99% नल कनेक्शन का दावा… पर पाठा की प्यास आज भी क्यों नहीं बुझी?





99% नल कनेक्शन का दावा… पर पाठा की प्यास आज भी क्यों नहीं बुझी?

संजय सिंह राणा की खास रिपोर्ट

बुंदेलखंड का पाठा… जंगलों से घिरा, पत्थरों पर बसा, और दशकों तक डकैतों के ख़ौफ़ के नाम से पहचाना जाने वाला यह इलाका
आज एक अलग सवाल पूछ रहा है—डकैत तो बहुत पहले चले गए, पर विकास अब तक यहाँ तक क्यों नहीं आया?
योजनाओं के काग़ज़ चमकते हैं, फ़ाइलों में आँकड़े मुस्कराते हैं, पर पाठा की बस्तियों में अब भी प्यास, पलायन और बदहाली
रोज़ की हक़ीक़त है।

यह फीचर सिर्फ़ एक भूगोल की कहानी नहीं, बल्कि उस प्रशासनिक सोच पर भी तीखा प्रहार है, जो
“योजनाओं की सफल क्रियान्विति” को फ़ाइल में पूरे हुए प्रतिशत से नापती है,
न कि उस स्त्री की आँखों से, जो हर गर्मी में मीलों दूर पानी के लिए चलती है।

1. पाठा: पत्थर, जंगल और भूले-बिसरे नागरिक

चित्रकूट ज़िला उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े ज़िलों में गिना जाता है। बड़ी आबादी ग्रामीण,
बड़ी हिस्सा अनुसूचित जाति और आदिवासी समुदायों का, और रोज़मर्रा की ज़िंदगी खेती, मज़दूरी,
जंगल से मिलने वाले उत्पाद और मौसमी पलायन पर टिकी हुई।

इन्हीं सच्चाइयों के बीच फैला है पाठा क्षेत्र—पथरीली ज़मीन, घने जंगल, बिखरी आबादी
और लंबे समय तक डकैतों का प्रभाव। ददुआ, ठोकिया, बाबली कोल जैसे नाम प्रशासन की नाकामी की
चलती-फिरती मिसाल रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि डकैतों के ख़ात्मे के बाद भी क्या राज्य की
मौजूदगी पाठा के घर-आँगन तक सचमुच पहुँची?

सरकार की नज़र में पाठा अब ‘क़ानून-व्यवस्था की समस्या’ कम और ‘विकास की प्रयोगशाला’ ज़्यादा है,
लेकिन ज़मीनी तस्वीर इसके उलट है। दशकों की उपेक्षा ने यहाँ के लोगों के मन में यह धारणा बैठा दी है कि
“हम आख़िरी पंक्ति में भी नहीं, बल्कि उस पंक्ति के बाहर खड़े लोग हैं।”

2. योजनाओं की लंबी सूची, लेकिन अधूरी कहानी

बीते वर्षों में पाठा और पूरे चित्रकूट के लिए योजनाओं की कोई कमी नहीं रही।
काग़ज़ पर देखें तो तस्वीर बहुत आकर्षक लगती है—

  • जल जीवन मिशन के तहत लगभग हर घर को नल से जल का दावा,
  • प्रधानमंत्री आवास योजना से कच्चे घरों को पक्का करने की कोशिश,
  • शौचालय, बिजली, गैस कनेक्शन तक “सौ प्रतिशत कवरेज” की बात,
  • मनरेगा, आजीविका मिशन और बुंदेलखंड पैकेज के नाम पर हज़ारों करोड़ की योजनाएँ,
  • पर्यटन और सड़क योजनाओं के ज़रिये क्षेत्र को जोड़ने की पहल।

आँकड़ों के स्तर पर तो कहानी यही कहती है कि चित्रकूट जैसे ज़िलों में नल कनेक्शन की कवरेज
99 प्रतिशत से ज़्यादा बता दी गई है। काग़ज़ पर यह उपलब्धि अद्भुत है—जैसे रेगिस्तान में अचानक
नदियाँ उतर आई हों। लेकिन पाठा के गाँवों में जब आप जाते हैं तो यह “नदियाँ” अक्सर काग़ज़ पर
बहती हुई ही दिखती हैं, ज़मीन पर नहीं।

2.1 हर घर नल, पर हर घर जल कहाँ?

जल जीवन मिशन ने पूरे देश की तरह बुंदेलखंड और चित्रकूट में भी “हर घर नल” का सपना बेचा।
पाइपलाइनें बिछीं, टंकी बनी, काग़ज़ी रिपोर्टों में घर-घर नल जुड़ गए।
पाठा के आंकड़ों में भी नल कनेक्शन की संख्या लगभग पूर्णता के आस-पास है।

लेकिन असली सवाल यह है कि—

  • क्या नल से साल के बारहों महीने पानी आता है?
  • क्या दुर्गम बस्तियों तक पाइपलाइन की मरम्मत और निगरानी का कोई पुख़्ता इंतज़ाम है?
  • क्या भूजल रिचार्ज, तालाबों की सफ़ाई, पहाड़ी नालों पर रोक जैसी बुनियादी बातें साथ-साथ चलीं?
इसे भी पढें  एमएसजे स्नातकोत्तर महाविद्यालय भरतपुर में एनएसएस की संभाग स्तरीय एक दिवसीय कार्यशाला आयोजित

सचाई यह है कि गर्मी की शुरुआत होते ही कई गाँवों में नल “सजावट” बनकर रह जाते हैं।
मोटर चलाने के लिए बिजली नहीं, टंकी तक पानी पहुँचाने के लिए पर्याप्त स्रोत नहीं।
नतीजा यह कि “हर घर नल” की तस्वीर, “हर घर बाल्टी लेकर फिर से पुरानी दिशा में चलते क़दम”
में बदल जाती है।

सरकार ने पाइपलाइन पर ज़ोर तो दिया, पर स्रोत-सुरक्षा और जल-संरक्षण पर वही पुरानी अलसाई सोच बनी रही।
तालाब सूखते रहे, बरसाती नालों पर छोटे बाँध और स्टॉपडैम कहीं-कहीं बने, तो उनकी देखरेख का काम
फाइलों से बाहर ही नहीं निकला। ऐसे में 99% नल कनेक्शन का दावा, पाठा के लिए एक
“आकर्षक आँकड़ा” भर है, राहत नहीं।

2.2 सड़कें: हाईवे चमकदार, गांव की पगडंडियाँ बदहाल

चित्रकूट तक पहुँचने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग और धार्मिक-पर्यटन मार्ग काफी हद तक सुधर चुके हैं।
सरकार इन सड़कों को उपलब्धि के रूप में पेश करती है। लेकिन पाठा के भीतर,
जंगलों और पहाड़ियों के बीच बसे टोलों और मजरों तक पहुँचने वाली पगडंडियाँ
अभी भी बरसात में दलदल और गर्मियों में धूल के धुएँ में बदली रहती हैं।

प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना ने कुछ बड़े गाँवों तक पक्की सड़क ज़रूर पहुँचाई है,
लेकिन छोटी बस्तियाँ आज भी “काग़ज़ी संपर्क” और “सही मायने में अलग-थलग”—इन दोनो स्थितियों के बीच फँसी हैं।
एंबुलेंस हो या स्कूल जाने वाला बच्चा, दोनों के लिए यात्रा आज भी परीक्षा जैसी है।

2.3 स्वास्थ्य केंद्र: बिल्डिंग नई, दवाई और डॉक्टर पुराने सवाल

काग़ज़ में पाठा के आसपास के इलाक़ों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHC), सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (CHC)
और उपकेंद्रों की संख्या बढ़ी है। योजनाओं की भाषा में यहाँ
“स्वास्थ्य ढाँचे का विस्तार” हुआ है।
लेकिन भीतर झाँकिए तो तस्वीर उलट दिखती है—

  • डॉक्टरों की भारी कमी,
  • विशेषज्ञों का लगभग न के बराबर होना,
  • दवाओं और जांच सुविधाओं की सीमित उपलब्धता,
  • दूरदराज़ बस्तियों से अस्पताल तक पहुँचने के लिए उपयुक्त वाहन या सड़क का न होना।

आयुष्मान कार्ड, मुख्यमंत्री जन आरोग्य योजना जैसी योजनाएँ तभी मायने रखती हैं जब
अस्पताल तक पहुँचना संभव हो। पाठा की बिखरी आबादी के लिए सबसे बड़ी समस्या
“बीमा कवरेज” नहीं, बल्कि “भौतिक पहुँच” है।
जब गर्भवती महिला को समय पर स्वास्थ्य केंद्र तक लाने के लिए आधी रात को
चार लोग डोली या अस्थायी जुगाड़ पर निर्भर हों, तो फ़ाइलों में दर्ज ‘कवरेज’ एक कठोर मज़ाक लगता है।

2.4 शिक्षा: स्कूल की इमारतें बढ़ीं, सीखने के अवसर नहीं

सरकारी आँकड़े बताते हैं कि ज़िले की साक्षरता दर अब भी राज्य औसत से काफी नीचे है।
पाठा के संदर्भ में शिक्षा की चुनौतियाँ और भी जटिल हैं—

  • कई बस्तियों से प्राइमरी स्कूल 2–3 किलोमीटर दूर,
  • हाईस्कूल तक पहुँचने के लिए पहाड़ी और कच्चे रास्तों पर लंबा सफ़र,
  • लड़कियों की शिक्षा पर सुरक्षा और परिवहन की दोहरी चुनौती,
  • एक ही शिक्षक के भरोसे कई कक्षाओं की पढ़ाई,
  • स्कूल में नामांकन तो है, पर नियमित उपस्थिति और गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई का अभाव।

कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालय, छात्रवृत्तियाँ, मिड-डे मील, साइकिल वितरण—ये सब योजनाएँ
काग़ज़ पर मौजूद हैं, पर उनकी पकड़ पाठा की पहाड़ियों तक बहुत कमज़ोर है।
यहाँ शिक्षा अभी भी किसी अधिकार की तरह नहीं, बल्कि एक संघर्ष की तरह हासिल होती है।

2.5 आजीविका: खेत, जंगल और पलायन का दुष्चक्र

पाठा का किसान कमज़ोर मिट्टी, कम बारिश और अनिश्चित मौसम से जूझता है।
छोटी जोतों पर खेती, महज़ एक फसल, और वह भी अक्सर घाटे का सौदा।
दूसरी तरफ जंगल से मिलने वाले महुआ, तेंदू, लकड़ी, जड़ी-बूटी और शहद जैसे उत्पाद
बिचौलियों के कब्ज़े में हैं—मूल्य वही तय करते हैं, मेहनत कोई और करता है।

इसे भी पढें  ऊ बहिन के बीवी बना लिहें … ; खेसारी लाल यादव और पवन सिंह के बयान से गरमाई भोजपुरी सियासत

मनरेगा, स्वयं सहायता समूह, कृषि विविधीकरण और बुंदेलखंड पैकेज के तहत शुरू की गई
आजीविका योजनाओं का प्रभाव सीमित रहा। कारण स्पष्ट हैं—

  • योजना बनती है ऊपर, गाँव तक आते-आते उसका स्वरूप बदल जाता है,
  • स्थानीय ज़रूरतों के अनुसार काम तय करने में पंचायत की वास्तविक भागीदारी कम,
  • काम का चयन अक्सर काग़ज़ी लक्ष्य के हिसाब से, न कि लंबे समय के सामुदायिक हित के अनुसार,
  • मार्केट से जोड़ने वाली कड़ी कमज़ोर, जिससे उत्पादक लाभ से वंचित रह जाता है।

इसलिए पलायन आज भी पाठा के युवा के लिए मजबूरी नहीं, लगभग “फ़िक्स मॉडल” बन गया है—
कुछ महीने गाँव, बाकी समय शहरों में मज़दूरी। सरकार की नज़र में यह “रोज़गार की गतिशीलता” है,
पर हक़ीक़त में यह स्थानीय विकास की विफलता का सबसे बड़ा प्रमाण है।

3. विकास कितना पहुँचा और कितना रास्ते में खो गया?

अगर कोई अधिकारी सिर्फ़ आँकड़े देखे तो उसे लगेगा कि पाठा क्षेत्र में
“इतिहास बदल देने वाला विकास” हो चुका है—

  • लगभग सौ प्रतिशत नल कनेक्शन,
  • काफ़ी संख्या में पक्के घर,
  • शौचालय और बिजली की सार्वभौमिकता के नज़दीक पहुँची कवरेज,
  • मनरेगा के तहत बने तालाब, मेड़बंदी, कच्चे-पक्के मार्ग,
  • पर्यटन स्थलों के आसपास बेहतर सड़क और सुविधाएँ।

लेकिन वही अधिकारी अगर बिना जत्थे और बिना प्रोटोकॉल के, किसी गर्म दोपहर में
पाठा की किसी बस्ती में जाए तो उसे पता चलेगा कि—

  • कई नलों में हफ़्तों से पानी नहीं आया,
  • कुछ घरों में कनेक्शन सिर्फ़ इसीलिए लिया, ताकि “नाम न कटे”,
  • अस्पताल के नाम पर दूर स्थित इमारत है, पर डॉक्टर और दवाई नहीं,
  • स्कूल हैं, पर पढ़ाई न के बराबर,
  • मनरेगा कार्ड बने, पर साल भर में दस-पंद्रह दिन से ज़्यादा काम नहीं मिला।

यहीं पर विकास की दो दुनिया साफ़ दिखती हैं—एक फ़ाइल की दुनिया,
दूसरी पाठा के आम आदमी की दुनिया
फ़ाइल में विकास “पूरा” हो चुका है, पर आम आदमी के जीवन में वह अभी भी आधा-अधूरा है।

4. पंचायत स्तर पर आज की असली ज़रूरतें

अगर पाठा की कहानी वाक़ई बदलनी है, तो शुरुआत किसी नई योजना के नाम से नहीं,
बल्कि पंचायत स्तर पर स्पष्ट प्राथमिकताएँ तय करने से होगी।
ज़रूरत यह है कि काग़ज़ पर बने मॉडल की जगह ज़मीन पर बसने वाले लोगों की
ज़िंदगी को केंद्र में रखकर सोच शुरू हो।

4.1 पानी: पाइपलाइन से आगे बढ़कर स्रोत तक सोचना होगा

पंचायत स्तर पर सबसे पहले यह समझना होगा कि सिर्फ़ नल कनेक्शन देना समाधान नहीं,
बल्कि दीर्घकालिक जल-सुरक्षा बनाना असली लक्ष्य है। इसके लिए—

  • हर पंचायत का जल बजट तैयार हो—कितनी बारिश, कितना भूजल, कितनी सिंचाई, कितना घरेलू उपयोग,
  • तालाब, कुएँ, चेकडैम, पहाड़ी नालों पर छोटे बाँध जैसी संरचनाओं को प्राथमिकता,
  • हर गाँव में पानी की गुणवत्ता जाँचने के लिए किट और प्रशिक्षित स्थानीय युवा,
  • नल की योजना को तालाब और भूजल रिचार्ज से सीधे जोड़ा जाए।

4.2 स्वास्थ्य: उपकेंद्र को “जीवन केंद्र” बनाना

पंचायत की भूमिका सिर्फ़ भवन उपलब्ध कराने तक सीमित नहीं रहनी चाहिए।
ज़रूरत है कि—

  • प्रति पंचायत या दो पंचायतों पर फंक्शनल हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर हो,
  • ANM की नियमित मौजूदगी, सप्ताह में एक दिन डॉक्टर की विज़िट व्यवस्था,
  • बुनियादी लैब जांच, मातृ-शिशु स्वास्थ्य और पोषण पर लगातार परामर्श,
  • दूर बस्तियों के लिए मोटरसाइकिल या स्थानीय एंबुलेंस मॉडल को संस्थागत दर्जा।
इसे भी पढें  जमीन पर बैठ जिलाधिकारी ने बच्चों संग तोडी रोटी....सबको भा गईं ये अदा

4.3 शिक्षा: भवनों से आगे “सीखने का माहौल”

पंचायतें स्कूल मैनेजमेंट कमेटी के ज़रिए शिक्षा पर सक्रिय भूमिका निभा सकती हैं—

  • कम से कम एक हाईस्कूल तक आसान पहुँच सुनिश्चित करना,
  • दूर बस्तियों के बच्चों के लिए हॉस्टल या आवासीय मॉडल बढ़ाना,
  • शिक्षकों की उपस्थिति पर समुदाय आधारित निगरानी,
  • स्थानीय भाषा, लोककथाओं, जंगल और खेती को सीखने की प्रक्रिया से जोड़ना।

4.4 आजीविका और सामाजिक न्याय: खेत, जंगल और हक़ की इज़्ज़त

पाठा की बड़ी आबादी दलित और आदिवासी समुदायों से आती है।
इन्हें “लाभार्थी” नहीं, “भागीदार” बनाना ही सबसे ज़रूरी है। इसके लिए—

  • वनाधिकार दावों का समयबद्ध निस्तारण,
  • महुआ, तेंदू, शहद, जड़ी-बूटियों की स्थानीय प्रोसेसिंग और बिक्री पर पंचायत की पहल,
  • स्वयं सहायता समूहों और किसान समूहों के माध्यम से सीधे बाज़ार तक पहुँच,
  • मनरेगा को खेत सुधार, जल-संरक्षण और सामुदायिक संपत्तियों से जोड़ना, सिर्फ़ काग़ज़ी कामों से नहीं।

4.5 डिजिटल और प्रशासनिक पहुँच: दूरी कम करने का सबसे तेज़ रास्ता

आधुनिक योजना प्रबंधन के बिना पाठा जैसे क्षेत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही की कल्पना मुश्किल है।
इसलिए हर पंचायत में—

  • फंक्शनल कॉमन सर्विस सेंटर (CSC),
  • पंचायत भवन, स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र पर भरोसेमंद मोबाइल नेटवर्क और इंटरनेट,
  • डिजिटल बोर्ड या सूचना पटल, जहाँ योजनाओं और खर्च का ब्योरा नियमित अपडेट हो,
  • ग्राम सभा की कार्यवाही का सार्वजनिक दस्तावेज़, जिसे कोई भी देख सके।

5. स्थानीय प्रशासन पर तीखा लेकिन तर्कसंगत सवाल

जब इतना सब कुछ काग़ज़ पर हो चुका है, तो पाठा आज भी प्यासा क्यों है?
इसका जवाब सिर्फ़ एक वाक्य में छिपा है—“समस्या पैसों की नहीं, प्राथमिकताओं और संवेदनशीलता की है।”

स्थानीय प्रशासन से यह सवाल पूछना ज़रूरी है कि—

  • क्या योजनाएँ बनाते समय सच में पंचायत और गाँव की आवाज़ सुनी गई?
  • क्या किसी अधिकारी ने बिना प्रोटोकॉल, आम आदमी की तरह पाठा की बस्तियों में रात गुज़ारी?
  • क्या ग्राम सभा को महज़ औपचारिकता से ऊपर उठाकर निर्णय की असली जगह बनाया गया?
  • क्या योजनाओं की सफलता का पैमाना, “कितने प्रतिशत पूरा” से आगे बढ़कर “लोगों की ज़िंदगी में कितना बदलाव” तक पहुँचा?

तीखापन यहीं है—
डकैतों की बंदूकें तो बहुत पहले शांत हो गईं, पर सरकारी तंत्र की उपेक्षा अब भी पाठा के सीने पर
वैसी ही गोलियाँ दाग रही है, जिनका निशान दिखता नहीं पर दर्द पीढ़ियों तक जाता है।

6. निष्कर्ष: परीक्षा में कौन फेल—पाठा या व्यवस्था?

पाठा की कहानी हमें यह समझाती है कि विकास का मतलब सिर्फ़ योजनाओं की घोषणा,
उद्घाटन और काग़ज़ी उपलब्धि नहीं है। विकास की असली परीक्षा वहीं होती है जहाँ सड़क ख़त्म होती है,
नेटवर्क गायब हो जाता है और सरकारी दफ़्तर से सबसे दूर बसे घर का दरवाज़ा शुरू होता है।

आज अगर सरकार कहती है कि “लगभग हर घर में नल है” तो पाठा पूछता है—
“ठीक है, पर हर घर में पानी कब होगा?”
अगर कहा जाता है कि “भारी भरकम पैकेज आया” तो पाठा पूछता है—
“उसमें से हमारे गाँव तक कितना पहुँचा?”

जब तक इन सवालों का ईमानदार जवाब नहीं दिया जाता, तब तक 99% नल कनेक्शन के दावे,
बुंदेलखंड के पाठा में “सूखी नहरों पर लिखे खुशहाली के नारे” जैसे ही लगेंगे।

पाठा को राहत चाहिए, न कि सिर्फ़ रिपोर्ट। उसे जीवित नदियाँ चाहिए,
न कि काग़ज़ पर बहती योजनाएँ। उसे ऐसी पंचायतें चाहिए जो हस्ताक्षर भर न करें,
बल्कि अपने गाँव की नियति लिखें। सवाल इसलिए तीखा है, क्योंकि यह सिर्फ़ पाठा का नहीं,
पूरे लोकतंत्र की विश्वसनीयता का सवाल है।


Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Language »
Scroll to Top