और गुरु-शिष्य परंपरा की प्रेरक यात्रा।
रागिनी दूबे की प्रस्तुति
एक उड़ान जो संगीत को सीमाओं से परे ले गई
जब पंडित हरिप्रसाद चौरसिया पहली बार विदेश यात्रा पर निकले, तो उनके पास पासपोर्ट तक नहीं था। पर उनके पास था संगीत—साधना से उपजा हुआ, आत्मा से स्पंदित और वाद्य के पार भी गूंजता हुआ।
वह यात्रा कोई आम कार्यक्रम नहीं थी, बल्कि भारतीय संगीत की आत्मा को पश्चिमी मंच पर उतारने का ऐतिहासिक क्षण थी। हेमंत कुमार के आमंत्रण पर वे रॉयल अल्बर्ट हॉल, लंदन में एक सांस्कृतिक महोत्सव का हिस्सा बने, जहां दर्शकों की पहली पंक्ति में मौजूद थे बीटल्स के जॉर्ज हैरिसन, टॉम स्कोल्ज़ और बिली प्रेस्टन।
“उस दिन मुझे लगा कि मैंने लंदन में दुनिया जीत ली,” वे कहते हैं। और वास्तव में, वह दिन भारतीय बांसुरी के लिए एक नई सुबह बन गया।
जुगलबंदी से विश्व संगीत का सृजन
उस ऐतिहासिक यात्रा के बाद पंडित चौरसिया ने केवल एकल वादन ही नहीं किया, बल्कि जुगलबंदियों की एक नयी परंपरा रची। सबसे प्रभावशाली साझेदारी रही पंडित शिवकुमार शर्मा के साथ, जिनके संतूर और चौरसिया जी की बांसुरी मिलकर बनती थी—शिव-हरि।
इन दोनों ने जापान से लेकर अमेरिका तक, रूसी मंचों से लेकर यूरोपीय सभागारों तक, भारतीय रागों को एक नए संदर्भ में जीवंत किया। उनके संगीत में न शोर था, न प्रदर्शन—बल्कि था, मौन का गान और सुरों का आत्मीय आलाप।
और जब वे जाकिर हुसैन जैसे तबला वादक के साथ मंच साझा करते, तो श्रोता समय और स्थान भूल जाते। तबला की गति और बांसुरी की शांति एक साथ मिलकर एक नई अनुभूति रचते।
बांसुरी का सिनेमाई विस्तार
जहां मंचों पर चौरसिया जी ने आत्मा को छुआ, वहीं फ़िल्मों में उन्होंने दिलों को। यश चोपड़ा जैसे निर्देशक के साथ शिव-हरि की जोड़ी ने फ़िल्म संगीत में शास्त्रीयता को फिर से स्थापित किया।
‘सिलसिला’, ‘चांदनी’, ‘लम्हे’, और ‘डर’ जैसी फिल्मों में उनके रचे गए सुर किसी पृष्ठभूमि ध्वनि नहीं थे, बल्कि कहानी की आत्मा थे।
‘नीला आसमां सो गया’ में बांसुरी टूटे प्रेम की खामोशी बन जाती है, और ‘चांदनी ओ मेरी चांदनी’ में वो मासूम प्यार का झरना।
बांसुरी, इन फिल्मों में, संवाद से ज़्यादा असर रखती थी—क्योंकि उसमें शब्दों से परे भाव होते थे।
गुरु-शिष्य परंपरा: ज्ञान की सतत धारा
पंडित चौरसिया संगीत को केवल प्रस्तुति नहीं, संस्कार मानते हैं। इसी कारण उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा गुरु-शिष्य परंपरा को समर्पित किया।
उनके मुंबई स्थित “Vrindaban Gurukul” और भुवनेश्वर में स्थापित “Vrindaban Gurukul East” आज भी भारतीय शास्त्रीय संगीत के लिए तीर्थ बन चुके हैं। इन गुरुकुलों में विद्यार्थी केवल राग या ताल नहीं सीखते, वे संगीत को जीना सीखते हैं।
यहाँ दिन की शुरुआत बांसुरी की साधना से होती है और अंत भी सुरों की आत्मीयता से। न कोई घंटी, न क्लास—केवल गुरु की दृष्टि, और शिष्य की तन्मयता।
अंतरराष्ट्रीय छात्र: सुरों की वैश्विक भाषा
इन गुरुकुलों में भारत ही नहीं, बल्कि अमेरिका, फ्रांस, जापान, जर्मनी, कोरिया, कनाडा जैसे देशों से भी विद्यार्थी आते हैं। एक जापानी शिष्या, योको (Yoko), कहती हैं, “मैं बांसुरी सीखने भारत आई थी, लेकिन मुझे यहाँ आत्मा का संगीत मिला।”
पंडित जी का यह कार्य एक सांस्कृतिक राजदूत का काम बन गया है—जहां बांसुरी एक शिक्षण उपकरण नहीं, एक जीवन दर्शन बन जाती है।
बांसुरी का ब्रह्मनाद
पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की जीवनयात्रा संगीत की एक अविरल गंगा है—जो बनारस की गलियों से निकलकर रॉयल अल्बर्ट हॉल, बॉलीवुड के स्टूडियो और अंततः गुरुकुलों तक पहुंचती है।
उनकी बांसुरी से निकली एक-एक ध्वनि केवल सुर नहीं, एक जीवन दर्शन है।
वह दर्शन जो कहता है: “संगीत केवल सुनने की नहीं, जीने की चीज़ है।”
आज जब भी कोई विदेशी छात्र उनकी शरण में आता है, तो वह केवल बांसुरी नहीं, भारत को सीखता है।