
सदानंद इंगिली की रिपोर्ट
महाराष्ट्र का नाम लेते ही कपास की लंबी कतारें, सूत मिलें और कपड़ा उद्योग की हलचल याद आती है। लेकिन बीते दो–तीन सीज़न से यह तस्वीर तेजी से बदल रही है। इस बार भी भयंकर और असामान्य बरसात ने कपास उत्पादक किसानों की कमर तोड़ दी है। विदर्भ से लेकर मराठवाड़ा और गडचिरोली जैसे सुदूरवर्ती जिलों तक, खेतों में खड़ी कपास की फसल पानी के सैलाब में डूब गई, जड़ें सड़ गईं और बचे–खुचे पौधों पर बॉल (कपास की टोपियां) काली पड़कर गिर गईं।
कपास उगाने वाले किसान कहते हैं—“बारिश अब मौसम के हिसाब से नहीं, मन के हिसाब से होती है। जब बरसना चाहिए तब सूखा, और जब फूल–फली लगती है तब बादलों की तोपख़ाना शुरू।”
कपास का गढ़ और बदलता मौसम
महाराष्ट्र भारत के सबसे बड़े कपास उत्पादक राज्यों में न सिर्फ अग्रणी है, बल्कि कपास की बोआई के क्षेत्रफल में पहले नंबर पर है। 2023–24 के सीज़न में देश भर में जहाँ लगभग 124–125 लाख हेक्टेयर में कपास बोई गई, उसमें अकेले महाराष्ट्र की हिस्सेदारी करीब 42.22 लाख हेक्टेयर रही, जो कुल क्षेत्रफल का एक–तिहाई से अधिक है।
उत्पादन के पैमाने पर भी महाराष्ट्र शीर्ष पर है। हाल की रिपोर्टों के मुताबिक राज्य में कपास का उत्पादन 80 से 89 लाख गांठ (बेल) सालाना के बीच झूल रहा है, जो इसे गुजरात जैसे पारंपरिक प्रतिस्पर्धी राज्यों के बराबर खड़ा करता है।
लेकिन आंकड़ों की यह चमक मैदान की हकीकत नहीं बता पाती। क्योंकि इन्हीं वर्षों के दौरान बारिश का पैटर्न जिस तरह बदला है, उसने कपास के पूरे कारोबार को जोखिम के मुहाने पर ला खड़ा किया है।
किसान के नज़रिये से देखें तो—
- कभी जून–जुलाई में मानसून की देरी से आमद होती है,
- फिर बीच में लंबा ब्रेक, खेत सूखने लगते हैं, किसान को दोबारा बुवाई का संकट दिखता है,
- और जैसे ही कपास में फूल और बॉल बनने लगती है, सितंबर–अक्टूबर में भारी से अत्यधिक भारी वर्षा खेतों को तालाब बना देती है।
कपास के लिए सबसे संवेदनशील यही समय होता है। यही वह खिड़की है जिसमें इस बार भी बेमौसम बारिश ने सबसे ज्यादा नुकसान किया है।
आंकड़ों में तबाही: लाखों हेक्टेयर पर पानी की मार
बीते दो साल में महाराष्ट्र के किसानों के लिए भारी बरसात और बाढ़ एक तरह से नई ‘सामान्य स्थिति’ बनते जा रहे हैं। ताज़ा और हालिया सरकारी व मीडिया रिपोर्टें तस्वीर साफ करती हैं –
- केवल एक हालिया बारिश के दौर में राज्य के 17 जिलों में खरीफ फसलों का नुकसान 5.5 लाख हेक्टेयर से अधिक बताया गया है। सबसे ज़्यादा मार सोयाबीन, कपास और मक्का पर पड़ी है।
- अकेले अकोला जिले में तीन दिन की तेज़ बारिश ने लगभग 60,000 हेक्टेयर में बोई गई खरीफ फसलों—जिनमें कपास प्रमुख है—को बुरी तरह प्रभावित किया। कई गांवों में कपास की पूरी–की–पूरी खेतियां दो–दो दिन तक पानी में डूबी रहीं।
- चंद्रपुर ज़िले में हालिया बाढ़ जैसे हालात में लगभग 1,378 हेक्टेयर क्षेत्र में खड़ी फसलें—कपास, सोयाबीन, तूर, उड़द आदि—बरबाद हो गईं।
- इससे पहले, 2024 में पश्चिमी विदर्भ में अत्यधिक वर्षा और बाढ़ ने 2.78 लाख हेक्टेयर ज़मीन पर खड़ी फसलों (जिसमें कपास भी शामिल थी) को प्रभावित किया था, केवल यवतमाल ज़िले में ही 1.70 लाख हेक्टेयर खेतों की फसल चौपट हुई।
राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो हाल की एक आकलन रिपोर्ट बताती है कि 6.8 मिलियन हेक्टेयर (68 लाख हेक्टेयर) से अधिक खरीफ क्षेत्र असामान्य और अतिरिक्त वर्षा से प्रभावित हुआ है, जिसमें महाराष्ट्र की हिस्सेदारी सबसे अहम मानी गई है। कपास, धान, दालें और गन्ने पर इसका सीधा असर दर्ज किया गया है।
इसी पृष्ठभूमि में महाराष्ट्र सरकार को हाल ही में 31,628 करोड़ रुपये का अब तक का सबसे बड़ा राहत पैकेज घोषित करना पड़ा, जो लगभग 68.7 लाख हेक्टेयर में फैले खरीफ फसल नुकसान की भरपाई के लिए है। इस पैकेज के तहत किसानों को फसल के प्रकार के अनुसार प्रति हेक्टेयर 8,500 से 32,500 रुपये तक की सहायता का प्रावधान किया गया है, जबकि फसल बीमा पाने वाले किसानों के लिए यह राशि 35,000–50,000 रुपये प्रति हेक्टेयर तक जा सकती है।
कागज़ पर ये राशि बड़ी दिखती है, लेकिन जब इसे प्रति किसान, प्रति एकड़, बीज, खाद, कीटनाशक, मज़दूरी और बिजली के बिल से भाग देते हैं, तो कई जगह यह केवल लागत का कुछ हिस्सा ही भर पाती है—आमदनी या मुनाफ़ा तो दूर की बात है।
विदर्भ और मराठवाड़ा: कपास का हृदय–प्रदेश, संकट का केंद्र
विदर्भ और मराठवाड़ा दोनों ही क्षेत्र कपास के बड़े केंद्र हैं। विदर्भ के यवतमाल, अकोला, अमरावती, वर्धा, वाशिम और बुलढाणा जैसे ज़िले; तथा मराठवाड़ा के नांदेड़, परभणी, हिंगोली आदि ज़िले इस बार भी सबसे ज़्यादा प्रभावित ज़िलों की सूची में हैं।
कपास किसान के लिए संकट केवल एक सीज़न की बारिश से नहीं बनता, बल्कि लगातार कई वर्षों के ‘रिस्क’ का जोड़ है। एक किसान की ज़मीन पर नज़र डालिए—
- उसने कपास की बोआई की, बीज से लेकर खाद–कीटनाशक और मज़दूरी पर 20–25 हज़ार रुपये प्रति एकड़ तक खर्च कर दिया।
- मौसम ने साथ दिया तो पैदावार 7–8 क्विंटल तक हो सकती थी, जिससे 45–60 हज़ार रुपये प्रति एकड़ की सकल आमदनी की उम्मीद थी (बाज़ार भाव के उतार–चढ़ाव के साथ)।
- लेकिन भयंकर बरसात के एक दौर ने फसल को आधा या उससे भी कम कर दिया, कई जगह तो पूरी फसल ही चौपट हो गई।
ऐसे में किसान के पास दो ही रास्ते बचते हैं—
- या तो वह फिर से कर्ज़ लेकर अगली फसल में किस्मत आज़माए,
- या खेत से पलायन कर मज़दूरी के लिए शहर की राह पकड़े।
गडचिरोली: जंगलों के बीच, कपास के छोटे–छोटे टुकड़ों की बड़ी कहानी
अब बात गडचिरोली की, जो आमतौर पर कपास पर चर्चा में नहीं आता। इस ज़िले को हम अक्सर नक्सल प्रभावित, घने जंगलों और आदिवासी बहुल क्षेत्र के रूप में जानते हैं। लेकिन यही ज़िला पूर्वी विदर्भ के उस हिस्से में आता है जहां किसानों ने पिछले कुछ वर्षों में धीरे–धीरे कपास की ओर रुख़ किया है।
सरकारी कृषि योजनाओं और ज़िला सिंचाई योजना से जुड़े दस्तावेज़ बताते हैं कि गडचिरोली में कपास मुख्यतः सिरोंचा, चामोर्शी और अहेरी तहसीलों में खरीफ के दौरान बोई जाती है, और ज़िले में औसत तौर पर लगभग 1,200–1,300 हेक्टेयर क्षेत्र में कपास की खेती होती है।
पहली नज़र में यह क्षेत्रफल महाराष्ट्र के कुल 40 लाख हेक्टेयर के सामने बहुत छोटा लगता है, लेकिन कहानी केवल क्षेत्रफल की नहीं, कमज़ोर आधारभूत संरचना और दूरदराज़ आबादी की संवेदनशीलता की भी है।
सुदूर गांव: जहां सड़क बाद में, बारिश पहले पहुंचती है
गडचिरोली के कई गांव ऐसे हैं, जहां आज भी पक्की सड़कें सीमित हैं, मोबाइल नेटवर्क टूटता–जुड़ता रहता है और मंडी तक जाने में आधा दिन लग जाता है।
जब भारी बरसात होती है तो –
- नालों और छोटी नदियों में अचानक बाढ़ आ जाती है,
- खेतों की मेड़ें टूट जाती हैं,
- कपास के पौधों की जड़ें पानी में डूबकर सड़ने लगती हैं,
- और सबसे बड़ी बात—क्षति का अनुमान लगाने के लिए जो सरकारी टीम (पंचनामा) आती है, वह सबसे आखिर में इन्हीं गांवों तक पहुंचती है।
किसान बताते हैं कि बारिश के कुछ ही दिनों में फसल की हालत समझ आ जाती है, लेकिन सर्वे टीम का इंतज़ार एक–दो महीने तक भी खिंच जाता है। तब तक बॉल झड़ चुकी होती है, खेत सूखकर दोबारा जोतने लायक हो जाता है, और फोटोग्राफ़ में ‘तबाही’ उतनी साफ़ दिखती भी नहीं।
ऐसे में मुआवज़े की मात्रा कम आंकी जाती है, या कई बार नाम ही सूची में दर्ज नहीं हो पाता।
बारिश, बीमा और बाज़ार – तीन तरफ़ से घिरा किसान
1. बारिश की मार
असामान्य और अत्यधिक वर्षा का सीधा असर पैदावार पर पड़ता है। कपास में—
- फूल झड़ जाने,
- बॉल के सड़ने,
- फंगल रोग (गुड़िया बीमारी, रूट रॉट) बढ़ने,
- और डंठल के कमजोर हो जाने से
उपज आधी से भी कम रह जाती है।
2. फसल बीमा – कागज़ पर सुरक्षा, ज़मीन पर इंतज़ार
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अंतर्गत कई किसान बीमित ज़रूर हैं, लेकिन गडचिरोली सहित दूरदराज़ क्षेत्रों में बीमा दावा बनने से लेकर पैसा खाते में आने तक की प्रक्रिया बेहद धीमी है।
- किसान को आवेदन करने के लिए मोबाइल ऐप, इंटरनेट या बैंक–सह CSC केंद्र पर निर्भर रहना पड़ता है, जो गांव–गांव उपलब्ध नहीं है।
- सर्वे रिपोर्ट में यदि ‘प्रति तहसील औसत नुकसान’ अपेक्षाकृत कम दिखा, तो बीमा का भुगतान भी औसत आंकड़े के आधार पर होता है, जो कई व्यक्तिगत किसानों का वास्तविक नुकसान नहीं पकड़ पाता।
3. बाज़ार की उलझन
मान लीजिए किसी गांव में कपास का एक हिस्सा बच भी गया—
- भीगी, काली पड़ चुकी और देर से तोड़ी गई रूई की क्वालिटी गिर जाती है,
- जीनिंग मिल और व्यापारियों द्वारा कटौती बढ़ जाती है,
- एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर ख़रीद की व्यवस्था समय पर नहीं पहुंचती,
फलस्वरूप किसान को या तो कम दाम पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है, या फिर घर में रखी बालियों पर और फ़फूंदी लग जाने का जोखिम उठाना पड़ता है।
मानसून का नया चेहरा: वैज्ञानिक चेतावनी, ज़मीनी चिंता
वर्तमान मौसम पैटर्न पर काम कर रहे वैज्ञानिक और कृषि–अर्थशास्त्री लगातार संकेत दे रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन की वजह से मानसून की प्रकृति बदल रही है—
- अधिक चरम (extreme) वर्षा की घटनाएं,
- लंबे शुष्क अंतराल और फिर अचानक भारी बरसात,
- तापमान में हल्की–सी बढ़ोतरी,
ये सभी कारक कपास जैसी फसलों के लिए बेहद जोखिमपूर्ण हैं।
कपास पौधे की जीवन–चक्र को समझें तो –
- शुरुआती बुवाई के समय हल्की और नियमित बारिश उपयोगी,
- वेजिटेटिव ग्रोथ के दौरान नियंत्रित नमी ज़रूरी,
- लेकिन फूल–बाल की अवस्था में भारी बरसात सीधी तबाही बन जाती है।
महाराष्ट्र में 2019 के बाद से लगभग हर दूसरे साल अक्टूबर–नवंबर की बेमौसम बारिश ने किसानों को चौंकाया है। 2019 में ही अकेले अक्टूबर के महीने में राज्य की कुल खरीफ फसलों के लगभग 54 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से नुकसान का अनुमान लगाया गया था।
आज स्थिति यह है कि किसान की खेती अब केवल उसके अनुभव पर नहीं, बल्कि मौसम विभाग के अलर्ट, मोबाइल मैसेज और ‘क्या पता कब बादल फट जाएं’ वाली मानसिकता पर निर्भर हो गई है।
गडचिरोली के किसान की मनःस्थिति: “सफेद सोना काली रात बन गया”
सिरोंचा या चामोर्शी के किसी गांव का किसान जब कहता है – “सफेद सोना अब काली रात बन गया है” – तो वह सिर्फ उपमा नहीं, उसकी आर्थिक और मानसिक स्थिति का बयान है।
- बरसों के कर्ज़ का बोझ,
- बच्चों की पढ़ाई का खर्च,
- घर की ज़िम्मेदारी,
- और बढ़ती लागत के बीच हर फसल की असफलता उसे अवसाद और हताशा की तरफ़ धकेलती है।
कई सामाजिक अध्ययन बताते हैं कि फसल नुकसान, कर्ज़ और बाज़ार की अनिश्चितता मिलकर किसानों में मानसिक तनाव, अवसाद और कभी–कभी आत्मघाती प्रवृत्तियों को जन्म देते हैं। कपास पट्टे में आत्महत्या की खबरें नए नहीं हैं, हालांकि गडचिरोली जैसे ज़िलों में अक्सर ये ख़बरें बड़ी सुर्खियों में नहीं आतीं, क्योंकि यहां ध्यान ज़्यादातर सुरक्षा और नक्सल गतिविधियों पर केंद्रित रहता है।
नीतियों की परीक्षा: राहत पैकेज पर्याप्त या सांत्वना?
महाराष्ट्र सरकार द्वारा घोषित 31,628 करोड़ रुपये के राहत पैकेज को अब तक का सबसे बड़ा पैकेज माना जा रहा है। इसके प्रमुख घटक हैं –
- प्राकृतिक आपदा मानदंडों के तहत प्रति हेक्टेयर मुआवज़ा,
- अतिरिक्त राज्य सहायता के ज़रिए अधिकतम सीमा बढ़ाना,
- बीमा योजना के साथ जोड़कर कुल सहायता बढ़ाने की कोशिश,
- मिट्टी सुधार, कुओं की मरम्मत, ग्रामीण सड़कें और संरचनाओं के लिए अलग फंड।
लेकिन ज़मीन पर सवाल वही हैं –
-
कब तक पहुंचेगा पैसा?
अगर पैसा छह–आठ महीने बाद आता है, तो किसान को रबी की बुवाई के समय कामयाबी नहीं मिलती। वह मजबूरी में महाजनों से उधार लेने पर लौट आता है। -
क्या यह राशि लागत–प्लस–नुकसान की भरपाई है या केवल सांत्वना?
ज्यादातर किसान नेताओं और कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि मौजूदा पैटर्न केवल आंशिक राहत देता है, स्थायी समाधान नहीं। -
क्या सुदूरवर्ती इलाकों, विशेषकर गडचिरोली जैसे आदिवासी बहुल जिलों तक लाभ समान गति से पहुंचेगा?
यहां प्रशासनिक क्षमता, स्टाफ की कमी और सुरक्षा संबंधी चुनौतियां अतिरिक्त बाधा बन जाती हैं।
आगे की राह: केवल राहत नहीं, संरचनात्मक बदलाव की ज़रूरत
1. जलवायु–स्मार्ट खेती की ओर कदम
- ऐसी कपास किस्में, जो अत्यधिक नमी और रोग–प्रतिरोधी हों,
- फसल विविधिकरण – कपास के साथ सोयाबीन, दालें या सब्ज़ियों का समन्वित मॉडल,
- सूक्ष्म–सिंचाई, नालों का वैज्ञानिक प्रबंधन और वर्षा–जल संचयन।
2. बीमा और राहत तंत्र को ज़मीनी बनाना
- ग्राम स्तर पर फसल क्षति का त्वरित डिजिटल सर्वे, ड्रोन और सैटेलाइट डेटा की मदद से,
- बीमा भुगतान की समय–सीमा बाध्य (जैसे 60–90 दिन में पैसा खाते में),
- गडचिरोली जैसे सुदूर जिलों में विशेष मोबाइल कैंप और हेल्प–डेस्क।
3. बाज़ार और एमएसपी व्यवस्था को मजबूत करना
- कपास खरीद केंद्रों को खेत–स्तर के नज़दीक विस्तार,
- आदिवासी और छोटे किसानों के लिए एफपीओ (फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइज़ेशन) के ज़रिए सामूहिक सौदेबाज़ी की ताकत,
- गुणवत्ता आधारित लेकिन पारदर्शी मूल्य–निर्धारण ताकि बारिश से थोड़ी गुणवत्ता हानि होने पर भी किसान को पूरा एमएसपी का लाभ मिल सके।
4. गडचिरोली जैसे जिलों के लिए विशेष कृषि–कार्य योजना
- ज़िला–विशेष कृषि योजना जिसमें पथरीली भूमि, अधिक वर्षा, जंगल–घनत्व और नदियों की स्थिति को ध्यान में रखकर फसल–पैटर्न तय हो,
- आदिवासी समुदायों के पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक कृषि विज्ञान का समन्वय,
- सड़क, भंडारण, मंडी और संचार नेटवर्क को प्राथमिकता के साथ बेहतर करना।
निष्कर्ष: बरसात का हिसाब सिर्फ बादलों से नहीं, नीतियों से भी
महाराष्ट्र के कपास उत्पादक क्षेत्रों की आज की तस्वीर यह कहती है कि सिर्फ प्रतिकूल मौसम को दोष देकर हम मुक्त नहीं हो सकते।
जब कपास की फसल डूबती है, तो केवल एक साल की मेहनत नहीं डूबती, उसके साथ किसान का भरोसा, परिवार की उम्मीदें और गांव की अर्थव्यवस्था भी डगमगा जाती है।
विदर्भ, मराठवाड़ा और गडचिरोली जैसे क्षेत्रों में कपास किसानों ने भयंकर बरसात की वजह से जो नुकसान झेला है, वह हमें इस सच्चाई से दो–चार कराता है कि जलवायु परिवर्तन की मार सबसे पहले और सबसे गहरी छोटे किसान ही झेलते हैं।
गडचिरोली के सुदूर गांवों में, जहां सड़क आज भी संघर्ष है, वहां किसान के लिए मौसम का पूर्वानुमान, बीमा का दावा और बाज़ार का उचित दाम—तीनों ही अभी भी दूर के सपने हैं।
अगर नीतियां समय पर, न्यायपूर्ण और क्षेत्र–विशेष की ज़रूरतों के अनुरूप नहीं बदलीं, तो ‘सफेद सोना’ उगाने वाले इन खेतों में अगली पीढ़ी कपास नहीं, बल्कि केवल अपने पुराने किस्से बोती हुई नज़र आएगी—
“यह वही खेत है बेटा, जहां कभी कपास की बर्फ़ सी सफेदी फैली रहती थी… जब बारिश मौसम के हिसाब से होती थी, मनमर्जी से नहीं।”
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