आज का रावलपिंडी दुनिया के नक़्शे पर मुख्यतः एक सैन्य नगर के रूप में पहचाना जाता है—पाकिस्तान की थलसेना का मुख्यालय, क़रीब ही इस्लामाबाद की सत्ता और रणनीति का केंद्र, और छावनियों, कैंटोनमेंट तथा कड़े सुरक्षा घेरों से घिरा शहर। लेकिन इस सैन्य छवि के पीछे एक ऐसा इतिहास दफ़न है, जो न सिर्फ़ प्राचीन है, बल्कि सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक विविधता से भरपूर भी रहा है। यह वही रावलपिंडी है, जो कभी हिंदू सभ्यता, परंपरा और व्यापारिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का सशक्त केंद्र था—जहाँ मंदिरों की घंटियाँ, धर्मशालाओं की चहल-पहल और मोहल्लों की सांस्कृतिक गूँज शहर की पहचान हुआ करती थी।
आज सवाल केवल इतना नहीं है कि यहाँ हिंदू आबादी कम क्यों हो गई। असल सवाल यह है कि क्या एक पूरे इतिहास को योजनाबद्ध ढंग से हाशिये पर डाल दिया गया? क्या यह सिर्फ़ जनसंख्या का बदलाव है, या फिर सांस्कृतिक स्मृति का क्रमिक सफ़ाया?
रावलपिंडी का प्राचीन सांस्कृतिक परिदृश्य: जब शहर बहुलता में सांस लेता था
इतिहासकारों के अनुसार रावलपिंडी का अस्तित्व कम से कम एक हज़ार वर्षों से भी अधिक पुराना है। यह इलाका प्राचीन व्यापार मार्गों पर स्थित था और उत्तर-पश्चिम भारत के सांस्कृतिक प्रवाह का महत्वपूर्ण पड़ाव माना जाता था। हिंदू व्यापारी, साहूकार, कारीगर और विद्वान यहाँ बसते थे। मंदिर केवल पूजा-स्थल नहीं थे; वे सामाजिक संवाद, शिक्षा और सांस्कृतिक आयोजनों के केंद्र भी हुआ करते थे।
पुराने रावलपिंडी के इलाक़े—डिंगी खोई, पुराना क़िला, जामिया मस्जिद रोड, नेहरू रोड (जिसे अब ग़ज़नी रोड कहा जाता है), सद्दर और रेलवे रोड—हिंदू बहुल मोहल्लों के रूप में जाने जाते थे। यहाँ व्यापारिक प्रतिष्ठान, पाठशालाएँ, धर्मशालाएँ और श्मशान घाट शहर की संरचना का हिस्सा थे। यह सहअस्तित्व का वह दौर था, जब धार्मिक पहचानें टकराव का नहीं, बल्कि सामाजिक विविधता का आधार थीं।
1947 से पहले का जनसांख्यिकीय यथार्थ: आंकड़ों में दबा इतिहास
विभाजन से पहले का रावलपिंडी किसी एक समुदाय का शहर नहीं था। पाकिस्तानी अख़बार द ट्रिब्यून और अन्य ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, 1943 की जनगणना में रावलपिंडी की तस्वीर चौंकाने वाली है—82,178 हिंदू, 47,963 सिख और 22,461 मुस्लिम।
इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि शहर में हिंदू और सिख समुदाय न केवल मौजूद थे, बल्कि बहुसंख्यक भी थे। उस समय रावलपिंडी में 39 मंदिर, 14 गुरुद्वारे, 12 श्मशान घाट और 11 धर्मशालाएँ थीं। ये सिर्फ़ इमारतें नहीं थीं; ये उस सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे का प्रमाण थीं, जिसमें हिंदू समुदाय की गहरी जड़ें थीं।
विभाजन के बाद जब इतिहास ने अचानक करवट ली
1947 का विभाजन रावलपिंडी के लिए केवल राजनीतिक परिवर्तन नहीं था; यह सामाजिक संरचना का विघटन था। साम्प्रदायिक हिंसा, भय, अफ़वाहों और संगठित हमलों ने शहर के हिंदू-सिख समुदाय को पलायन के लिए मजबूर कर दिया।
हिंदू परिवारों को अपने घर, मंदिर, व्यापार—सब कुछ छोड़कर भारत की ओर भागना पड़ा। यह पलायन स्वैच्छिक नहीं था; यह अस्तित्व बचाने की मजबूरी थी।
सिमटती पहचान: आज का रावलपिंडी और हिंदू समुदाय
आज स्थिति यह है कि रावलपिंडी में हिंदू आबादी सिमटकर केवल 5,113 रह गई है। पास की राजधानी इस्लामाबाद में तो हालात और भी गंभीर हैं—वहाँ महज़ 141 हिंदू परिवार बचे हैं।
शहर में अब केवल तीन मंदिर ऐसे हैं जहाँ किसी तरह पूजा होती है—कृष्ण मंदिर (सद्दर), वाल्मीकि मंदिर (ग्रेसी लाइन्स), लाल कुर्ती मंदिर।
मिटती विरासत, बचता सवाल
रावलपिंडी की कहानी केवल एक शहर की कहानी नहीं है; यह दक्षिण एशिया के विभाजन, पहचान और स्मृति की कहानी है। आज सवाल यह नहीं है कि क्या रावलपिंडी में हिंदू विरासत बची है। सवाल यह है कि क्या उसे बचाने की कोई इच्छाशक्ति भी शेष है?






