
✍️जगदंबा उपाध्याय की विशेष रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश का पूर्वांचली जिला आजमगढ़ कभी शिक्षित समाज की नर्सरी माना जाता था, लेकिन बीते दशक में इसका शैक्षणिक परिदृश्य कई परतों में बदल गया है। आज यह जिला शिक्षा के दो समानांतर चेहरों के साथ खड़ा है—एक तरफ सरकारी विद्यालयों का संघर्षशील ढांचा है, तो दूसरी ओर प्राइवेट स्कूलों की चमकती इमारतें और आकर्षक बोर्ड-रिज़ल्ट। सवाल यही है कि क्या शिक्षा का विकास सचमुच हो रहा है या सिर्फ “संरचना” बदली है?
सरकारी योजनाओं की छाया और स्थानीय असर
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP-2020), समग्र शिक्षा अभियान और NIPUN भारत मिशन जैसे कार्यक्रमों ने देशभर में शिक्षा के बुनियादी ढांचे में सुधार के प्रयास किए। आजमगढ़ भी इससे अछूता नहीं रहा। पिछले दस वर्षों में जिले के लगभग हर प्रखंड में सरकारी प्राथमिक विद्यालयों के लिए तीन-वर्षीय विकास कार्ययोजनाएँ बनीं। शिक्षकों को डिजिटल माध्यम से रिपोर्टिंग और स्कूल प्रबंधन समितियों को निर्णय-प्रक्रिया में भागीदारी देने की व्यवस्था की गई।
पर सवाल यह है कि क्या नीतियों का यह शोर जमीनी बदलाव में बदला? इसका उत्तर आंशिक रूप से हाँ है। उदाहरण के तौर पर, सगड़ी क्षेत्र के बासुपार बनकट का प्राथमिक विद्यालय अब किसी मॉडल स्कूल से कम नहीं दिखता—AC कक्षाएँ, स्मार्ट लाइब्रेरी, साफ़ सुथरा परिसर और आधुनिक रसोईघर। लेकिन ऐसे उदाहरण पूरे जिले में गिनती के हैं। अधिकतर सरकारी स्कूल अभी भी दीवारों के उखड़े प्लास्टर, टूटी खिड़कियों और सीमित संसाधनों के साथ संघर्ष कर रहे हैं।
मर्जिंग की नीति : स्कूल बंद, बच्चे दूर
2025 में शिक्षा विभाग ने आजमगढ़ के लगभग 98 परिषदीय स्कूलों को कम नामांकन के कारण पास के स्कूलों में मिला दिया। इस नीति का उद्देश्य संसाधनों का बेहतर उपयोग था, लेकिन ग्रामीण परिवारों पर इसका उल्टा असर हुआ। जिन बच्चों को पहले स्कूल गाँव के भीतर मिल जाता था, अब उन्हें तीन-चार किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। बारिश या धूप में यह दूरी पढ़ाई से ज़्यादा कठिन परीक्षा बन जाती है।
सरकार इसे “सुधार” कहती है, मगर गाँव के अभिभावक इसे “विलय नहीं, विस्थापन” मानते हैं। ग्रामीण समाज में यह चर्चा आम हो चली है कि सरकारी शिक्षा अब गरीबों की नहीं, प्रशासन की सुविधा का विषय बन गई है।
शिक्षक और शिक्षण की गुणवत्ता
शिक्षा का आधार शिक्षक होता है, और आजमगढ़ में यही सबसे कमजोर कड़ी साबित हो रही है। हाल ही में जिले में 22 सहायक शिक्षकों के फर्जी प्रमाणपत्र पकड़े गए, जिन्हें सेवा से हटाना पड़ा। यह केवल आंकड़ा नहीं, बल्कि उस व्यवस्था का दर्पण है जिसमें नियुक्ति से लेकर जवाबदेही तक सब कुछ अस्पष्ट रहा है।
कई सरकारी स्कूलों में शिक्षक-छात्र अनुपात अभी भी तय मानकों से नीचे है। शिक्षामित्रों और अनुबंधित शिक्षकों पर निर्भरता इतनी अधिक है कि नियमित शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों का असर सीमित रह गया है।
वहीं, निजी स्कूलों में शिक्षक चयन प्रक्रिया अपेक्षाकृत कठोर है। वहां विषय-विशेषज्ञता और भाषाई दक्षता को प्राथमिकता दी जाती है। परंतु वेतन और कार्य-स्थायित्व की अस्थिरता प्राइवेट शिक्षकों के लिए एक अलग चुनौती है। निजी स्कूलों में शिक्षकों से अधिक काम और बेहतर परिणाम की अपेक्षा रहती है, जिससे शैक्षणिक गुणवत्ता तो बढ़ती है, पर मानव संसाधन पर दबाव भी बढ़ता है।
पठन-पाठन और परीक्षा परिणामों की तुलना
अगर परीक्षा परिणामों को ही शैक्षिक विकास का पैमाना मानें, तो आजमगढ़ में निजी स्कूलों का पलड़ा भारी दिखता है। यूपी बोर्ड की 10वीं परीक्षा में 93 प्रतिशत से अधिक छात्रों ने सफलता पाई, जिनमें सर्वाधिक अंक प्राइवेट स्कूलों के विद्यार्थियों ने हासिल किए। CBSE परिणामों में तो यह अंतर और स्पष्ट है—आजमगढ़ पब्लिक स्कूल की छात्रा हाजरा माजिद ने 99.4 प्रतिशत अंक प्राप्त कर जिले में रिकॉर्ड बनाया।
सरकारी स्कूलों के छात्रों ने भी मेहनत दिखाई है, लेकिन संख्या और प्रदर्शन दोनों में वे अभी पीछे हैं। इसकी मुख्य वजह है—अध्ययन-सामग्री की सीमित उपलब्धता, डिजिटल साधनों का अभाव और परीक्षा-पूर्व तैयारी का कमजोर ढांचा। जबकि प्राइवेट स्कूलों में एक्स्ट्रा क्लास, प्रैक्टिस टेस्ट और व्यक्तिगत ध्यान जैसी सुविधाएँ सामान्य बात हैं।
फिर भी, एक दिलचस्प परिवर्तन यह हुआ है कि कोविड-के बाद सरकारी स्कूलों में बुनियादी पढ़ाई—जैसे पढ़ना, लिखना और गणना—में तेजी से सुधार हुआ है। ASER रिपोर्ट बताती है कि कई ग्रामीण स्कूलों में बच्चे अब पहले की तुलना में ज्यादा सहजता से गणना और पाठ्य-पाठन कर पा रहे हैं। यह NIPUN मिशन और शिक्षकों की स्थानीय पहल का सकारात्मक परिणाम है।
शिक्षा और वर्ग विभाजन की नई रेखाएँ
आजमगढ़ की शैक्षणिक तस्वीर केवल संस्थागत अंतर से नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से भी प्रभावित है। सरकारी स्कूलों में अधिकतर बच्चे दलित, पिछड़े या अल्पसंख्यक परिवारों से आते हैं—जहाँ शिक्षा अब भी “संभावना” नहीं, “संघर्ष” है।
प्राइवेट स्कूलों में वही बच्चे पहुँच पाते हैं जिनके अभिभावक फीस, यूनिफॉर्म और अतिरिक्त कोचिंग का खर्च उठा सकते हैं। यह अंतर अब सिर्फ गुणवत्ता का नहीं रहा, बल्कि वर्ग और अवसर का भी हो गया है। ग्रामीण परिवारों के लिए शिक्षा अब भी “सरकारी दया” की तरह है, जबकि शहरी मध्यवर्ग इसे “प्रतिस्पर्धा में निवेश” के रूप में देखता है।
यह विभाजन आजमगढ़ में सामाजिक असमानता की एक नई परत तैयार कर रहा है। सरकारी स्कूलों की गिरती साख और प्राइवेट स्कूलों की बढ़ती लोकप्रियता ने अभिभावकों के मन में यह धारणा बना दी है कि अच्छी शिक्षा सिर्फ पैसे से खरीदी जा सकती है।
पारदर्शिता और डेटा की समस्या
शिक्षा विभाग ने UDISE+ जैसे पोर्टलों के माध्यम से स्कूल-स्तर की निगरानी व्यवस्था तो बना दी, लेकिन डेटा अपडेट न होने की समस्या अब भी बनी हुई है। कई सरकारी स्कूलों ने अपने छात्रों का पूरा विवरण पोर्टल पर नहीं चढ़ाया। इसका असर योजना-निर्माण पर सीधा पड़ता है—कितने बच्चे नामांकित हैं, कितनों को छात्रवृत्ति या मिड-डे-मील मिला, ये आँकड़े अधूरे रहते हैं।
दूसरी ओर, प्राइवेट स्कूलों में निगरानी की प्रणाली बाज़ार-आधारित है। वहाँ पारदर्शिता अभिभावकों के दबाव और बोर्ड-मानकों से आती है, न कि सरकारी आदेश से। फीस-संबंधी विवादों के बावजूद निजी संस्थानों ने अपनी ब्रांड-छवि बनाकर भरोसा कायम किया है।
डिजिटल और सामाजिक पहल के अवसर
हालाँकि, आजमगढ़ में एक नई उम्मीद भी दिख रही है—डिजिटल शिक्षा की। कोविड-काल में कई ग्रामीण छात्र, जिनके पास ट्यूशन या कोचिंग के साधन नहीं थे, उन्होंने यूट्यूब और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म से तैयारी कर उल्लेखनीय अंक प्राप्त किए। यह परिवर्तन बताता है कि अगर इंटरनेट और उपकरण की पहुँच बढ़ाई जाए, तो सरकारी स्कूलों के बच्चे भी निजी संस्थानों से कम नहीं रहेंगे।
साथ ही, विद्यालय प्रबंधन समितियों (SMCs) की भूमिका धीरे-धीरे सशक्त हो रही है। कई गाँवों में माता-पिता अब सिर्फ मिड-डे-मील या किताबों तक सीमित नहीं हैं; वे शिक्षक-उपस्थिति और सफाई-व्यवस्था पर सवाल उठाने लगे हैं। यह भागीदारी यदि बनी रही तो सरकारी स्कूलों की जवाबदेही अपने-आप बढ़ेगी।
शिक्षा और राजनीति का समीकरण
आजमगढ़ का शैक्षणिक विमर्श राजनीति से भी जुड़ता है। जिले में स्कूलों का विलय या शिक्षकों की नियुक्ति अक्सर राजनीतिक वाद-विवाद का केंद्र बन जाती है। विपक्षी दल आरोप लगाते हैं कि “सरकारी स्कूलों की बंदी गरीब वर्ग पर हमला है”, जबकि सरकार का दावा है कि “यह संसाधन-सुधार की दिशा में कदम है।”
वास्तव में, सच्चाई दोनों के बीच है। प्रशासनिक दृष्टि से मर्जिंग से खर्च घटता है, लेकिन सामाजिक दृष्टि से यह कई बच्चों की पहुँच कम कर देता है। शिक्षा नीति अगर केवल आंकड़ों का खेल बनकर रह जाएगी, तो उसका उद्देश्य अधूरा रह जाएगा।
विकास की गति : धीमी, मगर दिशा सही
यह कहना गलत होगा कि आजमगढ़ में शिक्षा का विकास नहीं हो रहा। विकास हो रहा है, बस गति असमान है। जिन ब्लॉकों में शिक्षकों की तैनाती और सामुदायिक सहभागिता मजबूत रही, वहाँ सरकारी स्कूलों की छवि बदली है। वहीं, जहाँ राजनीतिक हस्तक्षेप या प्रशासनिक लापरवाही रही, वहाँ पुराने ढर्रे कायम हैं।
निजी स्कूलों का प्रसार तेज़ी से हुआ है। पिछले एक दशक में जिले में प्राइवेट स्कूलों की संख्या लगभग दोगुनी हुई है, जबकि सरकारी स्कूलों की संख्या घटकर 2700 के आसपास रह गई। इसका अर्थ है कि परिवार अब सरकारी विकल्प से दूर हो रहे हैं, और शिक्षा बाज़ार-निर्भर होती जा रही है।
फिर भी, जिले में लर्निंग आउटकम्स के स्तर पर हल्की वृद्धि दर्ज हुई है। ASER 2024 रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण उत्तर प्रदेश में सरकारी विद्यालयों में पढ़ने और गिनने की बुनियादी क्षमताएँ 2018 के स्तर से बेहतर हुई हैं। यह धीमा, लेकिन स्थायी सुधार है।
आगे की राह : शिक्षा को पुनः सामाजिक अधिकार बनाना
अगर आजमगढ़ को शिक्षण-केंद्र के रूप में पुनः स्थापित करना है, तो सबसे पहले यह स्वीकार करना होगा कि शिक्षा केवल परीक्षा का विषय नहीं, सामाजिक न्याय का औजार है। सरकारी स्कूलों को बंद करने या मर्ज करने की जगह उन्हें सशक्त बनाने की ज़रूरत है—स्मार्ट क्लास, पुस्तकालय, प्रशिक्षित शिक्षक और तकनीकी सहायता के साथ।
दूसरे, निजी स्कूलों की जवाबदेही भी तय होनी चाहिए। फीस-नियमन, RTE के तहत गरीब छात्रों के लिए सीटों का अनुपालन और शिक्षक-कल्याण जैसे पहलू शिक्षा के समग्र विकास के लिए जरूरी हैं।
तीसरे, डिजिटल शिक्षा को ग्रामीण इलाकों तक पहुँचाना अनिवार्य है। सस्ती इंटरनेट सेवा और टैबलेट-वितरण योजनाएँ तभी कारगर होंगी जब बिजली, नेटवर्क और प्रशिक्षक—तीनों साथ उपलब्ध हों।
और अंत में, आजमगढ़ को शिक्षा की लड़ाई “प्रतिस्पर्धा” के बजाय “समान अवसर” की भावना से लड़नी होगी। तभी यह जिला दो चेहरों वाला नहीं, बल्कि एक संतुलित शैक्षणिक समाज बन सकेगा।
पिछले दशक में आजमगढ़ का शैक्षणिक परिदृश्य न तो पूरी तरह बदला है, न पूरी तरह ठहरा हुआ है। यह एक संक्रमण-काल में है—जहाँ सरकारी स्कूल अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं और प्राइवेट स्कूल तेजी से नई पीढ़ी को आकार दे रहे हैं। शिक्षा के इस द्वंद्व में असली सवाल यह नहीं है कि कौन बेहतर है, बल्कि यह है कि कौन सबको साथ लेकर चल रहा है। अगर आने वाले वर्षों में सरकारी और निजी शिक्षा के बीच यह पुल बन पाया, तो आजमगढ़ न सिर्फ साक्षर जिला कहलाएगा, बल्कि “शिक्षित समाज” का आदर्श भी बन सकता है।