
चुन्नीलाल प्रधान की रिपोर्ट,
विश्व नगर दिवस के अवसर पर घोषित यूनेस्को के रचनात्मक शहरों की नवीन सूची में जब लखनऊ का नाम सामने आया,
तो यह केवल किसी एक शहर का सम्मान नहीं था, बल्कि लखनऊ की पाक कला के बहाने पूरे भारत की
रसोई में सिमटी अनगिनत कहानियों की वैश्विक पहचान थी। यूनेस्को ने राजधानी लखनऊ को
‘पाक-कला के सृजनशील शहर’ का दर्जा देकर यह स्वीकार किया कि
लखनऊ की पाक कला सिर्फ पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि इतिहास, संस्कृति, भावनाओं
और सृजनशीलता का जीवंत दस्तावेज है।
नवाबी दौर की गलियों से उठती खुशबू, तवे और दम पर चढ़ते कबाब, सुगंध बिखेरती बिरयानी और नाजुक
जायकों वाली तमाम डिशें इस बात की गवाही देती हैं कि लखनऊ की पाक कला दरअसल एक
जीती-जागती तहज़ीब है। यह दर्जा भारत के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इससे भारतीय खानपान की उस
परंपरा पर अंतरराष्ट्रीय मुहर लग गई है, जो स्वाद के साथ-साथ संवेदना, साझा संस्कृति और सह-अस्तित्व की
भी बात करती है।
लखनऊ की पाक कला : नवाबी तहज़ीब से यूनेस्को रचनात्मक शहर तक
लखनऊ की पाक कला का इतिहास किसी रसोईघर से नहीं, बल्कि दरबारों, कोठियों और चौक की
गलियों से शुरू होता है। नवाबी दौर में जब रसोइया केवल ‘खानसामा’ नहीं, बल्कि कलाकार माना जाता था,
तब से यह शहर स्वाद की प्रयोगशाला रहा है। गलावट के कबाब, टुंडे के कबाब, नाज़ुक कुल्चे,
सुगंध से भरी बिरयानी और शीरमाल जैसी व्यंजन परंपराएं बताती हैं कि
लखनऊ की पाक कला ने स्वाद को शिल्प में बदल दिया।
यही कारण है कि आज जब यूनेस्को ने लखनऊ को पाक-कला के सृजनशील शहर के रूप में मान्यता दी,
तो यह निर्णय अचानक नहीं, बल्कि सदियों से पकती एक धीमी आँच का स्वाभाविक परिणाम लगा।
लखनऊ की पाक कला यह संदेश देती है कि स्वाद केवल मसालों और तकनीक का मेल नहीं,
बल्कि समाज, इतिहास और स्मृतियों का संगम भी होता है। यह वह कला है जो मेज़ पर बैठाए गए अनजान
लोगों को भी अपनापन महसूस करा देती है।
लखनऊ की पाक कला से छोटे शहरों को मिली नई प्रेरणा
यूनेस्को का यह दर्जा केवल लखनऊ की पाक कला की जीत नहीं, बल्कि देश के उन हजारों
कस्बों और छोटे शहरों के लिए प्रेरणा है, जहां हर दिन रसोई में कोई न कोई अनोखा चमत्कार जन्म लेता है
लेकिन उसकी कहानी वहीं की दीवारों के भीतर रह जाती है। आगरा का पेठा, मथुरा के पेड़े, जैसलमेर के
घोटिया लड्डू, रेवाड़ी की बर्फी, बीकानेर का भुजिया और रसगुल्ले, जोधपुर की कचौरी—ये सभी उदाहरण हैं कि
भारत का हर कोना स्वाद की एक अलग दुनिया है।
अगर लखनऊ की पाक कला अपने नवाबी अतीत से निकलकर यूनेस्को के रचनात्मक शहर नेटवर्क
तक पहुँच सकती है, तो छोटे कस्बों की यह जिम्मेदारी भी बनती है कि वे अपने स्थानीय स्वाद को पहचानें,
सहेजें और उसे ब्रांड की तरह दुनिया के सामने रखें। यह केवल प्रतिष्ठा का सवाल नहीं, बल्कि
स्थानीय अर्थव्यवस्था, रोजगार और सांस्कृतिक आत्मविश्वास से भी जुड़ा हुआ मुद्दा है।
स्थानीय स्वाद, वैश्विक पहचान : भारत भर की थालियों में संभावनाएँ
भारत के हर जिले में कोई न कोई ऐसा व्यंजन जरूर है, जो स्थानीय मिट्टी, जलवायु, संस्कृति और श्रम की
सुगंध से बना है। लेकिन दुखद यह है कि अधिकतर स्थानों के स्वाद की कहानी वहीं के लोगों तक सीमित रह जाती है।
लखनऊ की पाक कला ने साबित किया है कि यदि कहानी दिलचस्प ढंग से सुनाई जाए,
गुणवत्ता बनाए रखी जाए और निरंतर नवाचार हो, तो दुनिया तक पहुंचना नामुमकिन नहीं है।
इसी सोच के साथ यदि ‘वन डिस्ट्रिक्ट वन डिश’ जैसे अभियान की शुरुआत हो, जिसमें हर जिले का
प्रतिनिधि व्यंजन चुना जाए, उसका दस्तावेजीकरण किया जाए, उसके पीछे की लोककथाएं, रसोई परंपराएं
और सामाजिक संदर्भ दर्ज किए जाएं, तो लखनऊ की पाक कला की तरह अन्य शहर भी
खाद्य मानचित्र पर चमक सकते हैं। यह प्रक्रिया न केवल स्वाद को पहचान दिलाएगी, बल्कि उस स्वाद के पीछे
काम कर रहे अनगिनत हाथों को भी सम्मान और रोज़गार दे सकेगी।
लखनऊ की पाक कला और आर्थिक अवसरों का नया परिदृश्य
यूनेस्को के रचनात्मक शहर नेटवर्क में शामिल होने के बाद लखनऊ की पाक कला से जुड़ी
संभावनाएं केवल सांस्कृतिक नहीं रहीं, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फूड फेस्टिवल, पाक-आदान प्रदान कार्यक्रम, शेफ एक्सचेंज, प्रशिक्षण कार्यशालाएं
और गैस्ट्रोनॉमी आधारित टूरिज्म जैसी गतिविधियां लखनऊ और भारत दोनों के लिए नई राहें खोल सकती हैं।
स्थानीय रसोइयों, छोटे रेस्तरां, स्ट्रीट फूड विक्रेताओं, गृहिणी उद्यमियों और पारंपरिक मिठाई अथवा
नमकीन बनाने वालों के लिए लखनऊ की पाक कला एक सफल मॉडल के रूप में सामने आई है।
जैसे बीकानेर के भुजिया और रसगुल्ले ने वर्षों की मेहनत के बाद अपना राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय
बाजार बनाया, वैसे ही अन्य शहर भी अपने व्यंजनों को ब्रांड बनाकर ‘मेक इन इंडिया’ का स्वादिष्ट रूप
दुनिया के सामने रख सकते हैं। डिजिटल प्लेटफॉर्म, सोशल मीडिया और फूड ब्लॉगिंग के इस दौर में
कोई भी स्थानीय व्यंजन सही प्रस्तुति के साथ वैश्विक पहचान हासिल कर सकता है।
यूनेस्को रचनात्मक शहर नेटवर्क और लखनऊ की पाक कला
यूनेस्को का रचनात्मक शहर नेटवर्क केवल भोजन तक सीमित नहीं है। इसमें शिल्प, लोक कला, डिजाइन, फिल्म,
साहित्य, संगीत और मीडिया कला जैसे क्षेत्र भी शामिल हैं। इस नेटवर्क में शामिल होना इस बात का
प्रमाण है कि लखनऊ की पाक कला केवल स्वाद नहीं, बल्कि सृजनशीलता की पूरी परंपरा को
आगे बढ़ा रही है। यह मान्यता लखनऊ को अंतरराष्ट्रीय मंचों से जोड़ती है, जहां दुनिया के अलग-अलग देशों
के शहर एक-दूसरे से सीखते और साझा अनुभवों के आधार पर नई राहें खोजते हैं।
भारत के छोटे शहरों और कस्बों के लिए यह संकेत है कि यदि वे अपने स्थानीय कौशल, परंपरा और नवाचार को
संगठित रूप से प्रस्तुत करें, तो वे भी किसी न किसी श्रेणी में रचनात्मक शहर बनने की दिशा में कदम
बढ़ा सकते हैं। लखनऊ की पाक कला इस यात्रा का प्रतीक बनकर सामने आई है, जो जड़ों से
जुड़े रहकर आधुनिकता के साथ संवाद करना सिखाती है।
हिमाचल की धाम, पहाड़ी स्वाद और लखनऊ की पाक कला से मिलती सीख
हिमाचल प्रदेश का जिक्र आते ही मन में बर्फ से ढकी चोटियां, देवदार के जंगल और शांत पहाड़ों के साथ-साथ
वहां की प्रसिद्ध ‘धाम’ भी याद आती है। हर जिले की अपनी अलग धाम—कांगड़ा की थाली, मंडी के खास व्यंजन,
बिलासपुर के धुले माह, कांगड़ा का खट्टा, जोत की बर्फी, ज्वालामुखी के पेड़े, शिमला की दूध जलेबी—ये
सब मिलकर हिमाचल की खाद्य पहचान बनाते हैं। यदि इनके पीछे की कहानियां, रेसिपी और रसोई परंपराएं
व्यवस्थित रूप से सामने लाई जाएं, तो यह क्षेत्र भी पर्यटन और ब्रांडिंग के स्तर पर बहुत आगे जा सकता है।
जिस तरह लखनऊ की पाक कला ने अपनी नवाबी विरासत को आधुनिक पैकेजिंग, बेहतर
मार्केटिंग और सांस्कृतिक आत्मविश्वास के साथ दुनिया के सामने रखा है, उसी तरह हिमाचल के व्यंजनों को भी
बेहतर मार्केटिंग की जरूरत है। स्थानीय प्रशासन, पर्यटन विभाग, होटल उद्योग और युवा उद्यमी मिलकर
फूड फेस्टिवल, थीम-बेस्ड टूर और डिजिटल कैंपेन चलाएं, तो धाम और पहाड़ी व्यंजन भी अंतरराष्ट्रीय
यात्रियों की ‘मस्ट ट्राय’ सूची में शामिल हो सकते हैं।
अंततः, लखनऊ की पाक कला हमें यह सिखाती है कि अपनी जड़ों, अपनी मिट्टी और अपनी थाली
पर विश्वास किए बिना वैश्विक मंच पर लंबे समय तक टिक पाना संभव नहीं। हर रसोई में छिपी कला, हर गली में
बसती कहानी और हर व्यंजन में समाया इतिहास तभी दुनिया तक पहुंचेगा, जब हम उसे पहचानेंगे, सहेजेंगे और गर्व
के साथ प्रस्तुत करेंगे। लखनऊ ने पहला कदम बढ़ा दिया है, अब बारी बाकी शहरों, कस्बों और गांवों की है कि
वे भी अपने स्वाद के जरिए अपना परिचय दुनिया से कराएं।
क्लिक करें और पढ़ें : सवाल-जवाब
यूनेस्को ने लखनऊ को पाक-कला के रचनात्मक शहर के रूप में क्यों चुना?
यूनेस्को ने लखनऊ को इसलिए चुना क्योंकि लखनऊ की पाक कला सदियों पुरानी
नवाबी विरासत, विशिष्ट स्वाद, निरंतर नवाचार और सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता का अद्भुत संगम है।
यहां का खाना केवल व्यंजन नहीं, बल्कि एक पूरी तहज़ीब का जीवंत प्रतीक माना जाता है।
भारत के छोटे शहर लखनऊ की पाक कला से क्या सीख सकते हैं?
छोटे शहर लखनऊ की पाक कला से सीख सकते हैं कि स्थानीय व्यंजनों को केवल परंपरा के
रूप में न देखें, बल्कि उन्हें ब्रांड बनाकर गुणवत्ता, कहानी, मार्केटिंग और डिजिटल माध्यमों के जरिए
दुनिया तक पहुंचाएं। संगठन, दस्तावेजीकरण और निरंतर नवाचार से स्थानीय स्वाद को वैश्विक पहचान दी जा सकती है।
पर्यटन को बढ़ाने में क्षेत्रीय व्यंजनों की क्या भूमिका हो सकती है?
क्षेत्रीय व्यंजन पर्यटन के लिए मजबूत आकर्षण केंद्र बन सकते हैं। फूड फेस्टिवल, थीम आधारित टूर,
होम किचन अनुभव, लोक संगीत और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ मिलकर स्थानीय खानपान पर्यटकों के लिए
अनूठा अनुभव रचता है, जिससे ठहराव, खर्च और रोजगार—तीनों बढ़ते हैं।
हिमाचल की धाम और अन्य पहाड़ी व्यंजनों को कैसे वैश्विक पहचान दी जा सकती है?
हिमाचल की धाम और अन्य पहाड़ी व्यंजनों की रेसिपी, इतिहास और परंपरा का दस्तावेजीकरण कर,
स्थानीय ब्रांडिंग, फूड फेस्टिवल, ऑनलाइन प्रोमोशन और पर्यटन पैकेज के साथ जोड़ा जा सकता है।
यदि स्थानीय उद्यमी और पर्यटन विभाग मिलकर रणनीति बनाएं, तो ये व्यंजन भी अंतरराष्ट्रीय खाद्य मानचित्र पर
दमदार उपस्थिति दर्ज करा सकते हैं।






