शिक्षा में नवाचार का मूल भाव
और विद्यालय ‘आनंद घर’ कैसे बने?





शिक्षा में नवाचार का मूल भाव क्या है और विद्यालय वास्तव में आनंद घर कैसे बन सकता है?

📰अनिल अनूप

आज के समय में शिक्षा में नवाचार इतना अधिक प्रचलित शब्द बन चुका है कि कभी-कभी उसका असली अर्थ ही धुंधला पड़ जाता है। कोई गतिविधि बच्चों को थोड़ी देर के लिए प्रसन्न कर दे तो उसे नवाचार कहा जाने लगा, कोई शिक्षक मंच से दो प्रेरक वाक्य बोल दे तो उसे नवाचारी घोषित कर दिया जाता है, और कई बार विद्यालय की दीवारों पर रंगीन पेंट कर देने को भी नवाचार का तमगा सौंप दिया जाता है। इन सबके बीच मूल प्रश्न कहीं पीछे छूट जाता है कि शिक्षा में नवाचार का वास्तविक उद्देश्य क्या है और इससे छात्रों को वास्तव में क्या लाभ मिल रहा है।

इसी के समानांतर एक और आकर्षक नारा उभरा है—विद्यालय को “आनंद घर” बनाना। कागज़ पर, योजनाओं की पुस्तिकाओं में और मंचों की भाषण शैली में यह विचार बेहद सुंदर दिखता है कि स्कूल ऐसा स्थान हो जहाँ बच्चे प्रसन्न होकर आएँ, हँसते हुए सीखें और बिना भय के अपनी जिज्ञासा व्यक्त कर सकें। लेकिन व्यावहारिक धरातल पर यह परखना ज़रूरी है कि इस आनंद घर की अवधारणा की आड़ में बच्चों की असली शिक्षा का क्या हाल हो रहा है।

यही कारण है कि आज आवश्यकता है एक ईमानदार और तर्कसंगत विश्लेषण की—कि शिक्षा में नवाचार का मूल भाव क्या होना चाहिए, विद्यालय किस अर्थ में आनंद घर बन सकता है, और इस पूरी प्रक्रिया में छात्रों को कितना वास्तविक लाभ मिला है, जबकि दूसरी ओर इस योजना का नारा लगाने वाले अनेक शिक्षक बड़े-बड़े मंचों पर सम्मानित होने लगे और कुछ तो रातों-रात मशहूरी अर्जित कर बैठे।

नवाचार का मूल भाव: दृश्य नहीं, दृष्टि में परिवर्तन

सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि नवाचार का अर्थ केवल नवीनता नहीं है, बल्कि दृष्टि में परिवर्तन है। शिक्षा के संदर्भ में नवाचार का मूल भाव यह है कि सीखने की प्रक्रिया को इस प्रकार बदला जाए कि छात्र ज्ञान को केवल रटें नहीं, बल्कि समझें, जिएँ और जीवन में उपयोग कर सकें।

नवाचार का सार तीन मुख्य बिंदुओं में समझा जा सकता है:

  • पहला – शिक्षण-पद्धतियों का ऐसा रूपांतरण जो छात्र को निष्क्रिय श्रोता नहीं, सक्रिय प्रतिभागी बनाए। रटने की संस्कृति के स्थान पर खोज-आधारित, प्रश्न-आधारित और संवाद-आधारित शिक्षण को बढ़ावा देना ही नवाचार की बुनियाद है।
  • दूसरा – पुस्तकीय ज्ञान को जीवन-ज्ञान से जोड़ना। बच्चे की पाठ्य-पुस्तक और उसके वास्तविक जीवन के अनुभवों के बीच पुल बनाना आवश्यक है, ताकि शिक्षा अमूर्त न रह जाए, बल्कि उसके जीवन की समस्याओं और सपनों से सीधे जुड़ सके।
  • तीसरा – शिक्षक की भूमिका को केवल ‘बताने वाले’ अध्यापक से बदलकर ‘सहयात्री’ या ‘सुविधाकर्ता’ बनाने की आवश्यकता है। शिक्षक वह हो जो दिशा दिखाए, प्रेरित करे और हर बच्चे की अलग सीखने की गति और प्रकृति को समझकर उसका साथ दे।

दुर्भाग्य से वास्तविक स्थिति यह है कि नवाचार का मूल भाव अक्सर उसके दिखावे में खो गया। किसी विद्यालय में दीवारों पर चित्र बना देना, किसी में गतिविधि का एक दिन मनाना, कहीं बच्चों से नाटक करवाकर फोटो खिंचवा लेना और सोशल मीडिया पर पोस्ट कर देना—यही सब नवाचार कहलाने लगे।

जबकि सच्चाई यह है कि नवाचार का केंद्रीय प्रश्न हमेशा यह होना चाहिए कि बच्चा क्या सीख रहा है, न कि शिक्षक ने क्या दिखा दिया। यदि बदलाव छात्र की सोच, कौशल और व्यवहार में नहीं दिखता, तो वह गतिविधि चाहे जितनी रंगीन क्यों न हो, उसे वास्तविक नवाचार नहीं कहा जा सकता।

विद्यालय ‘आनंद घर’ कैसे बने? – आनंद का अर्थ और उसका भ्रम

अब बात करते हैं विद्यालय को ‘आनंद घर’ बनाने की अवधारणा की। यह विचार अपने आप में अत्यंत सकारात्मक है कि स्कूल ऐसा स्थान हो जहाँ बच्चा दबाव में नहीं, बल्कि उत्साह के साथ आए; जहाँ कक्षा में भय नहीं, जिज्ञासा और संवाद की संस्कृति हो; जहाँ डाँट, अपमान और दंड के बजाय समझ, सहयोग और सम्मान का वातावरण हो।

लेकिन आनंद का अर्थ केवल यह नहीं कि बच्चों को दिन भर खेलते रहने दिया जाए या कभी-कभार मेले-त्योहार जैसी गतिविधियाँ करा दी जाएँ। वास्तव में आनंद का मतलब है कि बच्चा सीखते समय भी सहज, स्वाभाविक और उत्साहित रहे, उसे यह महसूस न हो कि शिक्षा उस पर थोपी जा रही है।

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विद्यालय सचमुच आनंद घर तब बन सकता है जब:

  • बच्चे की व्यक्तिगत गति का सम्मान हो। हर बच्चे की सीखने की गति अलग होती है। वर्तमान व्यवस्था में एक ही पाठ्यक्रम, एक ही गति और एक ही परीक्षा सभी पर लागू कर दी जाती है। तेज बच्चे ऊब जाते हैं और धीमे बच्चे पिछड़ जाते हैं। आनंद के लिए आवश्यक है कि शिक्षक इस भिन्नता को समझें और शिक्षण को उसी अनुसार ढालें।
  • डर नहीं, संवाद की संस्कृति हो। जब छात्र शिक्षक से प्रश्न पूछने में झिझकते नहीं, गलत उत्तर देने पर अपमानित नहीं किए जाते, बल्कि उन्हें प्रयास के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, तभी कक्षा वास्तव में आनंददायक बनती है।
  • विषयों की सीमाएँ थोड़ी नरम हों। विज्ञान, कला, भाषा, गणित, पर्यावरण अध्ययन आदि के बीच थोड़ी लचक हो। प्रयोग, खेल, कहानी, नाटक, संगीत, प्रकृति अवलोकन—all मिलकर सीखने को रोचक बनाते हैं।
  • समावेशिता को प्राथमिकता मिले। केवल तेज, मुखर और आगे आने वाले बच्चों के लिए वातावरण आनंदमय हो और बाकी बच्चे हाशिये पर चले जाएँ—यह सच्चा आनंद घर नहीं हो सकता। वास्तविक आनंद घर वह है जिसमें धीमे, संकोची, आर्थिक-सामाजिक रूप से कमजोर बच्चों को भी समान सम्मान और अवसर मिले।

पर सवाल यही है कि क्या आज के अधिकांश विद्यालयों में “आनंद घर” की अवधारणा इसी गहराई के साथ लागू हो रही है? या फिर यह भी एक योजना का आकर्षक पोस्टर और भाषण का हिस्सा भर बनकर रह गई है?

कई बार देखने में आता है कि स्कूलों में एक दिन का आनंद मेला आयोजित होता है, रंगोली प्रतियोगिता होती है, बच्चों को खिलौने-बैलून या मिठाई बाँटी जाती है, और अगले दिन से वही पुराना भय, वही डाँट और वही परीक्षा-केंद्रित दिनचर्या लौट आती है। प्रश्न यह है कि क्या यह सतही आयोजन विद्यालय को वास्तविक अर्थ में आनंद घर बना पाएँगे?

इन सबके बीच छात्रों को क्या मिला? – सबसे कठिन प्रश्न

इस पूरे विमर्श का सबसे महत्वपूर्ण, परंतु सबसे असहज करने वाला प्रश्न यही है कि इन योजनाओं की आड़ में छात्रों को क्या फायदा मिला? शिक्षक सम्मानित होने लगे, मंचों पर मालाएँ पड़ने लगीं, प्रमाणपत्रों की फाइलें मोटी होती गईं, सोशल मीडिया पर प्रशंसा की झड़ी लगने लगी—लेकिन छात्र के सीखने का स्तर कहाँ पहुँचा?

सीखने के स्तर में वास्तविक बदलाव कितना?

विभिन्न सर्वेक्षण और परीक्षण लगातार यह संकेत दे रहे हैं कि बुनियादी पढ़ना-लिखना और गणित करने की क्षमता अभी भी बड़ी चुनौती बनी हुई है। अनेक छात्र कक्षा 5 में पहुँचकर भी कक्षा 2 के स्तर का पाठ ठीक से नहीं पढ़ पाते, सरल घटाव और भाग में अटक जाते हैं, और भाषा की समझ केवल पाठ रट लेने तक सीमित रह जाती है।

तब स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि यदि विद्यालयों में इतना नवाचार हो रहा है, सीखने को आनंदमय बनाने के इतने प्रयोग हो रहे हैं, तो फिर सीखने के परिणामों में अपेक्षित सुधार क्यों नहीं दिख रहा? इसका एक बड़ा कारण यह है कि नवाचार और योजनाओं का केंद्र वास्तव में छात्र नहीं, बल्कि शिक्षक का व्यक्तित्व और विद्यालय का बाहरी प्रदर्शन बन गया।

क्या नवाचार ने सीखने की बराबरी बढ़ाई या असमानता?

शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य है सामाजिक और शैक्षिक असमानताओं को कम करना। लेकिन कई बार गतिविधि-प्रधान नवाचार और आनंद घर मॉडल ने अनजाने में असमानता को और बढ़ा दिया। तेज, आत्मविश्वासी और पहले से सक्षम बच्चे अधिकांश गतिविधियों में आगे रहते हैं, मंच पर आते हैं, वीडियो और फोटो में दिखाई देते हैं। दूसरी ओर, कमजोर, झिझकने वाले या घर से समर्थन न पाने वाले बच्चे पीछे ही रह जाते हैं, और उनके लिए कोई विशेष रणनीति नहीं बन पाती।

वास्तव में देखा जाए तो सबसे बड़ा नवाचार वही होता जो सबसे कमजोर बच्चे को सबसे अधिक लाभ पहुँचा दे। यदि उस बच्चे की समझ, आत्मविश्वास और प्रदर्शन में सुधार नहीं आया, तो नवाचार के सारे दावे आधे-अधूरे रह जाते हैं।

जीवन कौशल में कितनी बढ़ोतरी?

नवाचार और आनंद घर की पूरी अवधारणा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य यह भी होना चाहिए कि छात्रों में जीवन कौशल विकसित हों—जैसे संवाद-कौशल, समस्या समाधान, टीमवर्क, निर्णय क्षमता, संवेदनशीलता और आत्म-अनुशासन। पर अक्सर गतिविधियाँ केवल आयोजन बनकर रह जाती हैं।

ऐसी स्थिति में बच्चे सहभागी कम, दर्शक अधिक बन जाते हैं। शिक्षक का “शोकेस” प्रमुख हो जाता है और छात्र केवल बैकग्राउंड बन जाते हैं। इससे विद्यार्थियों के भीतर स्थायी परिवर्तन की संभावना सीमित रह जाती है।

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नवाचार की आड़ में शिक्षकों की मशहूरी – एक अनदेखा सच

यह बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि किसी भी समर्पित और मेहनती शिक्षक का सम्मान होना ही चाहिए। समाज को अपने अच्छे शिक्षकों की पहचान कर उन्हें सामने लाना ही चाहिए। लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब सम्मान का आधार वास्तविक गुणवत्ता के बजाय चमक-दमक और प्रस्तुति कौशल बन जाता है।

पिछले कुछ वर्षों में यह प्रवृत्ति तेजी से सामने आई कि जैसे ही किसी शिक्षक ने कोई आकर्षक गतिविधि करवाई, रंगीन पोस्टर बनाए, वीडियो तैयार किया या सोशल मीडिया पर लगातार सक्रियता दिखायी, उसे तुरंत “नवाचारी शिक्षक” की श्रेणी में रख दिया गया।

जिले, प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कारों और सम्मान समारोहों की संख्या भी बढ़ती गई। कई संस्थाएँ और मंच शिक्षक सम्मान कार्यक्रम आयोजित करने लगे, जिनमें कई बार चयन प्रक्रिया और मापदंड अत्यंत अस्पष्ट रहे। इस माहौल में अनेक शिक्षक मंचों पर तो मशहूर हो गए, पर उनकी कक्षा के बच्चों के सीखने का ठोस मूल्यांकन कभी सामने नहीं आया।

वास्तविकता यह है कि सच्चा नवाचारी वही शिक्षक है जो बिना शोर-शराबे के, बिना अत्यधिक प्रचार के, अपनी कक्षा के कमजोर से कमजोर बच्चे को भी आगे बढ़ा दे, उसकी आँखों से सीखने का डर मिटा दे और उसे सोचने, पूछने और समझने की हिम्मत दे। यह काम कैमरे के सामने नहीं, चुपचाप ब्लैकबोर्ड और कॉपी-किताब के बीच होता है।

नवाचार बनाम शिक्षण गुणवत्ता – असली लड़ाई कहाँ है?

शिक्षण की वास्तविक गुणवत्ता दो बातों पर निर्भर करती है – शिक्षक की विषय-समझ और शिक्षक की शिक्षण-कौशल। नवाचार तभी सार्थक है जब वह इन दोनों को मजबूत करे। यदि नवाचार के नाम पर केवल बाहरी गतिविधियाँ बढ़ें, पोस्टर, प्रोजेक्ट और वीडियो बनें लेकिन शिक्षक की विषयगत पकड़ और कक्षा प्रबंधन कौशल में सुधार न हो, तो इसे वास्तविक शिक्षा सुधार नहीं कहा जा सकता।

आज का संकट यही है कि अनेक शिक्षक अपनी मूल भूमिका—गंभीरता से पढ़ाना, बच्चों की कॉपी जाँचना, उनकी शंकाएँ समझना—से कहीं-कहीं हटकर “प्रस्तुति-प्रधान” दिशा में खिसक गए हैं। जो शिक्षक शांत, संकोची और ईमानदारी से पढ़ाने वाले हैं, वे कई बार मंचों और पुरस्कारों की दौड़ में पीछे रह जाते हैं, जबकि बच्चों के वास्तविक परिणाम पर उन्हीं का योगदान अधिक होता है।

इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि नवाचार और आनंद घर की अवधारणा को शिक्षण गुणवत्ता से जोड़ा जाए, न कि केवल दिखावे से।

छात्रों को असली लाभ कैसे मिले? – व्यावहारिक दिशा

यदि शिक्षा में नवाचार और विद्यालय को आनंद घर बनाने की योजनाओं को वास्तविक अर्थ में सफल बनाना है, तो कुछ ठोस सुधार किए बिना यह संभव नहीं होगा:

  • सीखने का वैज्ञानिक आकलन अनिवार्य हो – हर नवाचार, हर योजना और हर प्रयोग की सफलता का मूल्यांकन बच्चों के सीखने के परिणामों से जुड़ा होना चाहिए। केवल फोटो, रिपोर्ट और भाषण के आधार पर किसी प्रयोग को सफल घोषित करना पर्याप्त नहीं है।
  • नवाचार को इवेंट नहीं, प्रक्रिया बनाया जाए – एक दिन की गतिविधि, एक मेले या एक विशेष आयोजन से शिक्षा की दिशा नहीं बदलती। बदलाव तब होगा जब कक्षा का हर दिन थोड़ी-थोड़ी नवीनता, संवाद और सहभागिता से भरा हो।
  • कमजोर विद्यार्थियों के लिए विशेष रणनीति बने – नवाचार का पहला लाभ सबसे कमजोर छात्र तक पहुँचना चाहिए। यदि कक्षा के अंतिम पंक्ति में बैठा बच्चा भी धीरे-धीरे आत्मविश्वास के साथ सीखने लगे, तभी यह माना जाना चाहिए कि विद्यालय सचमुच आनंद घर बन रहा है।
  • शिक्षक प्रशिक्षण में वास्तविक निवेश – शिक्षक तभी नवाचारी बन सकता है जब उसकी विषय-गहराई मजबूत हो और उसे नए शिक्षण तरीकों, मनोवैज्ञानिक समझ और कक्षा प्रबंधन की तकनीकों पर गुणवत्तापूर्ण प्रशिक्षण मिले। केवल योजनाओं की जानकारी देना प्रशिक्षण नहीं है; गंभीर अकादमिक संवाद और अभ्यास की भी आवश्यकता है।
  • सम्मान संस्कृति का पुनर्विचार – सम्मान आवश्यक हैं, लेकिन सम्मान का आधार प्रदर्शन नहीं, परिणाम होना चाहिए। यदि पुरस्कार और मंच बच्चों के सीखने की प्रगति से जुड़े मापदंडों पर दिए जाएँ, तो शिक्षक का ध्यान भी स्वाभाविक रूप से प्रचार से हटकर गुणवत्ता पर जाएगा।

निष्कर्ष – नवाचार, आनंद और शिक्षा का संतुलित संबंध

अंततः प्रश्न यह नहीं कि शिक्षा में नवाचार चाहिए या नहीं; वास्तविक प्रश्न यह है कि नवाचार किसके लिए और किस दिशा में है। इसी तरह, विद्यालय को आनंद घर बनाना भी एक सुंदर और आवश्यक लक्ष्य है, बशर्ते आनंद का अर्थ केवल शोर-शराबा, इवेंट और दिखावे तक सीमित न हो, बल्कि वह बच्चे के भीतर सीखने की सच्ची खुशी और आत्मविश्वास के रूप में दिखाई दे।

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यदि विद्यालय की चारदीवारी के भीतर:

  • डाँट के स्थान पर संवाद,
  • भय के स्थान पर विश्वास,
  • रटने के स्थान पर समझ,
  • और अपमान के स्थान पर सम्मान

का वातावरण बनता है, तो निश्चित ही विद्यालय आनंद घर की दिशा में बढ़ रहा है। लेकिन अगर नवाचार और आनंद की बातें केवल मंचों, भाषणों, पोस्टरों और पुरस्कारों तक सीमित रह जाएँ, और छात्र की कॉपी पर आज भी वही लाल क्रॉस, वही अधूरा सीखना और वही भय की रेखाएँ दिखें, तो हमें ईमानदारी से मानना होगा कि कहीं न कहीं हमने शिक्षा के मूल उद्देश्य से समझौता कर लिया है।

शिक्षा में नवाचार की चमक और शिक्षकों की अचानक बढ़ी लोकप्रियता

पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा में नवाचार का ऐसा दौर आया कि अनेक शिक्षक रातों-रात चर्चित हो गए। किसी ने कक्षा की सामान्य गतिविधि को आकर्षक रंग देकर प्रस्तुत कर दिया, तो किसी ने साधारण कागज़ी प्रयोग को सुंदर भाषा में ‘नवाचार’ कहकर मंचों पर वाहवाही बटोर ली। शिक्षक ने क्या किया—यह सार्वजनिक हो गया, पोस्टरों, वीडियो और सोशल मीडिया पर बार-बार दिखाया गया, और सम्मान समारोहों ने उनकी छवि को और ऊँचा किया। लेकिन इस चमकदार तस्वीर में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न अदृश्य रहा—इन नवाचारों से आखिर कितने बच्चों का वास्तविक विकास हुआ? कितने विद्यार्थियों ने नई आदतें अपनाईं, कितनों ने आदर्श कायम कर उदाहरण प्रस्तुत किया? दुर्भाग्य से, इन प्रश्नों का कोई पारदर्शी और प्रमाणिक डेटा उपलब्ध नहीं है।

नवाचार का केंद्र बदला—बच्चों से हटकर शिक्षक पर

नवाचार की बढ़ती संस्कृति ने शिक्षा में एक गहरा अंतराल पैदा किया है। वह अंतराल है—नवाचार का लाभ किसे मिला? मंचों पर सम्मान और प्रमाणपत्रों की वृद्धि ने शिक्षक को केंद्र में ला दिया, लेकिन वह बच्चा जो इन प्रयोगों का असली उद्देश्य था—वह कहीं पीछे छूट गया। यदि नवाचार मजबूत, सार्थक और स्थायी था, तो उसके प्रभाव का पहला प्रमाण बच्चों के परिणाम होने चाहिए थे, परंतु बच्चों की प्रगति को मापने का कोई ठोस आधार तैयार ही नहीं किया गया। आज स्थिति यह है कि किसी शिक्षक को नवाचार के लिए बड़े मंच पर सम्मानित किया जाता है, लेकिन यह जानना लगभग असंभव है कि उसी नवाचार से कितने बच्चे पढ़ने, लिखने, समझने या सोचने में बेहतर हुए।

बच्चों के परिणाम कहां हैं?—सबसे जरूरी लेकिन अनुपस्थित सवाल

सबसे पीड़ादायक सत्य यही है कि जिन बच्चों के नाम पर ये नवाचार शुरू हुए, उन्हीं बच्चों के परिणाम और उपलब्धियाँ कहीं दर्ज नहीं हैं। शिक्षक सम्मानित हुए, लेकिन वे बच्चे कहाँ गए जिन्हें ‘नवाचरित’ कर शिक्षक महान बने? जो बच्चे नवाचार की प्रक्रिया में शामिल किए गए, क्या उनके कौशल, समझ और अध्ययन स्तर में कोई स्थायी वृद्धि हुई? यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। यदि बच्चे आगे नहीं बढ़े, तो नवाचार का वास्तविक अर्थ क्या रह गया—सिर्फ एक प्रस्तुति, एक फोटो या एक सम्मान पत्र?

सच्चा नवाचार: मंच की तालियों में नहीं, बच्चे की आँखों की चमक में

शिक्षा का असली नवाचार वही है, जो बच्चे के भीतर सीखने की खुशी जगाए, उसके आत्मविश्वास को बढ़ाए और उसे जीवन के लिए मजबूत बनाए। सच्ची सफलता यही है कि बच्चा भयमुक्त हो, संवाद करे, सोच सके, समझ सके और सीखने को अपनी स्वाभाविक यात्रा माने। सम्मानित शिक्षक तभी “महान” कहलाता है जब उसके विद्यार्थियों की प्रगति दिखाई दे, न कि जब केवल उसके मंचीय सम्मान बढ़ जाएँ। इसलिए शिक्षा जगत में अब आवश्यकता है कि नवाचार का आकलन बदलें—शिक्षक की लोकप्रियता के बजाय विद्यार्थी की प्रगति को केंद्र में रखा जाए। जब नवाचार का केंद्र बच्चा होगा, तभी शिक्षा का उद्देश्य सार्थक होगा।

इसलिए समय की सबसे बड़ी माँग यह है कि शिक्षा में नवाचार और विद्यालय को आनंद घर बनाने की हर योजना का केंद्र बिंदु सिर्फ और सिर्फ छात्र हो—उसका विकास, उसकी समझ, उसकी संवेदना और उसका भविष्य। शिक्षक तभी वास्तव में सम्मानित कहलाएगा जब उसकी मशहूरी से अधिक, उसके छात्रों की आँखों में चमक दिखे। यही शिक्षा में नवाचार का मूल भाव है और यही विद्यालय के आनंद घर बनने की सच्ची कसौटी भी।


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