दिवाली पर उल्लू-अवैध पक्षी व्यापार : लखनऊ में कुप्रथा और कानून के बीच जंग

लखनऊ के चौक बाजार में पिंजरों में बंद उल्लू और तोते, दिवाली से पहले अवैध पक्षी व्यापार का दृश्य।















चुन्नीलाल प्रधान की रिपोर्ट,

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दीपों की चमक और मिठाइयों की मिठास के बीच हर वर्ष की तरह इस साल भी लखनऊ के बाजारों में एक पुरानी कुप्रथा — उल्लू और अन्य प्रतिबंधित पक्षियों की चोरी-छिपे बिक्री — फिर से तेज हो गई है। धार्मिक अंधविश्वास और तांत्रिक क्रियाओं के नाम पर कुछ लोग इन निर्दोष प्राणियों की खरीद-फरोख्त तथा बलि देने के लिए तैयार रहते हैं, जबकि यह व्यवहार वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत सख्ती से निषिद्ध है।

कहाँ हो रही है बिक्री और कीमतों का पैटर्न

लखनऊ के प्रमुख पक्षी-बाज़ार — चौक, नक्खास और नींबू पार्क — दिवाली की तैयारी के साथ ही पक्षियों की आवाज़ और भीड़ से गुलजार हो जाते हैं। स्थानीय व्यापारियों का कहना है कि सामान्य दिनों में उल्लू की औसत कीमत 3,000–5,000 रुपये होती है, पर त्योहार के समय तंत्र-मंत्रियों और अंधविश्वासी ग्राहकों की मांग के कारण कीमतें 20,000 रुपये से लेकर 1,00,000 रुपये तक पहुँच जाती हैं। इसी तरह तोता, मुनिया, तीतर और बटेर जैसी कई प्रतिबंधित प्रजातियाँ भी अवैध रूप से बेची जा रही हैं।

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कानून, दंड और सरकारी कार्रवाई

वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 उल्लू जैसे संरक्षित प्रजातियों का शिकार, खरीद-फरोख्त और बलि देना अपराध मानता है। क़ानून के उल्लंघन पर न्यूनतम छह महीने की जेल और भारी जुर्माने तक का प्रावधान है। लखनऊ वन मंडल के डीएफओ सितांशु पांडेय के अनुसार, इस पर्व के अवसर पर रेंज के सभी वनकर्मियों को सघन गश्त, रात्रि निगरानी और बाजारों में औचक छापेमारी के निर्देश दिए जा चुके हैं। जिला प्रशासन, पुलिस और स्थानीय एनजीओ भी मिलकर निगरानी अभियान चला रहे हैं।

कठोर छापेमारी और सूचना तंत्र

वन विभाग ने स्थानीय सूचना तंत्र को सुदृढ़ करने तथा नागरिक सूचनाओं पर तुरन्त कार्रवाई के निर्देश दिए हैं। बावजूद इसके, अवैध नेटवर्क और तंत्र-मंत्र के प्रभाव के कारण पकड़े जाने की घटनाएँ सीमित ही रहीं हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि केवल कठोर कार्रवाई पर्याप्त नहीं—सामाजिक स्तर पर शिक्षा और जागरूकता अनिवार्य है।

पारिस्थितिकी और सांस्कृतिक निहितार्थ

पर्यावरणविद् कहते हैं कि उल्लू पारिस्थितिक तंत्र में कीट नियंत्रण के लिए महत्वपूर्ण हैं — ये चूहों और रात के कीटों को नियंत्रित कर फसलों व सार्वजनिक स्वास्थ्य को सुरक्षित रखते हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से भी उल्लू को कभी-कभी शुभ माना जाता रहा है; पर बलि की परंपरा इसे विनाश की ओर धकेल रही है। इसलिए संरक्षण और परंपरा के बीच सामंजस्य जरूरी है।

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ग्रामीण प्रभाव और तांत्रिक प्रभाव

एनजीओ और वन्यजीव प्रेमी संगठनों ने बताया कि ग्रामीण इलाकों में तांत्रिकों का प्रभाव मजबूत होने के कारण लोग आर्थिक लाभ के लालच में इन प्रथाओं में लिप्त हो जाते हैं। इससे न केवल जानवरों का शोषण बढ़ता है, बल्कि स्थानीय पारिस्थितिकी भी प्रभावित होती है।

रोकथाम के उपाय और क्या कर सकते हैं नागरिक

विशेषज्ञ और एनजीओ यह सुझाते हैं: (1) स्कूल-स्तर पर जागरूकता अभियान, (2) त्योहारों के दौरान विशेष पेट्रोलिंग और बाजार मॉनिटरिंग, (3) सोशल मीडिया व लोकल रेडियो पर संदेश, (4) स्थानीय धार्मिक नेताओं और पंचायतों को शामिल कर अंधविश्वास के विरुद्ध सामुदायिक प्रतिबद्धता बनाना। नागरिकों के लिए यह आवश्यक है कि वे अवैध पक्षी-बिक्री की सूचना वन लाइन या नज़दीकी वन कार्यालय को दें।

संदेश: दिवाली धन की नहीं, ज्ञान और करुणा की रोशनी मित्रों — जिन्दा प्राणियों के लिए भी। अवैध पक्षी व्यापार की सूचना देने के लिए स्थानीय वन विभाग और पुलिस से तुरंत संपर्क करें।
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सवाल आपके, जवाब विशेषज्ञों का

1. क्या उल्लू की बिक्री कानूनन अपराध है?

हाँ — उल्लू और कई अन्य पक्षियाँ वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत संरक्षित हैं। शिकार, बिक्री या बलि देने पर न्यूनतम छह महीने की जेल और भारी जुर्माना लग सकता है।

2. अगर मुझे अवैध पक्षी बिक्री दिखे तो क्या करूँ?

तुरन्त स्थानीय वन विभाग को सूचित करें (वन हेल्पलाइन) और पुलिस को भी अवगत कराएँ। संभव हो तो बिना जोखिम उठाए व्यापारी/स्थल की तस्वीर और समय-स्थान रिकॉर्ड कर दें।

3. उल्लू का पारिस्थितिक महत्व क्या है?

उल्लू रात के कीट और चूहों को नियंत्रित करते हैं, जिससे फसलों की सुरक्षा होती है और रोगजनक जीवों का फैलाव कम होता है — इसलिए वे पारिस्थितिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण हैं।

4. वन विभाग क्या कदम उठा रहा है?

वन विभाग ने सघन गश्त, रात्रि निगरानी, बाजारों में औचक छापेमारी और स्थानीय सूचना तंत्र को सक्रिय करने के निर्देश जारी किए हैं। जिला प्रशासन और एनजीओ भी सहयोग कर रहे हैं।

रिपोर्टर: चुन्नीलाल प्रधान

स्रोत: स्थानीय फील्ड रिपोर्टिंग और वन विभाग के आधिकारिक बयानों पर आधारित




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