नाम बदला जा रहा है, क्या काम का अधिकार भी बदलेगा?

ग्रामीण रोजगार योजना पर बहस दर्शाती फीचर इमेज, जिसमें महात्मा गांधी, संसद भवन और मनरेगा श्रमिकों के दृश्य के साथ जी-राम-जी विधेयक का प्रतीकात्मक चित्रण।

अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट
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संसद के शीतकालीन सत्र का अंतिम दिन केवल विधायी कार्यवाही का समापन नहीं है, बल्कि यह उस सामाजिक–आर्थिक दिशा का संकेत भी देता है, जिस ओर देश को आगे ले जाने की कोशिश की जा रही है। सरकार का स्पष्ट प्रयास है कि मनरेगा के स्थान पर लाए जा रहे वैकल्पिक विधेयक — ‘विकसित भारत–गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण)’ — को दोनों सदनों से पारित करा लिया जाए, ताकि राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद इसे कानून के रूप में अधिसूचित किया जा सके। इस नए प्रस्ताव को संक्षेप में ‘जी-राम-जी’ कहा जा रहा है, जिसने नाम, नीयत और नीतिगत आशय—तीनों स्तरों पर बहस को जन्म दे दिया है।

पहली नज़र में विवाद केवल नाम को लेकर दिखाई देता है। हिंदी और अंग्रेज़ी शब्दों के मिश्रण से बना यह नाम भाषायी दृष्टि से भी सवालों के घेरे में है और राजनीतिक दृष्टि से भी। आलोचकों का मानना है कि इसे सत्तारूढ़ दल की वैचारिक राजनीति से जोड़कर देखा जा रहा है। लेकिन असल सवाल नाम से कहीं आगे का है। बुनियादी चिंता यह होनी चाहिए कि जिस भारतीय नागरिक को काम का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है, क्या उसे वास्तव में साल में सौ या उससे अधिक दिन का रोजगार मिल रहा है या नहीं।

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भारत में रोजगार गारंटी की अवधारणा कोई नई नहीं है। वर्ष 2005 में यूपीए सरकार के कार्यकाल में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम अस्तित्व में आया। यह केवल एक सरकारी योजना नहीं थी, बल्कि ग्रामीण भारत के लिए सामाजिक सुरक्षा का वादा था। उस समय यह कानून व्यापक संसदीय विमर्श के बाद लाया गया था। भाजपा के वरिष्ठ नेता कल्याण सिंह की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति में इस पर गहन चर्चा हुई थी और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने समिति के अधिकांश सुझावों को स्वीकार भी किया था।

लेकिन कानून बन जाना ही सफलता नहीं थी। असली चुनौती उसके क्रियान्वयन में सामने आई। वर्ष 2006-07 से लेकर 2024-25 तक के आंकड़े बताते हैं कि मनरेगा के तहत औसतन केवल 50.24 दिन का ही रोजगार उपलब्ध कराया जा सका। यानी जिस सौ दिनों के रोजगार का वादा किया गया था, वह कभी पूरी तरह जमीन पर नहीं उतर पाया। यह विफलता किसी एक सरकार तक सीमित नहीं रही, बल्कि इसमें कांग्रेस और भाजपा—दोनों के कार्यकाल शामिल रहे।

वर्ष 2008 में भारत का नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट ने मनरेगा की प्रशासनिक कमजोरियों और भ्रष्टाचार को उजागर किया। रिपोर्ट के अनुसार देश के करीब 70 प्रतिशत ब्लॉकों में मनरेगा अधिकारी ही तैनात नहीं थे और 52 प्रतिशत पंचायतों में सहायक पद रिक्त थे। पश्चिम बंगाल के 19 जिलों में बिना काम कराए भुगतान के मामले सामने आए, जबकि 19 राज्यों में किए गए सर्वेक्षणों में अधिकारियों और ठेकेदारों की मिलीभगत से हुए भ्रष्टाचार की पुष्टि हुई।

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मौजूदा समय में भी स्थिति उत्साहजनक नहीं है। 2024-25 में मनरेगा के तहत 193 करोड़ रुपये के गबन और घोटाले पाए गए। 2025-26 में 23 राज्यों में या तो काम ही नहीं कराया गया या फिर बजटीय खर्च में कटौती कर दी गई। बीते 5 दिसंबर को राज्यसभा में सरकार ने स्वीकार किया कि मनरेगा मद के 9,746 करोड़ रुपये बकाया हैं, जबकि बजट में इसके लिए 80,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। खर्च न होने का सीधा अर्थ यह है कि मजदूरी भी नहीं बंटी, क्योंकि काम उपलब्ध ही नहीं कराया गया।

आज की बहस का एक अहम पहलू यह भी है कि योजना से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का नाम हटाया जा रहा है। विपक्ष का तर्क है कि यह केवल नाम परिवर्तन नहीं, बल्कि एक वैचारिक संदेश है। गौरतलब है कि 2014 से 2025 तक मोदी सरकार ने मनरेगा को उसी नाम से जारी रखा और कोरोना महामारी के दौरान तो इस योजना के लिए 1.11 लाख करोड़ रुपये से अधिक का आवंटन किया गया, जिससे करोड़ों ग्रामीणों को सहारा मिला।

नए प्रस्ताव में खर्च का अनुपात भी बदला गया है। अब केंद्र 60 प्रतिशत और राज्यों को 40 प्रतिशत खर्च वहन करना होगा। पहले से कर्ज के बोझ से दबे राज्यों के लिए यह व्यवस्था चुनौतीपूर्ण मानी जा रही है। सरकार का दावा है कि नए मिशन के तहत साल में 125 दिन का रोजगार मिलेगा, लेकिन साथ ही फसलों की बुआई और कटाई के लगभग 60 दिनों में ‘कामबंदी’ की व्यवस्था भी रखी गई है, जो इस दावे को कमजोर करती है।

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इसी कारण सामाजिक, बौद्धिक और राजनीतिक स्तर पर ‘जी-राम-जी’ को लेकर आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं। कई संगठनों की मांग है कि इस विधेयक को सीधे पारित करने के बजाय संसदीय समिति को भेजा जाए, ताकि इसके हर पहलू पर गंभीर चर्चा हो सके। आखिरकार, सवाल नाम का नहीं, काम का है। यदि नया कानून ग्रामीण भारत को वास्तविक और सम्मानजनक रोजगार देता है, तो उसका स्वागत होना चाहिए, लेकिन यदि इससे काम का अधिकार कमजोर पड़ता है, तो विरोध स्वाभाविक है।

पाठकों के सवाल – जवाब

‘जी-राम-जी’ क्या है?

यह मनरेगा के स्थान पर प्रस्तावित नया ग्रामीण रोजगार और आजीविका मिशन है, जिसे सरकार विकसित भारत के लक्ष्य से जोड़कर पेश कर रही है।

क्या मनरेगा पूरी तरह समाप्त हो जाएगा?

सरकार की मंशा मनरेगा को नए कानून से प्रतिस्थापित करने की है, लेकिन अंतिम स्थिति विधेयक के पारित होने और नियमों पर निर्भर करेगी।

विपक्ष इसका विरोध क्यों कर रहा है?

विपक्ष को आशंका है कि नए कानून से काम का अधिकार कमजोर होगा और राज्यों पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ पड़ेगा।

क्या ग्रामीणों को ज्यादा रोजगार मिलेगा?

सरकार 125 दिन रोजगार का दावा कर रही है, लेकिन कामबंदी और बजटीय सीमाओं के कारण इस पर सवाल उठ रहे हैं।


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