जिस व्यवस्था ने “मीटर रीडर” से हर महीने हिसाब माँगा, उसने उसके “भविष्य” का हिसाब कब रखा?

जे पी सिंह की रिपोर्ट
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उत्तर प्रदेश में बिजली व्यवस्था का ढांचा जितना विशाल है, उतना ही जटिल भी। गांव से लेकर महानगर तक, हर उपभोक्ता का पहला और सबसे सीधा संपर्क जिस कर्मचारी से होता है, वह है मीटर रीडर। बिल सही बने या गलत, उपभोक्ता संतुष्ट रहे या आक्रोशित—इन सबका पहला असर मीटर रीडर पर ही पड़ता है। लेकिन विडंबना यह है कि जिस जिम्मेदारी का भार सबसे ज़मीनी स्तर पर डाला गया है, उसी अनुपात में भविष्य की सुरक्षा, सेवा–शर्तें और सम्मान इन कर्मियों को नहीं मिल पाता।

इस लेख में हमने उत्तर प्रदेश के बिजली विभाग में कार्यरत मीटर रीडरों की विभागीय स्थिति, उन पर डाली गई जिम्मेदारियाँ, भविष्य को लेकर विभागीय प्रावधान, और उनके सामने खड़ी व्यावहारिक–सामाजिक समस्याओं की गहन व्याख्या की है।

मीटर रीडर : व्यवस्था की पहली कड़ी, लेकिन सबसे कमज़ोर कंधा

उत्तर प्रदेश में बिजली वितरण का कार्य मुख्यतः उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (UPPCL) और उससे संबद्ध वितरण कंपनियों के माध्यम से संचालित होता है। उपभोक्ता चाहे ग्रामीण क्षेत्र का हो या शहरी, उसका मासिक बिजली बिल मीटर रीडर द्वारा दर्ज रीडिंग पर ही आधारित होता है।

मीटर रीडर का काम केवल मीटर देखकर अंक नोट करना नहीं है। उसे यह भी सुनिश्चित करना होता है कि मीटर सही है या नहीं, सील टूटी तो नहीं, रीडिंग असामान्य तो नहीं, और कई बार उपभोक्ता को बकाया, कटौती या सुधार की प्रक्रिया भी समझानी होती है। यही कारण है कि मीटर रीडर प्रशासनिक तंत्र और आम जनता के बीच सेतु की भूमिका निभाता है।

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जिम्मेदारियाँ बहुत, अधिकार सीमित

मीटर रीडरों पर विभाग ने समय के साथ जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ाया है। पहले जहां उनका दायरा केवल मीटर रीडिंग तक सीमित था, वहीं अब उन्हें मोबाइल ऐप के माध्यम से रीडिंग अपलोड करनी होती है, गलत बिल बनने की स्थिति में उपभोक्ता का पहला गुस्सा झेलना पड़ता है, कई क्षेत्रों में राजस्व वसूली में सहयोग की अपेक्षा भी की जाती है, और मीटर खराब होने या छेड़छाड़ की रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर है।

इसके बावजूद, अधिकतर मीटर रीडर नियमित सरकारी कर्मचारी नहीं हैं। बड़ी संख्या में ये या तो आउटसोर्सिंग एजेंसियों के माध्यम से रखे गए हैं या ठेका प्रणाली के तहत काम कर रहे हैं।

भविष्य का सवाल: क्या विभाग के पास कोई ठोस प्रावधान है?

यही सबसे बड़ा और सबसे असहज प्रश्न है—मीटर रीडरों का भविष्य क्या है?

विभागीय स्तर पर देखें तो मीटर रीडरों के लिए कोई स्पष्ट, लिखित और भरोसेमंद दीर्घकालिक नीति दिखाई नहीं देती। न तो नियमितीकरण का स्पष्ट रोडमैप, न सेवा–काल के अनुसार पदोन्नति की व्यवस्था, न पेंशन या ग्रेच्युटी जैसी सामाजिक सुरक्षा। बल्कि उल्टा, स्मार्ट मीटर और ऑटोमेशन के बढ़ते प्रयोग के साथ यह आशंका और गहरी होती जा रही है कि आने वाले वर्षों में मीटर रीडर की आवश्यकता ही कम कर दी जाएगी।

यानी जिस कर्मचारी से वर्षों तक विभाग ने काम लिया, वही कर्मचारी तकनीकी बदलाव के नाम पर सबसे पहले हाशिए पर डाल दिए जाने का जोखिम झेल रहा है।

आउटसोर्सिंग की मार और असुरक्षित रोजगार

आउटसोर्सिंग व्यवस्था ने मीटर रीडरों की स्थिति को और अस्थिर बना दिया है। ठेका एजेंसी बदलते ही वेतन भुगतान में देरी, ईपीएफ/ईएसआई जैसी सुविधाओं की अनदेखी, अचानक सेवा समाप्ति और विभागीय अधिकारियों के सामने अपनी बात रखने का अभाव जैसी समस्याएं आम हो जाती हैं।

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मीटर रीडर न तो पूरी तरह सरकारी कर्मचारी माने जाते हैं, न ही निजी क्षेत्र के सुरक्षित कर्मी। वे एक ऐसे “ग्रे ज़ोन” में फंसे हैं, जहां जिम्मेदारी सरकारी है और सुरक्षा निजी एजेंसी के भरोसे।

ज़मीनी सच्चाई: गालियाँ, धमकियाँ और असुरक्षा

मीटर रीडर का काम केवल तकनीकी नहीं, सामाजिक भी है—और यही सबसे कठिन हिस्सा है। गलत बिल, ज्यादा यूनिट, या पिछला बकाया—इन सबका गुस्सा सीधे मीटर रीडर पर उतरता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में कई बार उन्हें घरों में घुसने नहीं दिया जाता, जातिगत या सामाजिक अपमान सहना पड़ता है, और बकाया की वजह से धमकी तक दी जाती है। शहरी इलाकों में भी हालात बहुत अलग नहीं हैं, जहां मीटर रीडर को अक्सर “वसूली एजेंट” की तरह देखा जाता है।

वेतन और सम्मान : दोनों में असंतुलन

ज्यादातर मीटर रीडरों को जो मानदेय मिलता है, वह न तो कार्यभार के अनुरूप है और न ही जोखिम के। महंगाई, ईंधन खर्च, मोबाइल डेटा और निजी साधनों से आने–जाने का खर्च—सब कुछ उनकी जेब से जाता है।

इसके बावजूद, विभागीय बैठकों और नीतिगत चर्चाओं में मीटर रीडर शायद ही कभी केंद्र में होते हैं। वे “लोअर लेवल फील्ड स्टाफ” कहकर फाइलों में समेट दिए जाते हैं।

तकनीक बनाम मानव श्रम : किसकी कीमत कौन चुकाएगा?

स्मार्ट मीटर, रिमोट रीडिंग और डिजिटल बिलिंग—ये सब सुधार के नाम पर लाए जा रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या इन बदलावों में मीटर रीडर के पुनर्वास की योजना है? क्या उन्हें नई तकनीक के लिए प्रशिक्षित कर किसी अन्य भूमिका में समायोजित किया जाएगा?

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अभी तक के संकेत बताते हैं कि तकनीक का लाभ उपभोक्ता और विभाग दोनों लेना चाहते हैं, लेकिन उसका सामाजिक मूल्य मीटर रीडर चुका रहा है।

व्यवस्था जिन पर टिकी है, वही सबसे असुरक्षित क्यों?

उत्तर प्रदेश का बिजली विभाग बिना मीटर रीडरों के सुचारु रूप से नहीं चल सकता—कम से कम वर्तमान ढांचे में तो नहीं। फिर भी, सबसे कम नीति–ध्यान, सबसे कम सुरक्षा और सबसे कम भविष्य–आश्वासन इन्हीं को मिलता है।

यदि विभाग वास्तव में जिम्मेदार और टिकाऊ व्यवस्था चाहता है, तो उसे मीटर रीडरों को केवल “कार्य–संसाधन” नहीं, बल्कि मानव–पूंजी के रूप में देखना होगा। उनके लिए स्पष्ट सेवा–नीति, सामाजिक सुरक्षा, तकनीकी प्रशिक्षण और सम्मानजनक व्यवहार—ये सब कोई अतिरिक्त मांग नहीं, बल्कि न्यूनतम नैतिक दायित्व हैं।

वरना आने वाले वर्षों में यह सवाल और तेज़ होगा—जिस व्यवस्था ने “मीटर रीडर” से हर महीने हिसाब माँगा, उसने उसके “भविष्य” का हिसाब कब रखा?

पाठकों के सवाल

क्या मीटर रीडर सरकारी कर्मचारी होते हैं?

अधिकांश मीटर रीडर आउटसोर्सिंग या ठेका प्रणाली के तहत कार्यरत होते हैं, उन्हें नियमित सरकारी कर्मचारी का दर्जा नहीं मिला है।

क्या उनके लिए नियमितीकरण की कोई नीति है?

वर्तमान में विभाग के पास कोई स्पष्ट और लिखित नियमितीकरण नीति उपलब्ध नहीं है।

स्मार्ट मीटर आने से उनका भविष्य क्या होगा?

स्मार्ट मीटर के विस्तार से मीटर रीडरों की भूमिका सीमित होने की आशंका है, लेकिन पुनर्वास या प्रशिक्षण की ठोस योजना नहीं दिखती।

क्या मीटर रीडरों को सामाजिक सुरक्षा मिलती है?

अधिकांश मामलों में ईपीएफ, ईएसआई और पेंशन जैसी सुविधाएं या तो अधूरी हैं या पूरी तरह अनुपस्थित।

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