सामूहिक विवाह या योजनाबद्ध दिखावा?
गरीबी के नाम पर सरकारी योजना की विदाई रहस्य पर बड़ी रिपोर्ट



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🖊️ संजय सिंह राणा की रिपोर्ट

सरकारी योजनाओं का उद्देश्य जब समाज के सबसे कमजोर वर्ग तक राहत पहुंचाना होता है, तब उनसे जुड़ी हर गतिविधि पारदर्शिता, संवेदनशीलता और जवाबदेही की मांग करती है। लेकिन चित्रकूट में आयोजित मुख्यमंत्री सामूहिक विवाह योजना के अंतर्गत हुए भव्य आयोजन ने कई ऐसे सवाल खड़े कर दिए हैं, जिनका जवाब अब तक प्रशासनिक फाइलों और मंचीय भाषणों से बाहर नहीं निकल पाया है। सवाल सिर्फ योजना के क्रियान्वयन का नहीं, बल्कि उस नैतिक जिम्मेदारी का है, जो बेटियों की विदाई, दहेज-उन्मूलन और वास्तविक जरूरतमंदों तक सहायता पहुंचाने से जुड़ी है।

15 दिसंबर 2025 को राष्ट्रीय रामायण मेला परिसर, सीतापुर (चित्रकूट) में समाज कल्याण विभाग द्वारा आयोजित इस सामूहिक विवाह कार्यक्रम में कुल 308 जोड़ों का विवाह कराया गया। मंच पर जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों की मौजूदगी, वैदिक मंत्रोच्चारण, पुष्पवर्षा और सरकारी घोषणाओं के बीच यह आयोजन एक आदर्श सामाजिक पहल की तरह प्रस्तुत किया गया। किंतु कार्यक्रम की चमक-दमक के पीछे जो वास्तविकता उभरकर सामने आई, वह योजना की आत्मा पर ही प्रश्नचिह्न लगाती है।

गरीबी का प्रमाण और दोहरी शादी का सच

स्थानीय लोगों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के अनुसार, बड़ी संख्या में ऐसे जोड़े इस सामूहिक विवाह में शामिल हुए, जिन्होंने खुद को गरीब दर्शाकर सरकारी लाभ प्राप्त किया, लेकिन विवाह के बाद न तो कन्या की विदाई कराई गई और न ही दांपत्य जीवन की शुरुआत सामूहिक मंच से हुई। यही नहीं, कई मामलों में बाद में इन्हीं परिवारों ने अपने घरों में धूमधाम से अलग से विवाह समारोह आयोजित किए, जिनमें लाखों रुपये खर्च हुए और खुलेआम दहेज का लेन-देन भी हुआ।

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यह स्थिति सीधे तौर पर यह सवाल उठाती है कि अगर कोई परिवार अपने घर पर भव्य शादी करने में सक्षम है, तो वह सरकारी योजना के तहत ‘गरीब’ कैसे घोषित हो गया? क्या गरीबी के प्रमाणों की जांच सिर्फ कागजों तक सीमित रह गई है? और क्या योजना का लाभ वास्तव में उन्हीं तक पहुंच रहा है, जिनके लिए यह बनाई गई थी?

सरकारी खर्च और योजना की वास्तविक मंशा

जिलाधिकारी द्वारा मंच से दी गई जानकारी के अनुसार, मुख्यमंत्री सामूहिक विवाह योजना के अंतर्गत प्रति जोड़ा एक लाख रुपये व्यय किए जाते हैं। इसमें 60 हजार रुपये कन्या के खाते में सीधे ट्रांसफर किए जाते हैं, 15 हजार रुपये विवाह आयोजन पर खर्च होते हैं, जबकि शेष 25 हजार रुपये की सामग्री—जैसे चांदी की बिछिया, पायल, घरेलू बर्तन, कपड़े, ट्रॉली बैग, गद्दा, कंबल, वैनिटी किट और अन्य आवश्यक वस्तुएं—प्रदान की जाती हैं।

कागजों पर यह योजना दहेज प्रथा को रोकने, गरीब परिवारों का आर्थिक बोझ कम करने और सामाजिक समानता को बढ़ावा देने का सशक्त माध्यम दिखाई देती है। लेकिन जब विदाई ही नहीं होती, तो यह पूरी व्यवस्था एक औपचारिक रस्म बनकर रह जाती है। सवाल यह भी है कि जब सरकार बेटियों की शादी का पूरा खर्च उठा रही है, तो सामूहिक मंच से विदाई सुनिश्चित क्यों नहीं की जाती?

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निगरानी का अभाव और जिम्मेदारियों से पलायन

सबसे गंभीर पहलू यह है कि इन मामलों में किसी प्रकार की प्रभावी निगरानी व्यवस्था नजर नहीं आती। न तो विवाह के बाद जोड़ों के साथ किसी स्तर पर फॉलो-अप किया जाता है और न ही यह देखा जाता है कि सरकारी सहायता का उपयोग वास्तविक दांपत्य जीवन की स्थापना में हुआ या नहीं। परिणामस्वरूप, कुछ लोग इस योजना को महज एक आर्थिक अवसर के रूप में देखने लगे हैं।

योजना का दुरुपयोग केवल सरकारी धन की बर्बादी नहीं है, बल्कि यह उन वास्तविक गरीब परिवारों के हक पर भी डाका है, जिनके लिए यह सहायता जीवन की सबसे बड़ी जरूरत होती है। जब फर्जी गरीबी के सहारे लाभ लिया जाता है, तो भरोसे की पूरी व्यवस्था कमजोर पड़ जाती है।

भव्य आयोजन, पर अधूरा सामाजिक संदेश

कार्यक्रम में विभिन्न धर्मों के अनुसार विवाह संपन्न कराए गए—हिंदू रीति से 307 जोड़े, मुस्लिम समुदाय से एक जोड़ा और बौद्ध समाज के अनुसार भी विवाह कराया गया। आचार्यों की टीम द्वारा मंत्रोच्चारण, सांस्कृतिक प्रस्तुतियां और जनप्रतिनिधियों की शुभकामनाएं—सब कुछ व्यवस्थित था। लेकिन सामाजिक संदेश तब अधूरा रह गया, जब विदाई जैसी संवेदनशील प्रक्रिया को अनदेखा कर दिया गया।

विदाई केवल एक रस्म नहीं, बल्कि बेटी के नए जीवन की औपचारिक शुरुआत होती है। सामूहिक विवाह का उद्देश्य ही यह है कि समाज एक साथ उस जिम्मेदारी को निभाए, जिससे किसी भी परिवार पर बोझ न पड़े। जब यह प्रक्रिया अधूरी रह जाती है, तो पूरी योजना की विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़े होते हैं।

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अब आगे क्या?

यह आवश्यक है कि प्रशासन और समाज कल्याण विभाग इस योजना की जमीनी समीक्षा करे। पात्रता जांच को सख्त बनाया जाए, विवाह के बाद अनिवार्य फॉलो-अप हो और यह सुनिश्चित किया जाए कि सामूहिक मंच से विवाह करने वाले जोड़ों की विदाई भी वहीं से हो। साथ ही, दहेज लेन-देन पर सख्त निगरानी और कार्रवाई हो, ताकि योजना अपने मूल उद्देश्य से न भटके।

सामूहिक विवाह योजना तभी सफल मानी जाएगी, जब वह दिखावे से निकलकर वास्तविक सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बने। वरना यह खतरा बना रहेगा कि सरकारी मंच पर एक शादी और घर पर दूसरी शादी—दोनों के बीच सच्चाई कहीं दबकर रह जाएगी।

❓ महत्वपूर्ण सवाल-जवाब

सामूहिक विवाह योजना का मुख्य उद्देश्य क्या है?

गरीब परिवारों की बेटियों की शादी का खर्च कम करना और दहेज प्रथा को हतोत्साहित करना।

विदाई न होने से क्या समस्या पैदा होती है?

इससे योजना औपचारिक बन जाती है और वास्तविक दांपत्य जीवन की शुरुआत नहीं हो पाती।

क्या योजना में निगरानी का प्रावधान है?

कागजों पर प्रावधान हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर प्रभावी निगरानी की कमी दिखती है।

समाधान क्या हो सकता है?

सख्त पात्रता जांच, विवाहोपरांत फॉलो-अप और विदाई को अनिवार्य बनाना।

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